हे सर्वतोमुखी अग्निदेव! आप नौका के सदृश इस भवसागर में भी शत्रुओं से बचाकर हमें पार ले जाएँ। आप हमारे पापों को विनष्ट करें।
द्विषो नो विश्र्वतोमुखाति
नावेव पारय।
अप न शोशुचदघम्।।
इस मंत्र में ईश्र्वर की उपमा एक ऐसे न्यायाधीश से दी गयी है, जो प्रज्ञा की सुरक्षा हेतु जंगलों में जाकर दस्यु व दुष्टजनों को दंड देता है। नाव में बैठकर समुद्र में भी प्रजा की रक्षा करता है। हर प्रकार से मनुष्य की सुख-शांति की व्यवस्था करके उसे सच्चा आनंद प्रदान करता है। वही सच्चिदानंद है। भलीभांति ईश्र्वर की उपासना करने वालों को काम, ाोध, लोभ, मोह, रोग, शोक रूपी शत्रुओं से कोई भय नहीं रहता। वह निःस्पृह रहकर जितेंद्रिय बनता है और सर्वत्र श्रेय व यश प्राप्त करता है।
संसार में चौरासी लाख योनियॉं हैं। उनमें से मनुष्य शरीर परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है। ज्ञानेंद्रिय, कर्मेंद्रिय, प्राण, मन, बुद्धि आदि अनेक ऋद्धि-सिद्धि से परिपूर्ण यह मानव शरीर संसार में समस्त प्राणियों की रक्षा एवं उन्नति के ध्येय से बनाया गया है। परमात्मा ने अपने इस राजकुमार को जो अनेक नियामतें दी हैं और हर समय, हर परिस्थिति में, उसकी रक्षा करने को तत्पर रहता है, तो मनुष्य का भी कर्त्तव्य है कि वह भगवान् के बनाये संसार के सभी जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, जड़-चेतन के पोषण एवं प्रगति के प्रति जागरूक रहे। संसार में उपलब्ध साधनों का दोहन ही न करता रहे, वरन् उनको परिपुष्ट करने का पुरुषार्थ भी करे, परंतु आज स्वार्थ में अंधा होकर मनुष्य इस ओर ध्यान ही नहीं देता और पाप के दल-दल में फॅंसता चला जाता है।
हम प्रार्थना करते हैं कि ईश्र्वर हमारे पापों को विनष्ट करे, पर अपने को पाप कर्म से रोकने का प्रयास भी नहीं करते, प्रायश्र्चित्त करना तो दूर रहा। इस प्रकार भगवान् हमें इस भवसागर की अनेकानेक बाधाओं से बचाकर कैसे पार लगा सकता है। हम अपने बनाये हुए नरक की आग में झुलसते रहते हैं। ईश्र्वरीय सत्ता से सहयोग करके ही हम धरती पर स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न कर सकते हैं, पर इस ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। चारों ओर व्याप्त कुरीतियों, कुविचारों और कुसंस्कारों के प्रलोभन हमें अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं। हम अपनी विवेक बुद्धि का भी समुचित उपयोग नहीं करते और पाप कर्म व पुण्य कर्म का भेद भी नहीं समझ पाते। परिणामस्वरूप दिनों-दिन पाप के गर्त में गिरते जाते हैं। परमपिता परमेश्र्वर तो हर पल, हर क्षण हमारी सहायता करने के लिए सर्वत्र उपलब्ध रहता है। हम चाहे उसे पहचानें या न पहचानें, पर वह तो अपने प्रिय पुत्र की रक्षा में कभी भी प्रमाद नहीं करता। दुराचार में फंसते देखकर पहले सचेत करता है।
अंतःकरण में उसकी आकाशवाणी गूंजती है। हम सुनकर सतर्क हो जाएँ, तो ठीक। पर यदि उसकी आवाज को अनसुना कर दिया, तो वह हमें ठोकर मारकर झकझोरता है। फिर भी यदि हम न चेतें, तो दंड भी देता है। स्वयं तो हम पापकर्मों में फॅंसे रहें और भगवान् से यह आशा करें कि वह हमारे लिए स्वर्ग व मुक्ति का द्वार खोल दे, इससे बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है?
अपने दोष-दुर्गुणों से छुटकारा पाने के लिए हमें स्वयं ही पुरुषार्थ करना होगा।
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