एक युद्ध में विजय प्राप्त करने के उपरांत महाराज के मन में आया कि एक विजय स्तंभ की स्थापना कराई जाए। फौरन एक शिल्पी को यह कार्य सौंपा गया। जब विजय स्तंभ बनकर पूरा हुआ तो उसकी शोभा देखते ही बनती थी। शिल्पकला की वह अनूठी ही मिसाल थी।
महाराज ने शिल्पी को दरबार में बुलाकर पारिश्रमिक देकर कहा, “”इसके अतिरिक्त तुम्हारी कला से प्रसन्न होकर हम तुम्हें और भी कुछ देना चाहते हैं। जो चाहो, सो मांग लो।
अन्नदाता। सिर झुकाकर, शिल्पी बोला, आपने मेरी कला की इतनी अधिक प्रशंसा की है कि अब मॉंगने को कुछ भी शेष नहीं बचा। बस, आपकी कृपा बनी रहे, मेरी यही अभिलाषा है।
“”नहीं-नहीं, कुछ तो मॉंगना ही होगा। महाराज ने हठ पकड़ ली।
दरबारी शिल्पी को समझाकर बोले, अरे भई! जब महाराज अपनी खुशी से तुम्हें पुरस्कार देना चाहते हैं, तो इन्कार क्यों करते हो। जो जी चाहे मॉंग लो, ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते।
शिल्पकार बड़ा ही स्वाभिमानी था। पारिश्रमिक के अतिरिक्त और कुछ भी लेना नहीं चाहता था। यह उसके स्वभाव के विपरीत था, किन्तु सम्राट भी जिद पर अड़े थे।
जब शिल्पकार ने देखा कि महाराज मान ही नहीं रहे हैं तो उसने अपने औजारों का थैला खाली करके, महाराज की ओर बढ़ा दिया और बोला, महाराज! यदि कुछ देना ही चाहते हैं, तो मेरा यह थैला संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु से भर दें।
महाराज सोचने लगे,क्या दें इसे? कौन-सी चीज़ दुनिया में सबसे अनमोल है?
अचानक उन्होंने पूछा, क्या तुम्हारे थैले को हीरे-जवाहरातों से भर दिया जाए?
हीरे-जवाहरातों से बहुमूल्य भी कोई वस्तु हो सकती है महाराज। महाराज ने दरबारियों की ओर देखा, दरबारी स्वयं उलझन में थे कि हीरे-जवाहरात से भी कीमती क्या वस्तु हो सकती है।
अचानक महाराज को तेनालीराम की याद आई, जो आज दरबार में उपस्थित नहीं था। उन्होंने तुरंत एक सेवक को तेनालीराम को बुलाने भेजा। कुछ देर बाद ही तेनालीराम दरबार में हाजिर था। रास्ते में उसने सेवक से सारी बात मालूम कर ली थी कि क्या समस्या है और महाराज ने क्यों बुलाया है। तेनालीराम के आते ही महाराज ने उसे पूरी बात बताकर पूछा, अब तुम्हीं बताओ, संसार में सबसे मूल्यवान वस्तु कौन-सी है, जो इस कलाकार को दी जाए?
वह वस्तु भी मिल जायेगी महाराज! मैं अभी इसका झोला भरता हूँ। यह कह कर तेनालीराम ने शिल्पी के हाथ से झोला लेकर उसका मुँह खोला और तीन-चार बार तेजी से ऊपर-नीचे किया। फिर उसका मुँह बॉंधकर शिल्पकार को देकर बोला, लो, मैंने इसमें संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु भर दी है।
शिल्पकार प्रसन्न हो गया। उसने झोला उठाकर महाराज को प्रणाम किया और दरबार से चला गया। महाराज सहित सभी दरबारी हक्के-बक्के-से थे कि तेनालीराम ने उसे ऐसी क्या चीज़ दी है, जो वह इस कदर खुश होकर गया है।
उसके जाते ही महाराज ने तेनालीराम से पूछा, तुमने झोले में तो कोई वस्तु भरी ही नहीं थी, फिर शिल्पकार चला कैसे गया?
महाराज! आपने देखा नहीं, मैंने उसके झोले में हवा भरी थी। हवा संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु है। उसके बिना संसार में कुछ भी संभव नहीं। उसके बिना प्राणी जीवित नहीं रह सकता। न आग जले, न पानी बहे। किसी कलाकार के लिए तो हवा का महत्व और भी अधिक है। कलाकार की कला को हवा न दी जाए तो कला और कलाकार दोनों ही दम तोड़ दें।
महाराज ने तेनालीराम की पीठ थपथपाई और अपने गले की बहुमूल्य माला उतार कर तेनालीराम के गले में डाल दी।
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