ऱाष्टभाषा का प्रश्र्न्न राष्ट-जीवन का प्रश्र्न्न है, उसके स्वाभिमान का, जीवन-शैली का, अभिव्यक्ति की तेजस्विता का और सबसे बढ़कर उसकी मुक्ति का। किसी भी देश की स्मृति, संस्कृति तथा राष्टीयता को भाषा ही संरक्षित करके रखती है। जिस तरह से स्मृति, संस्कृति तथा राष्टीयता के प्रश्र्न्न किसी जाति अथवा देश की अस्मिता से जुड़े होते हैं, उसी तरह भाषा का प्रश्र्न्न भी हमारी अस्मिता और हमारे अस्तित्व से जुड़ा है। हिन्दी भारत की भावात्मक एकता की भाषा है।
हिन्दी प्रेम की भाषा है। हिन्दी हृदय की भाषा है। यही उसकी शक्ति है। इसी शक्ति के बल पर वह राष्टभाषा के गौरवशाली पद पर आरूढ़ हुई है। हिन्दी का सार्वदेशिक महत्व का इतिहास काफी पुराना है। सैकड़ों वर्षों से परिव्राजक सन्तों, उत्तर से दक्षिण, दक्षिण से पूर्व, पूर्व से पश्र्चिम और पश्र्चिम से पूर्व जाने वाले तीर्थ-यात्रियों तथा अंतरप्रांतीय व्यापारियों ने सारे देश में हिन्दी को व्यावहारिक रूप से सम्पर्क भाषा बनाया और माना। कितने ही अहिन्दी-भाषी संतों ने, यहॉं तक कि 18वीं शती में केरल के शासक “महाराज स्वाति तिरुनाल’ ने भी, मध्ययुग में अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त हिन्दी में भी पदों, अभंगों आदि की रचना कर इसकी सार्वदेशिकता पर अपनी मोहर लगाई। हिन्दी की इसी सार्वदेशिकता के आधार पर “अमीर खुसरो’ और उनसे पूर्व तथा बाद के अनेक मुसलमान कवियों ने हिन्दी में रचनाएँ कीं और इसके संबंध में अपने सुविचारित मंतव्यों को व्यक्त किया। अतः सम्पर्क-भाषा होने के कारण प्राचीन समय से हिन्दी सभी प्रांतीय भाषाओं की बड़ी बहन है। उसके और छोटी बहनों के स्वरूप में ममत्व की स्थिति है। अनेक अहिन्दी-भाषियों ने हिन्दी के प्रति त्याग की प्रबल भावना का परिचय देते हुए निःस्पृह भाव से हिन्दी की स्तुत्य सेवा करके अपने उद्दाम हिन्दी-प्रेम को अभिव्यक्त किया है –
“”सुनो ये हिन्द के बच्चों
तुम्हारी है जुबॉं हिन्दी।
तुम्हारा हो यही नारा
हमारी है जुबॉं हिन्दी।”
(पं. गिरधर शर्मा “नवरत्न’)
प्रस्तुत आलेख में मैंने “हिन्दी का भविष्य’ को संक्षेप में रेखांकित करने का विनम्र प्रयास किया है। हिन्दी भारत की आत्मा की वाणी है। इसका उन्नयन लोकाश्रय में हुआ है। वह जनता के हृदय और मन की भाषा के रूप में युगों से राष्ट के भावों की अभिव्यक्ति करती चली आ रही है। तुलसी, जायसी, सूर, मीरा और कबीर जैसे संतों ने इसे जहां संवारा था, वहीं दूसरी ओर भारतेन्दु, दयानन्द सरस्वती, ईश्र्वरचंद विद्यासागर जैसे लोगों ने इसकी शक्ति का बोध राष्ट को कराया था। महात्मा गांधी और देश के आधुनिक लोकनायकों ने इसे राष्टीय एकता का साधन माना था। इसीलिए संविधान में हिन्दी की स्थिति राष्टभाषा के रूप में सर्वसम्मति से स्वीकृत की गई। इसके विराट स्वरूप के संदर्भ में कहा जा सकता है कि यह –
“”मीरा के मन की पीर बन
गूंजती घर-घर।
सूर के सागर-सा विस्तार है हिन्दी।।
जन-जन के मानस में,
बस गई गहरे तक।
तुलसी के “मानस’ का
विस्तार है हिन्दी।।”
भाषा, गंगा की धारा की भांति सतत प्रवाहमान् समाज और युग-चेतना की वाणी है। जिस समाज की भाषा में विकास रुक जाता है, वह समाज जड़ता की ओर उन्मुख होता है। देश के मनीषियों ने जबसे यह समझा कि निजभाषा की उन्नति ही सारी उन्नति का मूल है, तब से निरंतर राष्ट का सिद्घ-वर्ग राष्टभाषा के रूप और स्वरूप की कल्पना करने लगा था और साधक-वर्ग उसकी कल्पना को रूप देने लगा था। इस संदर्भ में कहा जा सकता है- हिन्दी में बॅंगला का वैभव है, गुजराती का संजीवन है, मराठी का चुहल है, कनाड़ी की मधुरता है और संस्कृत का अजस्र स्रोत है। प्राकृत ने इसका श्रृंगार किया है और उर्दू ने इसके हाथों में मेहंदी लगाई है। यह आर्यों के स्वर
में गाती है और अनार्यों की ताल में नाचती है। हिन्दी हमारी राष्ट-भाषा है।
हिन्दी की वर्तमान स्थिति
एक समय था, जब भारत विश्र्व-गुरु कहलाता था, सोने की चिड़िया कहलाता था। यहां दूध की नदियां बहती थीं। इसका कारण निःसंदेह उन्नत विज्ञान और तकनीक का ज्ञान होना ही था। किसी भी देश की उन्नति के लिए विज्ञान और तकनीक का उन्नत होना अति आवश्यक होता है- जिज्ञासावृत्ति, शोधपरक दृष्टि, अवधारणात्मक स्पष्टता और वैज्ञानिक तकनीकी कार्यों के प्रति रुचि। इन सभी का उत्स है-“भाषा’। भाषा ही वह सशक्त साधन है, जिसकी सहायता से मनुष्य अपने भावों और विचारों का आदान-प्रदान करता है। यह भाषा ही है, जो ज्ञान-विज्ञान के प्रति मन में उत्पन्न जिज्ञासा को अभिव्यक्त करने में सहायता करती है, शोधपरक दृष्टि प्रदान करके अवधारणाओं को स्पष्ट करती है और वैज्ञानिक तकनीकी कार्यों के प्रति रुचि जगाती है।
अब प्रश्र्न्न उत्पन्न होता है कि क्या प्रत्येक भाषा मनुष्य को ये सब सुविधाएँ उपलब्ध कराती है? उत्तर है-“नहीं, बिल्कुल नहीं।’ प्रत्येक भाषा किसी न किसी वर्ग-विशेष, जो उसका प्रयोग करने में सक्षम हो, के लिए ही सार्थक, सहायक तथा प्रभावोत्पादक हो सकती है, सबके लिए नहीं। इसलिए विकास के मूलाधार, विज्ञान, और तकनीक को उन्नत बनाने के लिए जिस भाषा का सहारा लिया जाए, वह ऐसी हो, जो भाषा-प्रयोग करने वाले और समझने वाले दोनों के लिए आसान हो, दोनों को एक-दूसरे से जोड़े और दोनों में संवाद स्थापित करे। इस दायित्व का निर्वहन हिन्दी सहजतापूर्वक कर सकती है। वह भारत की आत्मा की वाणी है। वह जनता के हृदय और मन की भाषा के रूप में युगों से राष्ट के भावों की अभिव्यक्ति करती चली आ रहा है।
हिन्दी एक समृद्घ भाषा है। उसकी एक वैज्ञानिक लिपि है। इसमें शब्द-रचना की प्रिाया वैज्ञानिक है और उसके पास अपार शब्द-सम्पदा है, उदाहरणार्थ-“पढ़ना’ और “पढ़ाना’। ये दो शब्द ले लीजिए, दोनों शब्दों में एक संबंध है। दोनों एक ही धातु “पठ्’ के रूप में हैं। अंग्रेजी में “पढ़ना’ के लिए है-“रीड’ और “पढ़ाने’ के लिए कोई “रीड’ से जुड़ा शब्द नहीं है, बल्कि है-“टीच’। दोनों में कोई संबंध नहीं, दोनों अलग-अलग शब्द हैं, साथ ही “पढ़वाने’ के लिए तो अंग्रेजी में शब्द ही नहीं है और एक शब्द की जगह तीन शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है, जैसे हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के वैज्ञानिक स्वरूप के बारे में ऐसे बहुत से उदाहरण दिये जा सकते हैं। हिन्दी जैसी वैज्ञानिक भाषा में विज्ञान का स्वरूप भी वैज्ञानिक होगा और इसलिए सरलता से ग्राह्य भी होगा।
तर्क यह दिया जाता है कि अंग्रेजी के बिना हम पिछड़ जाएँगे, वह तर्क भी झूठा और अवैज्ञानिक है। वैज्ञानिक प्रतिभा का संबंध भाषा से नहीं, बुद्घि से होता है। विज्ञान-ग्रहण करने का सबसे सरल और स्वाभाविक माध्यम है-अपनी मातृभाषा। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है, और इसलिए अंग्रेजी ही विज्ञान का एकमात्र माध्यम है, ऐसा मानना एक अवैज्ञानिक सोच है। दुनिया उसी का सम्मान करती है, जो स्वयं अपना सम्मान करता है। हम स्वयं जब अपनी भाषाओं का सम्मान नहीं करते, तो कोई और क्यों हमारी भाषाओं की चिंता करेगा? चीन के किसी विज्ञान-मेले में चले जाएँ, अंग्रेजी में एक भी मंडप या प्रदर्शनी नहीं दिखाई देगी। विदेशी व्यापारी भी अपनी प्रदर्शनी चीनी भाषा में लगाए हुए होंगे। चीन में कोई ऐसा नहीं कहता कि विज्ञान के लिए अंग्रेजी एकमात्र भाषा है। क्या लाभ मिला हमें अंग्रेजी के माध्यम से विज्ञान पढ़ने का? जापान में जापानी भाषा चलती है, अंग्रेजी नहीं, क्यों नहीं जापान पिछड़ गया? छोटे-से देश इााइल को ही ले लीजिए। इााइल ने सदियों से किताबों में बंद “इवरित’ (अंग्रेजी में “हिब्रू’) भाषा को अपनाया, क्यों नहीं इााइल पिछड़ गया। आज भारत जैसा बड़ा देश कृषि और सेना के लिए उससे मदद की अपेक्षा कर रहा है। जो देश अपनी भाषा का प्रयोग करते हैं, उनमें से कोई भी पीछे नहीं है, बल्कि अच्छी प्रगति कर रहे हैं और हम अंग्रेजी पढ़कर भी पिछड़ते जा रहे हैं।
हिन्दी के पास ऐसा वृहद् शब्द-कोश है, जो विश्र्व की अमूल्य धरोहर है। जनतंत्र में जन-मानस की भाषा का असंदिग्ध महत्व है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता के लिए हिन्दी में विज्ञान-चिंतन आवश्यक है। इसी से “प्रतिभा पलायन’ नाम की उस बीमारी का भी इलाज होगा, जिसके तहत हमारी कुशल जन-शक्ति के सिरमौर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थाओं के छात्र टकटकी लगाए अमेरिका की ओर देखते रहते हैं और पहला मौका पाते ही फुर्र से उड़ जाते हैं। अपनी भाषा का कोई विकल्प नहीं हो सकता। हिन्दी के विज्ञान – लेखन में सबसे बड़ी बाधा “भाषिक-स्वाभिमान’ की कमी है।
स्वतंत्र राष्ट की आवश्यक पहचान
किसी भी स्वतंत्र राष्ट के लिए तीन वस्तुएँ विशेष सम्माननीय होती हैं –
- राष्टध्वज, जिसमें देश का मान छिपा होता है।
- राष्टीय संविधान, जो देश की शान का प्रतीक होता है।
- राष्टभाषा, जो राष्ट की आन और वाणी का अभिमान होती है।
भारत में राष्टध्वज और राष्टीय संविधान को तो यथोचित्त सम्मान प्राप्त है। उनका अपमान करने वाले के लिए समुचित दंड का भी प्रावधान है, लेकिन राष्टभाषा हिन्दी के संबंध में ऐसा नहीं कहा जा सकता। राष्टभाषा हिन्दी आजादी की अर्धशताब्दी के बाद भी देश में उपेक्षा और तिरस्कार करती तो शायद वह किसी हद तक क्षम्य होता, लेकिन खेद का विषय है कि राष्टभाषा हिन्दी हमारे शासकों-प्रशासकों, राजनेताओं और नौकरशाहों की उपेक्षा और तिरस्कार का दुःख झेल रही है। इसका एक ही कारण है और वह है- अंग्रेजी-सभ्यता में आकंठ डूबे गुलाम। ये लोग व्यक्तिगत हित पर राष्टहित का बलिदान करते हुए, अंग्रेजी को आगे बढ़ाने और राष्टभाषा हिन्दी को पीछे ढकेलने का काम कर रहे हैं। अपने प्रभावशाली पदों के कारण भले ही ये आज अपने राष्ट-विरोधी षड्यंत्र में सफल हो गये हों, लेकिन भविष्य में कलंकित और पराजित होंगे। अर्धशताब्दी बीत जाने के बाद भी राष्ट को राष्टभाषा विहीन रखना, एक ऐसा राष्टीय अपराध है, जिसे कभी क्षमा नहीं किया जा सकता।
भाषा अपनी सभ्यता और संस्कृति की प्रबल वाहिका होती है। राष्टभाषा हिन्दी में यह गुण है कि वह सम्पूर्ण देश को एक सूत्र में पिरोकर उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ा सकती है। राष्टभाषा हिन्दी की महानता का यशोगान करते हुए कहा जा सकता है-
भारत मां के शीश पर ही हिन्दी का ताज तभी वास्तविक अर्थ में होगा सफल स्वराज।
हिन्दी का भविष्य
हिन्दी का भविष्य स्पष्टतया दृष्टिगोचर होने लगा है। आगामी मानव की कल्पना अतिविराट भाव-भूमि पर केंद्रित है। वह पश्र्चिमी यांत्रिकता के विरुद्घ एक नयी भारतीय जीवन-पद्घति का पोषक बनता चला जा रहा है। फलस्वरूप, हिन्दी में सुन्दर विविधता के दर्शन होने लगे हैं और अभिव्यक्ति में नव-आकर्षण। हॉं, इस दिशा में यह शोचनीय अवश्य है कि आज का साहित्यकार आधुनिक नगरों में रचना कर रहा है और उसमें होने वाले एकांगी परिवर्तन उसके साहित्य में व्यापक स्थान पा रहे हैं, क्योंकि वह वही जीवन देख रहा है, जो वह लिख रहा है। पर भारत माता तो मूलतः ग्रामवासिनी है। अतः ऐसी स्थिति में हिन्दी भाषा यदि सिकुड़ती है, तो देश छोटा हो जाएगा और भाषा के भविष्य पर प्रश्र्न्न-चिह्न लग जाएगा, जिस प्रकार आज समाज, देश में केंद्रीयकरण का विरोधी है, उसी प्रकार मेरा विरोध साहित्यकारों के कुछ नगरों में केंद्रीयकरण से है। अतः मैं हिन्दी के साहित्यकारों से निवेदन करना चाहता हूं -“”विषमता की पीड़ा से त्रस्त समाज को नवजीवन दें और नयी चेतना, नये युगजयी भावबोध का अमृत जो हमारी धरती के धर्म के रूप में काल के मंथन से, साहित्यकारों के मानस से प्रकटे, उसे लोक के लिए नीलकंठ प्रस्तुत करें, क्योंकि साहित्य अंतोगत्वा लोक-मानस की संपदा है।”
अतः मैं विश्र्वास के साथ कह सकता हूं कि हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल और श्रेयस्कर है। मंगल मंडित नयी दिशा की ओर वह प्रस्थान कर रही है और निश्र्चय ही वह दिशा जीवन को जय की आराधना की ओर ले जाने वाली है। हिन्दी दिवस के इस पावन पर्व पर हम सब हिन्दी-भाषी मिलकर एक ऐसी उभय रेखा का निर्माण करें, जिस पर खड़े होकर उद्घोषणा कर सकें –
“”मैं भारतीय हूं, भारत मेरा प्राण है और मैं भारत के लिए जीता हूं।”
– डॉ. व्यास नारायण दुबे
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