आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था को देखते हुए बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि राजनैतिक पार्टी चाहे कोई भी हो, जातिवाद को खत्म करना नहीं चाहती है। बल्कि हर तरह से उसे पोषित करते हुए अपनी महत्वाकांक्षाओं को फलीभूत देखना चाहती है। क्योंकि आज सभी को वोट चाहिए। वोटों के लिए हर पार्टी जातिवाद का हथकंडा अपनाते हुए अपनी जीत सुनिश्र्चित करना चाहती है। आज हर पार्टी जातिवाद का सहारा लेकर चुनाव लड़ती है अथवा जातिवाद को गालियां देकर अपना उल्लू सीधा करती है। इस प्रकार आज देश की पूरी राजनीति जातिवाद के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित रहती है। हर पार्टी अपने उम्मीदवार की जीत जातीय समीकरण के आधार पर निश्र्चित करती है।
किसी क्षेत्र में यदि किसी पार्टी ने जाति विशेष का उम्मीदवार खड़ा कर दिया है तो विरोधी पार्टी उसकी काट हेतु उसी जाति का उम्मीदवार खड़ा कर राजनैतिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देती है। हकीकत में जातीयता को ही चुनावी आधार बनाया जाता है। फिर चाहे परिणाम कुछ भी हो। ऐसे में जनता का प्रतिनिधित्व किसी सही नायक के रूप में न होकर किसी बहुरूपिये के रूप में तमाशबीन बनकर रह जाता है।
आज किसी भी पार्टी के पास विकास का मुद्दा न होने से चुनाव केवल जाति के एकसूत्री कार्यक्रम के तहत ही लड़ा और जीता जाता है। चुनाव जीतने के बाद वह या तो पार्टी का जनाधार मजबूत करता है या फिर अपनी जेब। राजनीति की ऐसी ओछी नीयत जो जातिवाद को पोषित करती है, से जातिवाद खत्म होने की बजाय बढ़ता ही रहेगा।
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