हिन्दी सिनेमा में जिन बाल कलाकारों ने काम कर फिल्मों को जीवंत बनाया है, उन पर बहुत कम लिखा गया है। अधिकांश बाल कलाकार बचपन में फिल्माकाश में खूब जगमगाए, मगर जैसे ही वयस्क हुए उनका सूरज भरी दोपहरी में अस्त हो गया। डैजी और हनी ईरानी/ बेबी नंदा/ मास्टर रतन/बेबी नाज/ उर्मिला मातोंडकर/जुगल हंसराज/ मास्टर सचिन/बेबी सारिका में से दर्शकों को नंदा, सारिका तथा उर्मिला ही याद है। हॉं, सारिका ने अपनी दूसरी पारी में फिल्म परजानिया में नेशनल-अवार्ड जीता है।
यहॉं हम उन दो बहनों की चर्चा कर रहे हैं, जिनमें से एक का नाम है डैजी और दूसरी हनी ईरानी। हनी को अधिकांश पाठक गीतकार जावेद अख्तर की पहली पत्नी के रूप में जानते हैं। शबाना आजमी के घर में प्रवेश करने के बाद हनी ने जावेद का घर छोड़ दिया था। इन दिनों वह फिल्मों की पटकथाएं लिखती हैं और फिल्म का डायरेक्शन करती हैं। अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म “अरमान’ इसकी मिसाल है।
डैजी ने अपना फिल्मी कॅरियर पचास के दशक में महज साढ़े तीन साल की उम्र में शुरू किया था। उसका बचपन स्टूडियो में फिल्मों की शूटिंग करते बीता। स्कूल क्या होता है और वहॉं बच्चों को माता-पिता क्यों भेजते हैं, उसे उम्र के तीसरे-चौथे दशक में मालूम हुआ। वह गुड़ियों से कभी नहीं खेली। बच्चों के खेल-खिलौने क्या होते हैं, यह जाने बगैर ही उसका बचपन बीत गया।
फिल्म एक ही रास्ता/बंदिश/भाई-भाई/नया दौर/मुसाफिर/देवता/कैदी नं. 911 में से अधिकांश फिल्में उसने नहीं देखीं । पिछले दिनों नया दौर जब रंगीन संस्करण में रिलीज हुई तो उसमें अपनी श्र्वेत-श्याम छवि को रंगीन देखकर वह बेहद खुश हुई।
डैजी ने अपने दौर के तमाम बड़े सितारों के साथ काम किया है। मीना कुमारी-मधुबाला उसकी फेवरिट हीरोइनें थीं। वे बताती है – मीना कुमारी अपने पर्स में हमेशा चिल्लर रखती थीं। मेकअप रूम से उसके पर्स से चिल्लर निकालकर गोली-बिस्किट-चाकलेट खाना उसकी हॉबी हो गई थी। एक बार ऐसे ही चिल्लर से सर्कल-सर्कल खेल रही थी कि मॉं ने पकड़ लिया। पूछा-चिल्लर कहॉं से आई तो मीनाजी का नाम बता दिया। मॉं ने मीना कुमारी से पड़ताल की तो पहले उन्होंने मना कर दिया किंतु बाद में स्थिति की संगीनता को समझ कर मॉं के गुस्से तथा मार से बचा लिया।
ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म मुसाफिर में डैजी को लंगड़ी लड़की का रोल करना था। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। दिलीप कुमार ने टिप्स दिए तो रोल बढ़िया बन गया। इसी तरह राजकपूर ने फिल्म “जागते रहो’ में मदद की। उस समय के सितारे पेशंस रखते थे और टीचर की तरह सिखाते थे। दादा मुनी (अशोक कुमार) से वह उनकी मृत्यु से कुछ समय पहले मिली थी, जिसकी यादों के पल आज भी डैजी के दिमाग में दर्ज हैं।
हम पॉंच एक दल के फिल्म में बेबी नाज/मास्टर रोमी तथा तबस्सुम सब उम्र में डैजी से बड़े थे। वह सिर्फ साढ़े चार साल की थी। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। चाचा नेहरू (प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू) ने सबकी हौसला अफजाई की। जब चाचा नेहरू को पता चला कि वह आज तक स्कूल नहीं गई है, तो बहुत दुःखी हुए। उन्होंने मॉं को समझाया। इतना ही नहीं महाराष्ट्र के शिक्षा विभाग को पत्र लिख कर एडमिशन की व्यवस्था के निर्देशन भी दिए।
बांद्रा के छोटे स्कूल रोज मैनर्स में उसे प्रवेश मिला। इस समय तक डैजी दस साल की हो गई थी। सीधे चौथी कक्षा में प्रवेश का नतीजा यह हुआ कि वह लगातार तीन साल तक उसी कक्षा में रही। सहेलियों के तानों और माहौल अच्छा नहीं होने से डैजी ने स्कूल छोड़ दिया और शेष पढ़ाई घर पर की। औपचारिक शिक्षा से ज्यादा उसने जिंदगी की पाठशाला से बहुत कुछ सीखा है।
डैजी बताती है कि आज भी डिस्कवरी चैनल से वह बहुत कुछ सीखती है। एकता कपूर के धारावाहिक “कहानी घर-घर की’ में काम करने में उसे बड़ा आनंद आया। कॉमेडी पल्लू में कुछ ऐसी बंध गई है कि पीछा नहीं छोड़ती है। कभी-कभार चरित्र भूमिकाएं भी निभा देती हैं। इसके अलावा समाज सेवा के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। रिमांड होम और जेल में बंद बच्चों से मिलकर उन्हें बेहतर जीवन जीने के मूल्य समझाना अच्छा लगता है। कई बच्चे सुधर कर आज अच्छे नागरिक बन गए हैं। स्ट्रीट चिल्ड्रन के लिए भी डैजी काम करती है।
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