चिंतन खिड़की पर हाथ धरे चुपचाप व गुमसुम-सा बैठा है। किचन से मम्मी के काम करने की आवाजें आ रही हैं। सामने स्कूल-बैग पड़ा है। उसने उदास होकर बाहर की ओर देखा। पड़ोस के छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे हैं। कितनी बेफिाी है, उनके चेहरों पर। चिंतन सोच में पड़ जाता है कि ये बच्चे “होमवर्क’ कब करते हैं? शायद इनकी मम्मियों को इस बात की चिंता नहीं है कि इनका एडमिशन किसी बड़े स्कूल में हो जाए।
“”चिंतन होमवर्क हो गया?” मम्मी की आवाज चिंतन के माथे पर चाबुक की भांति पड़ती है। वह चुपचाप कॉपी उठाकर लिखने लगता है। उसका दिलो-दिमाग मैदान में खेलने वाले बच्चों पर केंद्रित है। काश! कोई जादुगार आये और उसका होमवर्क कर जाये। वह खूब खेले, पतंगें लूटे, तितलियॉं पकड़े।
– केरा सिंह
अपनी-अपनी पीड़ा
एक स्त्री, “”हे ईश्र्वर, इस बार पुत्र अवश्य देना…।”
दूसरी स्त्री, “”हे ईश्र्वर, भले ही बेटी दे देना, परन्तु बेऔलाद मत रखना…।”
तीसरी स्त्री, “”हे ईश्र्वर, औलाद देता तो नेक देता, ऐसी औलाद देने से तो अच्छा था कि बांझ ही…।”
– गुरनाम सिंह
अपना घर
उसने घड़ी पर नजर डाली। रात के दस बज चुके थे। वह स्टैंड पर खड़ा किसी वाहन का इंतजार कर रहा था। आखिरी बस छूट चुकी थी और अब उसे टक आदि ही मिल सकता था। उसने अपने घर पर सूचना दे दी थी कि वह देर से आयेगा। तभी दूर से रोशनी दिखाई दी। वाकई एक टक था। उसने हाथ दिखाया। टक रुक गया। टक में नजर दौड़ाई, पिछली सीट पर एक-दो खाली टूटे पीपे, जग, मैला-सा गिलास पड़ा था। एक कोने में शेरों वाली माता की फोटो मैल से अटी पड़ी थी व उस पर टंगी माला के फूलों का रंग भी बदल गया था।
“”कहॉं जाओगे भाई?” उसने डाइवर से पूछा।
“”अभी बाबूजी 400 कि.मी. का सफर है, दिन चढ़े पहुँचेंगे।” डाइवर ने बताया।
“”तुम्हारी अभी पढ़ने-खेलने-खाने की उम्र है। और तुम टक चलाते हो? क्या मॉं-बाप ने नहीं सोचा इस बारे में?
डाइवर ने कातर निगाहों से देखा और बोला, “”बाबू जी, मॉं-बाप तो पॉंच साल का था, गुजर गए। अब तो मैं ही मॉं-बाप हूँ दो छोटे भाई-बहनों का, जहॉं भी होता हूँ मनीआर्डर भेज देता हूँ।”
“”घर कहॉं है, तुम्हारा?”
“”ये टक ही तो घर है मेरा।” उसके मुंह से बेसाख्ता निकला।
मैंने नजरें झुका लीं।
– प्रद्युम्न भल्ला
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