सोम दादा ने टॉंगा एक प्रश्न-चिह्न

लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने अपने पद पर बने रहने का फैसला किया है। बताया यही जा रहा है कि कम से कम विश्र्वास-मत हासिल करने की तारीख 22 जुलाई के पहले वह अपना इस्तीफा लोकसभा के अध्यक्ष पद से नहीं देने वाले। हालॉंकि यह बयान पूर्णतया पुष्ट नहीं है, क्योंकि न तो उन्होंने स्व़यं अथवा उनके कार्यालय ने इस तरह की कोई विज्ञप्ति प्रसारित की है। इस ़खबर को सच मान लेने की एक बहुत बड़ी वजह यह है कि वे अब भी अपने पद पर बने हुए हैं। अगर उन्हें अपनी पार्टी द्वारा अपनायी गई लाइन पर जाना होता तो वे तनिक भी विलम्ब नहीं करते और अपने पद से हट जाते। ़गो कि माकपा महासचिव प्रकाश करात आधिकारिक तौर पर यही बयान दे रहे हैं कि इस पद पर बने रहने अथवा हट जाने का निर्णय खुद सोमनाथ चटर्जी को ही लेना है, लेकिन भीतर-भीतर उन्हें इस्तीफा देने का दबाव भी पार्टी द्वारा बराबर डाला जा रहा है। पार्टी के वर्तमान नेतृत्व से उनकी नाराजगी भी अब छिपी नहीं रह गई है। वे इस बात से भी आहत हैं कि एक अराजनीतिक पद पर आसीन रहते उनका नाम पार्टी नेतृत्व ने उस सूची में क्यों शामिल किया, जो समर्थन वापसी के लिए राष्टपति प्रतिभा पाटिल को वामदलों के नेतृत्व ने सौंपी। उनका आरोप है कि पार्टी ने बिना उनसे पूछे और बिना उनकी रजामंदी के उनका नाम उस सूची में डाल दिया। उन्हें इस बात पर भी एतराज है कि पार्टी ने उनके वर्तमान अराजनीतिक व्यक्तित्व को अकारण राजनीति के दलदल में घसीटा है। ़गौरतलब है कि सूची में उनके नाम के साथ “कामरेड’ शब्द जोड़ा गया है जिसका इस्तेमाल अक्सर वामपंथी दल अपने कैडर में करते रहते हैं। सोमनाथ ने एक वा़िजब सवाल मार्कसिस्टों के सामने यह भी उठाया है कि सेकुलरवाद की दुहाई देने वाले वामदलों ने क्या सोच कर, अपने ही द्वारा सांप्रदायिक करार दी गई भाजपा के साथ मिलकर विश्र्वास-मत प्रस्ताव के खिलाफ वोटिंग करने का निर्णय किया है।

भले ही पार्टी अनुशासन के नाम पर बात खुल कर सामने नहीं आ रही हो, लेकिन सोमनाथ के विचारों से सहमति रखने वालों की कमी नहीं है। इसका इ़जहार भी अब वामपंथी खेमे से होने लगा है कि पार्टी चलाने वाले लोग अपने कैडर के विचारों की अवहेलना कर मनमाने निर्णय ले रहे हैं। अगर यह कैडर मनमोहन सिंह को इस बात के लिए दोषी मान रहा है कि उन्होंने अमेरिका के साथ न्यूक डील करने के मसले को अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है, तो वह इस बात से भी दुखी है कि माकपा महासचिव प्रकाश करात ने भी इस मसले पर सरकार गिराने की बात को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया है। उसे यह कत्तई नहीं पसंद है कि पार्टी अपनी वैचारिक प्रतिबद्घता की सीमारेखा तोड़ कर उन दलों या व्यक्तियों से अपने संबंध और सरोकार बढ़ाये जो अवसरवाद और तात्कालिकता के पोषक हों और जिनका एक मात्र लक्ष्य सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने भर का हो। भाजपा से उनका वैचारिक मतभेद छिपा नहीं है और कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को उन्होंने बहुत सारे मसलों पर गंभीर मतभेद होने के बावजूद अपना समर्थन सिर्फ भाजपा को सत्ता से दूर रखने की प्रतिबद्घता के कारण दिया है। कारण सिर्फ एक ही है कि वामपंथी भाजपा को हर दृष्टि से सांप्रदायिकता की संपोषक करार देते हैं।

पार्टी नेतृत्व ़खासकर करात के प्रति भीतर ही भीतर पार्टी कैडर में एक गुस्सा पनप रहा है। ऐसा नहीं है कि वह कांग्रेस अथवा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पक्ष में है अथवा अमेरिका या करार के प्रति, वह किसी हद तक रहमदिल हो गया है। इस दृष्टि से उसके विरोध में कोई कमी नहीं आई है। लेकिन वह डोर को उस हद तक खींचने का हिमायती नहीं है कि वह टूट जाय। क्योंकि उसको यह भी पता है कि कम से कम सेकुलरिज्म के नाम पर वह इन दलों के साथ आपसी तालमेल बैठा भी सकता है। लेकिन भाजपा के साथ तो उसका तालमेल किसी बिन्दु पर नहीं बैठने वाला। इस दृष्टि से पार्टी नेतृत्व द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संप्रग सरकार गिराये जाने के लिए भाजपा के साथ स्थापित किया जाने वाला समन्वय किसी कीमत पर स्वीकार नहीं है। वह अगर यह स्वीकार करेगा कि अमेरिका के साथ न्यूक डील करने वाली मनमोहन सरकार चली जाय तो वह यह भी नहीं चाहेगा कि उसकी जगह लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा नेतृत्व वाली राजग सरकार आ जाय। उसे इस बात का आभास है कि वह मनमोहन सरकार को गिरा तो सकता है लेकिन उसकी जगह कोई अपनी मनपसंद सरकार स्थापित नहीं कर सकता। संभवतः इसी कारण पार्टी स्तर पर पोलित ब्यूरो के सदस्य विमान बोस के इस वक्तव्य का काफी विरोध हुआ है कि अगर भाजपा अपना सांप्रदायिक एजेंडा वापस ले ले तो वाममोर्चा उसे भी समर्थन दे सकता है। माकपा के बुजुर्ग नेता और सामान्य कार्यकर्त्ता पार्टी महासचिव प्रकाश करात के इस मुत्तलिक बढ़े कदमों को अव्यावहारिक और अतिवादी मान रहे हैं। लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने प्रतीक रूप में ही सही, अपना यह विरोध पार्टी निर्णय के खिलाफ दर्ज करा दिया है कि उन्हें वामदलों का भाजपा के साथ विश्र्वास-मत के खिलाफ वोट देना किसी कीमत पर गवारा नहीं है। अतएव वे इस्तीफा न देकर अपने सिद्घांतों की ही रक्षा करेंगे। उनका यह प्रतीक-विरोध पूरी पार्टी के समक्ष एक प्रश्र्न्न-चिह्न बन कर खड़ा है और हो सकता है कि पार्टी के वे लोग जो सोच तो उन्हीं जैसा रहे हैं, लेकिन अनुशासन की वजह से बोल कुछ भी नहीं रहे हैं, सोम दादा की उत्प्रेरणा से समय रहते मुखर हो जायें।

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