देश में लिंग अनुपात को संतुलित बनाने के तमाम प्रयासों और दावों को धत्ता बताते हुए, इंटरनेट पर विदेशी एजेंसियों के लिंग निर्धारण संबंधी सेवाएं और सामग्री उपलब्ध कराने वाले विज्ञापन अपनी सफलता की कहानी खुद कह रहे हैं। सूचना और प्रौद्योगिकी के इस दौर में इंटरनेट ने जहां पूरी दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है, वहीं इसके चौंकाने वाले खतरे भी कम नहीं हैं। इंटरनेट पर “चूज द सेक्स ऑफ योर बेबी डॉटकॉम’, “4 जेंडर सलेक्शन डॉटकॉम’ और “प्रेग्नेंसी स्टोर डॉटकॉम’ जैसी वेबसाइटों पर गर्भस्थ शिशु के लिंग परीक्षण संबंधी सेवाएं और सामग्री उपलब्ध हैं। इन वेबसाइटों पर पेश किए गये लिंग निर्धारण किट खरीददार को घर पर ही डीएनए विश्लेषण के माध्यम से भ्रूण का लिंग बताने में मदद करते हैं। अमेरिका और कनाडा के ऐसे किट्स की कीमत 15,000 रुपये से 20,000 रुपये तक है।
ऐसी वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगाने से कोई समाधान होगा, ऐसा सोचना भी निरर्थक है, क्योंकि इसकी जड़ें लोगों की पुत्र मोह वाली मानसिकता से जुड़ी हैं। गर्भस्थ शिशु का भ्रूण-परीक्षण सैद्धांतिक तौर पर पूरी तरह से गलत है, चाहे वह ब्लड टेस्ट के जरिए हो, यूरिन टेस्ट के जरिए हो या किसी किट के माध्यम से। ऐसे परीक्षणों के परिणाम भी पूरी तरह सटीक नहीं होते हैं। इन परीक्षणों के दुष्परिणाम भी हो सकते हैं, जो अक्सर बच्चे को भुगतने पड़ते हैं।
लिंग परीक्षण का मूल कारण बेटे की चाह होता है, जिसका नतीजा कन्या भ्रूण हत्या के तौर पर सामने आता है। लिंग परीक्षण संबंधी सेवाएं और सामग्री का नेट पर विज्ञापन देने वाली विदेशी वेबसाइटों पर रोक लगाने से कन्या भ्रूण हत्या नहीं रुकेगी बल्कि बेटों की चाहत रखने वाले लोग लिंग परीक्षण के लिए दूसरे तरीके खोज लेंगे। अपराध अपराध ही होता है। जिस प्रकार हत्या के मामलों में धारा 302 लगाई जाती है, उसी तरह कन्या भ्रूण हत्या के मामलों में भी धारा 302 लगाई जानी चाहिए। कानून के प्रावधानों को कठोर बनाए बिना और सामाजिक जागरूकता लाए बिना कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगाना नामुमकिन होगा और यह सिलसिला किसी न किसी रूप में चलता ही रहेगा।
कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए हर स्तर पर प्रतिबंध लगाना होगा, लेकिन सामाजिक स्तर पर जागरूकता सबसे जरूरी है। जब तक घर में मां अजन्मी बच्ची की रक्षा के लिए आवाज नहीं उठाएगी, तब तक कन्या भ्रूण हत्या पर रोक नहीं लगेगी। सभी बच्चों को एक समान समझने की शुरुआत मां के स्तर पर होनी चाहिए। विधायिका में 33 फीसदी आरक्षण मांगना ही पर्याप्त नहीं है। बालिकाओं को पर्याप्त अनुपात देने की पहल महिलाओं को ही करनी होगी। महिलाओं को चाहिए कि वह अपने गर्भ में पल रहे बच्चे का लिंग परीक्षण बिल्कुल न करवाएं।
हम हर बात में पश्र्चिम की नकल करते हैं। फिर हमें बेटे और बेटी में अंतर क्यों मानना चाहिए। जिस दिन हम यह अंतर दूर कर लेंगे, ऐसी वेबसाइटें अपने आप बंद हो जाएंगी।
बालिका भ्रूण हत्या रोकने और स्वस्थ लिंग अनुपात बनाने के लिए प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम 1994 (पीएनडीटी एक्ट) बनाया गया है। इस अधिनियम में लिंग निर्धारण संबंधी सेवाएं देने वाले व्यक्तियों और प्रयोगशालाओं तथा क्लीनिकों और इनकी सेवाएं लेने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का प्रावधान है।
लिंग निर्धारण संबंधी सेवाओं और सामग्री वाली इन वेबसाइटों को ब्लॉक करने के लिए सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय से संपर्क करना चाहिए, लेकिन यह अंतिम समाधान नहीं है, क्योंकि ये वेबसाइटें नये नाम के साथ दोबारा आ सकती हैं। अल्ट्रासाउंड के जरिए भी अजन्मे बच्चे का लिंग पता लगाने का काम धड़ल्ले से हो रहा है, जबकि इस पर पूरी तरह से रोक है और ऐसे कुछ मामलों में कार्रवाई भी की गई है। देश में 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार लिंग अनुपात (प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओंं की संख्या) 933 है। पंजाब में लिंग अनुपात 798, हरियाणा में 819, चंडीगढ़ में 845, दिल्ली में 868, गुजरात में 883 और हिमाचल प्रदेश में 896 है।
प्रति वर्ष लगभग तीस हजार बच्चियों को कोख में ही मार दिये जाने वाले और कुड़ी मारन देश के नाम से कुख्यात पंजाब के पटियाला जिले की पांतड़ा तहसील में एक फर्जी नर्सिंग होम के परिसर में खोदे गए तीस फीट गहरे कुयें से 100 से भी अधिक मादा भ्रूण मांस के टुकड़ों की बरामदगी तेजी से पनपते गर्भपात उद्योग का भंाडाफोड़ करती है। पंजाब में ही नहीं बल्कि देश के हर छोटे-बड़े हिस्सों में ऐसे मौत के कुंओं की संख्या में तेजी से वृद्धि होती जा रही है। लगातार मरती बेटियों से भारतीय समाज पूरी तरह डगमगाता जा रहा है।
इस नृःशंसता के खिलाफ आवाज जरूर उठाई जा रही है, लेकिन वह इतनी असरदार नहीं हो पा रही है। समाज सेवी संस्थाएं, एन.जी.ओ., राष्ट्रीय महिला आयोग कोशिशों में लगे हैं कि समाज में इसे लेकर जागरूकता फैले और यह कत्लेआम बंद हो। सभ्यता का नकाब ओढ़े जो लोग इस अनैतिक कार्य को अंजाम दे रहे हैं, उनके खिलाफ कार्रवाई हो। इसके लिए जरूरी है, लोगों की मानसिकता में बदलाब लाना। एमटीपी (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी) को पूरी तरह प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता, क्योंकि कई जगह यह लड़की के भविष्य को देखते हुए जायज होता है। लेकिन सिर्फ लड़की होने के कारण कोई औरत यदि गर्भपात कराए, तो यह हक कानून उसे नहीं देता। फिर भी पैसा देकर चोरी-छिपे यह कार्य धड़ल्ले से हो रहा है। जरूरत है, इस पर अंकुश लगाने की।
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