सू की की रिहाई का सवाल

हाल के दिनों में पड़ोसी देशों-नेपाल, पाकिस्तान और भूटान में लोकतंत्र का सूर्योदय होना हमारे लिए सुखद अनुभूति थी। अन्य पड़ोसी देशों-चीन, बांग्लादेश, मालदीव और म्यांमार में लोकतंत्र का सूर्योदय कब होगा? यह विचारणीय प्रश्न काफी महत्वपूर्ण है। खासकर म्यांमार में जिस तरह से सैनिक सरकार हिंसा के सहारे लोकतंत्र बहाली आंदोलन को कुचल रही है, उसके खिलाफ अंतर्राष्टीय स्तर पर मुहिम की ़जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता है। म्यांमार की सैनिक सरकार द्वारा लोकतंत्र बहाली आंदोलन को कुचलने और दमन के लिए झूठ, फरेब का सहारा लेना कोई नई बात नहीं है। म्यांमार की सैनिक सरकार ने फिर से लोकतंत्र बहाली आंदोलन की सेनानी आन सान सू की का उत्पीड़न करने और उनकी नजरबंदी को जायज ठहराने के लिए जिस तरह से हथकंडे अपनाए हैं, उससे दुनिया भर में न केवल चिंता फैली है, बल्कि अंतर्राष्टीय नियामकों से इस मसले पर कार्रवाई करने की मांग भी उठी है। म्यांमार की सैनिक सरकार सू की को देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा मानती है। एक बयान में सू की पर विदेशों से धन लेने और हिंसा फैलाने के आरोप लगाए गए हैं। इस आरोप में सू की की कोड़ों से पिटाई करने की इच्छा जताई गई है। वास्तव में सू की पर ये आरोप मानवाधिकार हनन की घटनाओं को छुपाने के उद्देश्य से लगाए गए हैं। लोकतंत्र बहाली आंदोलन को कुचलने के लिए बड़े पैमाने पर मानवाधिकार का हनन हुआ है। हजारों लोकतंत्र आंदोलनकारी जेलों में अमानवीय उत्पीड़न को झेलने के लिए विवश हैं। मानवाधिकार का सम्मान करने और लोकतंत्र बहाली को सुनिश्र्चित करने के अंतर्राष्टीय दबावों का कोई असर म्यांमार की सैनिक सरकार के ऊपर नहीं पड़ा है। खासकर चीन और रूस म्यांमार की सैनिक सरकार के संरक्षक के तौर पर खड़े हैं। सू की पिछले 20 सालों से नजरबंद हैं। सू की को लोकतंत्र बहाली आंदोलन से अलग-थलग करने के सभी उपाय बेकार साबित हुए हैं। सू की ने म्यांमार में लोकतंत्र बहाली के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया है। वह म्यांमार की महान स्वतंत्रता सेनानी ऑग-सॉग की पुत्री हैं। ऑग-सॉग की म्यांमार की स्वतंत्रता के बाद हत्या कर दी गई थी। सू की के परिवार को म्यांमार में वही सम्मान हासिल है, जो भारत में नेहरू परिवार और अमेरिका में केनेडी परिवार को हासिल है। राजनीति और संघर्ष तो उन्हें विरासत में ही मिला है। वह 1988 में अपनी बीमार मॉं को देखने के लिए म्यांमार लौटी थीं। इसी दौरान सू की लोकतंत्र बहाली आंदोलन से जुड़ गईं। अंतर्राष्टीय दबावों के कारण 1990 में म्यांमार में संसदीय चुनाव हुए थे। इस संसदीय चुनाव में सू की को चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया गया था। पर सू की के नेतृत्व वाला गठबंधन एनएलडी ने आसानी से चुनाव जीत लिया था। चूँकि सैनिक सरकार का इरादा सत्ता छोड़ने का नहीं था। इसलिए एनएलडी को सत्ता नहीं सौंपी गई और सू की को नजरबंद कर दिया गया। तब से आज तक वह नजरबंदी में ही जीवन गुजार रही हैं। म्यांमार की जनता सू की को मुक्तिदाता के तौर पर देखती है। अंतर्राष्टीय स्तर पर भी सू की के संकल्प और त्याग को काफी सम्मान मिला है। उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार सहित कई अन्य अंतर्राष्टीय पुरस्कार मिले हैं।

सू की की रिहाई और लोकतंत्र बहाली के लिए अब तक के सभी अंतर्राष्टीय प्रयास विफल ही साबित हुए हैं। अमेरिका और यूरोपीय यूनियन ने सू की की रिहाई और लोकतंत्र बहाली के लिए म्यांमार पर कई प्रतिबंध भी लगा रखे हैं। संयुक्त राष्ट संघ की भी सिायता कम नहीं रही है। संयुक्त राष्ट संघ में कई बार म्यांमार की सैनिक सरकार के खिलाफ प्रस्ताव भी आए, पर चीन और रूस ने म्यांमार की सैनिक सरकार का संरक्षक के तौर पर खड़े होने का काम किया। वास्तव में चीन और म्यांमार की सैनिक सरकार के बीच अघोषित गठबंधन है। चीन ने भारत और आसियान देशों को नियंत्रित करने के लिए म्यांमार को अपने साथ रखा है। चीन की इच्छा है कि म्यांमार में उसकी समर्थक सैनिक सरकार बनी रहे। पिछले साल ही म्यांमार में बौद्घ भिक्षुओं ने जबर्दस्त आंदोलन छेड़ा था। करीब दो माह तक चले बौद्घ भिक्षुओं के आंदोलन को दबाने के लिए सैनिक सरकार को बड़े पैमाने पर हिंसा का सहारा लेना पड़ा था, जिसमें सैकड़ों बौद्घ भिक्षु सैनिकों की गोलियों का शिकार हुए थे। हजारों बौद्घ भिक्षु आंदोलन करने के अपराध में जेलों में बंद हैं। बौद्घ भिक्षुओं के उत्पीड़न के खिलाफ भी अंतर्राष्टीय स्तर पर चिंता पसरी थी और सैनिक सरकार के खिलाफ कार्रवाई की मांग उठी थी। लेकिन चीन और रूस के वीटो के सामने दुनिया के सभी नियामक असहाय ही साबित हुए।

सैनिक सरकार कितनी संवेदनहीन और हिंसक है, इसका अंदाजा तो पिछले दिनों म्यांमार में आए भयंकर चावात से लगता है। इस भयानक चावात में एक लाख से अधिक लोगों की मौत हुई और कई लाख लोग बेघर हो गए। इतनी बड़ी घटना पर दुनिया भर में हलचल पैदा होना और सहायता के लिए विभिन्न देशों का आगे आना भी स्वाभाविक ही था। कई देशों ने तत्काल सहायता भेजी, लेकिन सैनिक सरकार ने विदेशी सहायता कर्मियों को देश में प्रवेश करने की इजाजत नहीं दी। सहायता के अभाव में हजारों चावात पीड़ितों की मौत भी हो गई। वास्तव में सैनिक सरकार को यह भय था कि विदेशी राहत कर्मियों को आने और चावात पीड़ित इलाकों में जाने की इजाजत देने से उसका असली चेहरा बेनकाब हो जाएगा। मानवाधिकार हनन की पोल भी खुल जाएगी। सैनिक सरकार के पास इतना धन है नहीं कि वह अपने बल पर चावात जैसी त्रासदी का मुकाबला कर सके। दरअसल सैनिक शासन में म्यांमार की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है। भूख और बेकारी पसरी हुई है। पर्यटन उद्योग भी चौपट हो चुका है। लेकिन सैनिक सरकार हिंसा के बल पर अपनी तानाशाही चला रही है।

म्यांमार आसियान का सदस्य है। आसियान ने बहुत तरक्की की है। आसियान के सदस्य होने के कारण म्यांमार को कई रियायतें भी मिली हुई हैं। आसियान के एजेंडें में लोकतंत्र को बढ़ावा देना भी शामिल है। लेकिन आसियान संगठन इस आरोप से पीछा नहीं छुड़ा सकता कि उसने म्यांमार में सरकारी हिंसा और लोकतंत्र बहाली आंदोलन पर अत्याचार और उत्पीड़न का कड़ा रुख नहीं अपनाया है। जबकि संयुक्त राष्ट संघ और अमेरिका ने आसियान से इस मसले पर अपनी भूमिका निभाने और लोकतंत्र बहाली सुनिश्र्चित करने की अपील की है। लेकिन आसियान अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार नहीं है।

म्यांमार में लोकतंत्र की स्थापना और सू की की रिहाई का कार्य दुरूह ही साबित हो रहा है। जब तक चीन और रूस का नजरिया नहीं बदलता है, तब तक म्यांमार में लोकतंत्र की स्थापना संभव ही नहीं हो सकती है। स्वहित में चीन और रूस म्यांमार की जनाकांक्षा का गला घोट रहे हैं। दुनिया के जनमत को म्यांमार की सैनिक तानाशाही के खिलाफ और मजबूत ढंग से अभियान चलाने की ़जरूरत है।

 

– विष्णु गुप्त

 

You must be logged in to post a comment Login