हिन्दी खड़ी बा़जार में

हिन्दी का पखवाड़ा आ गया है। हिन्दी के श्राद्घ के दिन आ गये हैं। यजमानों ने खीर, पूड़ी बनाना शुरू कर दिया है। शीघ्र ही सेमिनार, गोष्ठियों, वर्कशापों का दौर शुरू हो जाएगा और हिन्दी के पंडितों को जिमाने का सिलसिला शुरू हो जायेगा। यजमान पंडितों के साथ-साथ छुटभैयों, कौवों, गायों और श्र्वानों को भी श्राद्घ ग्रास देंगे। पंडित भी खुश, यजमान भी खुश। हिन्दी का तर्पण-अर्पण होगा और सभी को यथा योग्य सामग्री के साथ पूजा-अर्चना का लाभ मिलेगा।

आज हिन्दी को सरकारी श्राद्घ की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हिन्दी अब बाजार में स्वाभिमान के साथ खड़ी है। विश्र्व व्यापार में हिन्दी का महत्व अमेरिका तक ने समझ लिया है। वह अपने उत्पाद बेचने के लिए हिन्दी का सहारा ले रहा है। अंग्रेजी ने हिन्दी के शब्दों को अपना लिया है। हिन्दी के सहारे विज्ञापन चल रहे हैं, टी.वी. धारावाहिक चल रहे हैं और चल रही है, हिन्दी की यात्रा। हिन्दी के यजमान जानते हैं कि वोट हिन्दी में मिलेंगे, सत्ता तक की यात्रा हिन्दी से ही संभव होगी। हैप्पी बर्थ डे टू हिन्दी…। हिन्दी जिंदाबाद! क्योंकि चुनाव आ गये हैं। हिन्दी की खाओ अंग्रेजी की बजाओ। हिन्दी वास्तव में गरीबों की भाषा है, भाषाओं में बी.पी.एल. है हिन्दी। हिन्दी लिखने वाले गरीब, हिन्दी बोलने वाले गरीब, हिन्दी का पत्रकार गरीब, हिन्दी का कलमकार गरीब। वास्तव में जो हिन्दी को कुछ दे सके वही हिन्दी के साथ चल सकता है। हिन्दी से कुछ पाने की इच्छा रखने वाले को हिन्दी का लाल सलाम!

हिन्दी के दो कवि प्रधानमंत्री हो गये। मगर उनकी स्थिति अजीब ही रही। हुकुम दूसरों का, हस्ताक्षर उनके ताकि उनकी हुकूमत चलती रहे। अजीब दास्तान है हिन्दी वालों की। रामधारी सिंह दिनकर मंत्री नहीं बन सके। बालकवि बैरागी केन्द्र में जाकर खो गये। बाजार में खड़ी हिन्दी किसी की मोहताज नहीं है। वो समग्रता के साथ जी रही है। अच्छी हिन्दी के लिए पाठक तरस रहे हैं। अच्छी रचना का सम्पादक-प्रकाशक इंतजार कर रहे हैं, मगर हिन्दी के यजमानों को कोई चिंता नहीं है। पुस्तक मेले लग रहे हैं, मगर हिन्दी को सम्मान नहीं है। हर साहित्यकार सम्मान समारोह में अपमान का बोध होता है। मंत्री वादा करके नहीं आते और आते हैं तो जल्दी चले जाते हैं। हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है, यह एक वेद वाक्य है, मगर हिन्दी वालों का भविष्य कैसा है, यह एक यक्ष प्रश्र्न्न है। जब-जब भी हिन्दी लेखक की रायल्टी या आय की चर्चा होती है, सब चुप्पी साध जाते हैं या अंग्रेजी लेखकों के नाम गिनाने लग जाते हैं, क्यों भाई क्यों? खुशवन्त सिंह हिन्दी को गरियाते हैं, सब सुन लेते हैं। आज हिन्दी कथाओं, व्यथाओं, और सपनों में उलझ रही है। व्यथा की कथा सब कह रहे हैं। नेहरू के समय में पुरुषोत्तम दास टण्डन और सेठ गोविंद दास हिन्दी के लिए जिये। आज हिन्दी सम्मेलन हो रहे हैं, और भाई-भतीजावाद पनप रहा है। विश्र्व हिन्दी सम्मेलन में कौन जायेगा या कौन चला गया इसी पर कोहराम मचता है। फिर भी हिन्दी की अपनी आन-बान है। शानों-शौकत है। मगर अफसोस! सब हिन्दी को बेचने में लगे हुए हैं। हिन्दी को बेचने का जश्र्न्न मनाया जा रहा है। हिन्दी बिके तो अपनी रोटी सिंके। हिन्दी के बाजार में ठाठ ही ठाठ है। सब कुछ मुक्त अर्थव्यवस्था के आधार पर है। शुद्घतावादी हिन्दी में हो रहे घालमेल पर चिंतित हैं। नैतिकतावादी प्रेमचंद के बाद किसी को लेखक नहीं मानते। पंचमेली हिन्दी का प्रकोप हो रहा है। इलेक्टॉनिक मीडिया हिन्दी को गलत ढंग से पेश कर रहा है और दर्शक लाचार है। उपभोक्तावाद, बाजारवाद, सूचना ाांति और कम्प्यूटरों पर विश्र्वास नहीं हो रहा है। यह कैसी ाांति हो रही है जो शांति भंग कर भ्रांति पैदा कर रही है। एक वितृष्णा-सी हो रही है। समाज हिन्दी का मगर सरकार अंग्रेजी में चलती है। सचिव गर्व से कहते हैं, “गवर्नमेंट वर्क्स इन इंग्लिश!’ विदेशी फिल्मों के बीच में हिन्दी विज्ञापन क्यों भाई क्यों? विज्ञापन भी अंग्रेजी में दिखाओ, लेकिन फिर उत्पाद बिकेगा नहीं। हिन्दी का कोई दोष नहीं है, राजनीति के मकड़जाल में हिन्दी फंस गयी है। सत्ता के मायाजाल में हिन्दी की बिन्दी छोटी हो रही है। लेकिन हिन्दी में एक नई क्षमता का विकास हो रहा है, वो तेजी से मिश्रित होकर नये समाज की रचना में अपना योगदान दे रही है।

भारतेन्दु काल से आज तक हिन्दी का विकास होता रहा है और होता रहेगा। हिन्दी, अंग्रेजी में बोलकर अपनी बात समझा रही है। हिन्दी की बात सुनी जा रही है। यूएनओ में हिन्दी बोली जा रही है। ऐसी स्थिति में हिन्दी को अंग्रेजी की दासी कहने की परम्परा बंद हो जानी चाहिए। फिर भी हिन्दी के लिए कबीरदास का यह दोहा तनिक परिवर्तन के साथ मौजूं रहेगा –

– हिन्दी खड़ी बाजार में लिए कलम हाथ।

जो घर फूंके आपनो चले हमारे साथ।।

 

– यशवन्त कोठारी

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