भारतीय जीवन-शैली में प्रत्येक दिन में प्रत्येक देवता की शक्ति संचारित होती है। उस देवता की, उस दिन आराधना के विधान से सब कुछ सुचारु हो जाता है। सारी मानव जाति के जीवन में सुख, शांति, समृद्घि आती है। ज्ञान का उजाला फैलता है। जीवन में समग्रता एवं सर्वसमर्थता स्वयं ही आ जाती है। देवभूमि भारत तो हमेशा से प्रतिभारत है। भारत के पास कर्म करने का सम्पूर्ण ज्ञान है और सम्पूर्ण क्रिया है। हमारे पास यह सम्पूर्णता इसलिए है, क्योंकि हम सर्वव्यापी वेद की सत्ता को जानते हैं। अपना देश देवताओं का देश है। यहॉं के घर-घर में, गांव-गांव में, मंदिरों में पूजा-अर्चना, वंदना-आराधना होती है। त्रिकाल संध्यावंदन, यज्ञ, अनुष्ठान, पर्व-अनुष्ठान नित्य होते हैं। इनके आयोजन से नित्य सत्तावान प्रकृति की जीवन-पोषक शक्ति का जागरण और संचरण होता है। जब इन दैविक-वैदिक अनुष्ठानों का सामूहिक आयोजन नियमित रूप से करते हैं तो प्रकृति के इसी जीवन-पोषक सत्व का प्रभाव नित्य और स्थायी बना रहता है।
भारत अपनी इसी वैदिक-विद्या से पूरे विश्र्व को ज्ञान देता आया है। भारत सम्पूर्ण ज्ञान का दीपक है, जो पूरे विश्र्व को उजाला देता है। अपने इस ज्ञान से सबका मार्ग-दर्शन करता है। भारत में जिन देवी-देवताओं की अवधारणा है, उसमें बड़ी वैज्ञानिकता है। ये सभी देवी-देवता मनुष्य के शरीर में ही विद्यमान हैं। आधुनिक शोधों से यह सिद्घ हो चुका है कि भारत के दशावतार मानव मस्तिष्क में हैं। भौतिक रूप में, भौतिक शरीर में है। व्यक्ति के भीतर इन देवी-देवताओं की चैतन्य शक्ति है, जो वैदिक विधानों से जागृत होती है। मनुष्य के शरीर में आँख, कान और जिठा देखने, सुनने और स्वाद लेने का काम करते हैं, लेकिन इसके पीछे मनुष्य की चेतना सिाय रहती है। चेतना के द्वारा मनुष्य शरीर के ये भौतिक गोलक देखने, सुनने और स्वाद लेने का काम करने लगते हैं अर्थात् व्यक्ति के भौतिक शरीर से उसकी चेतना की अभिव्यक्ति होती है।
जैसी चेतना होगी, वैसी ही अभिव्यक्ति होगी। चेतना, शरीर और व्यवहार तीनों का अपना क्षेत्र है। इनमें संतुलन, सामंजस्यता और पूर्णता आवश्यक है। चेतना में यह समत्व एवं समरसता का जागरण बना रहे तो व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रिर्यो में समग्रता, सम्पूर्णता, सर्वसमर्थता से भरी क्रिया-शक्ति का संचरण होता है और इस स्तर पर जो भी क्रिया, जो भी कार्य होते हैं, वे सकारात्मक होते हैं, सफल होते हैं, जो व्यक्ति व समाज के लिए सर्वकल्याणकारी होते हैं। इसी के लिए अपने यहां ध्यान, योग, आयुर्वेद, गंधर्ववेद आदि विभिन्न क्षेत्र या विभिन्न विधाएँ हैं, जिनको मिलाकर पूर्णता सुचारु रूप में चलती है। इसके लिए सबसे आवश्यक है- व्यक्ति की चेतना में सतोगुण की जागृति। भारत का तो सिद्घान्त ही है कि मूल का सिंचन करो। पूरा पेड़ हरा-भरा हो जाता है। बीज बोने के बाद जैसा उसका सिंचन होगा, वैसा उसका भौतिक रूप हो जाता है। जैसा किसी पेड़ का जीवन माली द्वारा सिंचन करने से हरा-भरा हो जाता है, वैसे ही दैविक विधानों से व्यक्ति का जीवन भी हरा-भरा हो जाता है।
– महर्षि महेश योगी
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