ग्रीष्म की तेज धूप में उजले-पीले फूलों के लंबे झुमकों को अपने सिर पर मुकुट की तरह धारण करने वाला वृक्ष अमलतास अपने अद्भुत सौंदर्य से सबका मन मोह लेता है। यह वृक्ष भारत और बर्मा (म्यांमार) के जंगलों में बहुतायत से पाया जाता है। अमलतास मध्यम आकार का पर्ण-प्रपाती वृक्ष है जिसकी गोलाई 3 से 5 फुट होती है।
यह पेड़ प्रायः समूह में नहीं उगता है किंतु उन जंगलों में यह समूहों में लगता है जिन जंगलों में बंदरों की अधिकता होती है। जब बंदर इसकी फलियों को तोड़ते हैं तो इसके बीज एक क्षेत्र विशेष में बिखर जाते हैं। इस तरह इन्हें उगने का अवसर मिल जाता है। इसके बीज कठिनाई से उगते हैं। इसके बहुत से बीज फलियों के अंदर ही कीड़े खा जाते हैं। छोटे पौधों की छाल हरी, धूसर और चिकनी होती है, जो आयु बढ़ने के साथ काली और खुरदरी होती चली जाती है।
अमलतास गरम मौसम-अप्रैल-मई-जून में खिलता है। तब इसका सौंदर्य चरमोत्कर्ष पर होता है। लंबे- पतले डंठलों पर लटकने वाले पीले फूल और गोल कलिकाएँ कानों में लटकने वाले बुंदों के समान दिखाई देते हैं। इसके पत्ते बड़े और संयुक्त होते हैं। पत्ते तीन से आठ जोड़ों में मिलते हैं। फूलों की छायाओं और नये पत्तों के रंगों को देखते हुए इसके कई भेद हैं।
इसकी फलियां प्रारंभ में हरी और कोमल होती हैं। ये फलियां डेढ़ से दो फुट लंबी होती हैं। प्रत्येक फली में 25 से 100 तक भूरे रंग के चमकीले बीज अलग-अलग खानों में पड़े रहते हैं। पकी हुई फली के अंदर काला-मीठा गूदा रहता है जो इन बीजों के साथ लगा रहता है। इस काले से गूदे को गुजरात में “गरमाला नो गौल’ अर्थात् “अमलतास का गुड़’ कहते हैं।
बंदर, गीदड़, भालू आदि बहुत से प्राणी इस प्राकृतिक ग़ुड को चाव से खाते हैं। यह वृक्ष, खासकर इसकी फली के कारण बंदरों को विशेष प्रिय है। यही कारण है कि इस पेड़ का एक नाम “बंदर लाठी’ भी है। यह वृक्ष भारत में सर्वत्र फैला है। प्रायः हर प्रदेश में इसका नाम अलग है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में इसके नाम “किरमाल’, “गिरमाल’ आदि हैं। ये शब्द निश्र्चित ही संस्कृत के “कृतमाल’ शब्द से निकले हैं। माला के समान लटकते हुए फूलों के कारण संस्कृत में इसे “कृतमाल’ नाम दिया गया है। मालवा अंचल में इसे “गिरमली’ नाम से जाना जाता है। अमलतास के अधिकतर नाम इसके विशेष आकार के सुनहरी आभा से युक्त फूलों और लंबी फलियों पर आधारित हैं। इसका बोटानिकल नाम “केशिया फिस्चुला, है, जिसका अर्थ नली है। यह नाम इसकी नली के आकार की फलियों की ओर संकेत करता है। डच भाषा में इसे “गोल्डन शावर’ नाम से विभूषित किया गया है। चिकित्सा ग्रंथों में इसे “स्वर्ण द्रुम’, “स्वर्णांश’, “स्वर्ण भूषण’ जैसे नाम दिए गए हैं। वाल्मीकि ऋषि ने इसे “कांचन वृक्ष’ अर्थात् “सोने के पेड़’ जैसा सुंदर नाम दिया है। फूलों के उल्लास भरे सौंदर्य के कारण इसे “राजवृक्ष’ (वृक्षों का राजा) नाम भी दिया गया है।
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