तीन साल से ज्यादा समय तक अनेकों झंझावातों से जूझती भारत-अमेरिकी न्यूक डील आख़िरकार अपने आ़खरी मुकाम तक पहुँचने में कामयाब हो ही गई। आ़खिरी पड़ाव पर उसे सिर्फ अमेरिकी सीनेट की मंजूरी चाहिये थी और वह 13 के मुकाबले 86 के बहुमत से उसे हासिल हो गई। अब इसकी मंजूरी में एक औपचारिकता मात्र शेष रह गई है। वह भी अगले सप्ताह अमेरिकी विदेशमंत्री कोंडालिजा राइस की प्रस्तावित भारतीय दौरे के बीच पूरी कर ली जाएगी। इस दौरान दोनों ही पक्ष समझौता 123 के मसविदे पर हस्ताक्षर कर इसे अंतिम रूप से प्रभावी बना देंगे। हैरत इस बात पर होती है कि यह वही डील है जो अभी कुछ दिनों पहले तक वामपंथी दलों के विरोध के चलते लगभग निरस्त हो गई समझी जा रही थी। डील पर एक भी ़कदम आगे बढ़ाने पर सरकार गिरा देने की धमकी देते वामपंथी अपना लाल झंडा लिए इस डील के रास्ते पर खड़े थे। आरोप यह भी लगाया गया कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ कोई डील नहीं की है, अपितु भारत और भारतीय हितों का सौदा किया है। लेकिन मनमोहन ने अपने आगे बढ़ते कदमों को वापस नहीं खींचा। वामपंथियों ने इस डील को न होने देने के प्रयास में ब्रह्मास्त्र चलाते हुए समर्थन भी वापस ले लिया। लेकिन वामपंथी बैसाखी के हटने के बाद भी सरकार बच गई। डील के भविष्य का दरवाजा भी खुल गया और अन्ततः सभी विघ्न-बाधाओं को पार कर यह भारत और अमेरिका के बीच संबंधों का एक नया सेतु बनाने में कामयाब हुई।
घरेलू स्तर पर वामदलों से कमतर विरोध विपक्ष की भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने भी नहीं किया। यह हैरत में डालने वाली बात थी कि अपने इस विरोध के चलते भाजपा ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उन वामपंथियों से भी हाथ मिलाने में संकोच नहीं किया, जिनके विरोध के कोण पर न्यूक डील नहीं अपितु अमेरिका था। भाजपा से ऐसी आशा इस वजह से भी नहीं की जा रही थी कि भारत-अमेरिकी संबंधों में प्रगाढ़ता स्वयं उसके शासनकाल में विकसित हुई थी। जहां तक न्यूक डील का सवाल है, इसकी भी चाहत भरी कोशिश उसने अपने इसी शासनकाल में की थी। इस डील को पाने के लिए उसने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने का प्रस्ताव भी अमेरिका को दिया था। लेकिन किन्ही कारणों से यह समझौता राजग के शासनकाल में नहीं हो सका। उसने इस डील का विरोध इस तर्क के साथ करना शुरू किया कि समझौता 123 भारत से उसका परमाणु विस्फोट करने का अधिकार छीनता है। उसका यह तर्क उसकी पूर्व में की गई ़खुद की उस घोषणा के कितना विपरीत है, यह आसानी से समझा जा सकता है, जो उसने 1998 के पोखरण-विस्फोट के बाद की थी। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की थी कि भविष्य में परमाणु-विस्फोट न करने की प्रतिबद्घता भारत अपनी ओर से विश्र्व समुदाय के समक्ष एक तरफा तौर पर प्रस्तुत करता है। लेकिन जब संप्रग सरकार ने ऊर्जा ़जरूरतों के चलते अमेरिका के साथ असैन्य-परमाणु समझौता किया तो उसे यह पीड़ा होने लगी कि भारत भविष्य में परमाणु-परीक्षण नहीं कर सकेगा। भाजपा के विरोध और वामपंथी दलों के तत्संबंधी विरोध का फर्क बस इतना है कि भाजपा का विरोध इस डील को रोकने के लिए सरकार गिरा देने की स्थिति में नहीं था, जबकि संप्रग सरकार वामपंथी दलों के रहमो-करम की मुहताज थी। लेकिन संप्रग और मनमोहन की दिलेरी ने उन्हें परे हटा कर अन्ततः अपना लक्ष्य हासिल कर ही लिया।
डील को हासिल करने में अगर मनमोहन सिंह के रास्ते में कदम-कदम पर बाधायें थीं तो बुश का भी रास्ता बहुत निरापद नहीं था। बुश को न सिर्फ इस डील को उस अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी दिलानी थी जिसमें उनकी ़खुद की पार्टी बहुमत खो चुकी थी और कब्जा विपक्षी दल का था। इसके अलावा इस डील को अन्तर्राष्टीय स्तर पर आईएईए की भी मंजूरी चाहिए थी और एनएसजी की भी। एनएसजी से मंजूरी हासिल करना आसमान से तारे तोड़ लाने जैसा था, लेकिन इस असंभव को भी संभव कर दिखाने का काम बुश ने किया। बुश की दिक्कतों का आकलन इस लिहाज से भी किया जाना चाहिए कि राष्टीय-अन्तर्राष्टीय स्तर पर उन्हें एक “अपवाद’ को सच्चाई की शक्ल में उतारना था। उन्होंने उसे सच करके दिखा भी दिया। यह पहली बार हुआ है कि अन्तर्राष्टीय स्तर पर परमाणु व्यापार करने वाले देशों ने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न करने के बावजूद भारत को इस व्यापार में शामिल किया है। ऊर्जा क्षेत्र में असैन्य परमाणु करार करने की दिशा में अब भारत के सामने न कोई प्रतिबंध रह गया है और न रुकावट। अपनी ़जरूरतों के अनुसार अब वह अपनी शर्तों पर किसी भी देश के साथ करार कर सकता है। यह बंद दरवाजा भारत के लिये खोलने का काम अमेरिकी राष्टपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने किया है। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो जिस अमेरिका ने भारत से परमाणु व्यापार का बड़ा हिस्सा हासिल करने के लिए इतने पापड़ बेले, उसकी जगह तत्संबंधी पहला समझौता भारत ाांस से नहीं कर पाता। अभी भी भारत से परमाणु व्यापार करने की चाहत लिए दुनिया के कई देश कतार में खड़े हैं। इस उपलब्धि को राजनीति के तरा़जू पर नहीं तौला जा सकता। समझौता 123 वजूद में आ जाने के बाद भारत की अहमियत दुनिया की निगाहों में बढ़ गई है।
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