मौसम बदल गया है। धूप और गर्मी से हल्की-सी राहत मिल गयी है। बारिश की कुछ बूंदों ने चार महीनों से झुलस रहे तन को ही नहीं बल्कि मन को भी हल्का कर दिया है। क्योंकि बारिश का संबंध केवल तन से नहीं, मन से भी होता है। यही वो बारिश है, जो स्मृतियों को ताज़ा करती है। भावनाओं को भिगोती है। बचपन जब याद आता है तो बहुत कुछ याद आता चला जाता है। बादलों को देख कर उन्हें वर्षा के लिए बुलाने की इच्छा और उनके बरसने का आनंद। मराठी की एक मशहूर लोककविता है, जब बच्चे बारिश को बुलाते हैं तो कहते हैं-
ये रे ये रे पावसा
तुला देतो पैसा
पैसा झाला खोटा
पाउस आला मोटा
पुराने लोग पैसा खोटा होने का अर्थ चाहे जो कुछ लें, लेकिन नयी सदी के लोग शायद बारिश में इसलिए नहीं भीगते हों, क्योंकि उन्हें अपनी जेबों में रखी नोटों के भीग कर बेकार होने का डर लगा रहता है। बारिश के मौसम और फिर उस मौसम को पल-पल जीने के आनंद को कवि से बेहतर भला कौन समझ सकता है! खुशी तो उस सूचना से भी मिलती है, जिसमें दूर देश के आकाश में बादल छाने का संदेश होता है। काले घन छा जाने की खुशी से वसुधा का अंग-अंग पुलकित हो उठता है। कवि को ऐसा लगता है कि रिमझिम बरस रही जलधारा से संध्या की अलकें भीग रही हैं या दिल को कोई छाले हैं तो उसी वर्षा से भीतर की जलन बुझाने के प्रयास में विफल कवि कहता है-
चिर-नवीन कवि-स्वप्न, यक्ष के
अब भी दीन, सजल लोचन
उत्कंठित विरहिणी खड़ी
अब भी झूला डाले सजनी
बुझती नहीं जलन अंतर की
बरसें दृग बरसें जलधर
अंगारे पाले सजनी
– (रामधारी सिंह दिनकर)
मेघ जब बन-ठन-संवर कर उमड़-उमड़ कर आते हैं तो ऐसा लगता है कि मन मयूर नाच रहा है। गली-गली की खिड़कियॉं, दरवाज़े खुलने लगते हैं। ऐसे जैसे किसी नये मेहमान का स्वागत हो रहा हो। पेड़ कभी झुके गर्दन उचकाकर झांकने लगते हैं। ऐसे में जब आँधी चलती है तो धूल घाघरा उठाए भागने लगती है और नदी घूंघट सरका कर बांकी चितवन उठाती है। बूढ़ा पीपल और अकुलाई लता को भी बारिश की नयी बूंदों का इन्तज़ार है। ऐसे में जब बिजली चमकती है तो जामुनी बादल नभ पर ठहर जाते हैं और जंगलों, शहरों, बस्तियों में बरसते है, सूखी हरियाली हरी हो जाती है। ऐसे में अगर कोई अकेला हो तो क्या करे-
हरहराते पात तन का थरथराना
रिमझिमाती रात मन का गुनगुनाना
क्या बनाऊँ मैं भला तुम से बहाना
भेद पी की कामना का आज जाना
क्यों युगों से प्यास का उल्लास साधे
भरे भादो में पपीहा तरसता है
मैं अकेला और पानी बरसता है
– (शिव मंगल सिंह “सुमन’)
मौसम की पहली बारिश का आनंद कुछ अलग ही होता है। मिट्टी की वह सौंधी-सौंधी खुशबू, मन लुभावन बादल और फिर घनघोर घटाएँ, बिजली की गर्जन, बादल का कंपन, मन में हल्का-सा डर भी है, लेकिन पपीहे की पीहू और मोर का नर्तन उस डर को कहीं दूर भगा देता है। रातों में चांद जब बादल का घूंघट ओढ़े आँख-मिचोली करता है तो धरती हरी होने के बावजूद कुछ खलने लगता है-
कैसा छंद बना देती है
बरसातें बौछारों वाली
निगल-निगल जाती है बैरिन
नभ की छवियां तारों वाली
सूरज अनदेखा लगता है
छवियॉं नव नभ में लग आतीं
कितना स्वाद ढकेल रही हैं
ये बरसातें आतीं जातीं
इनमें श्याम सलोना
छुपा लिया है अपने उर में
गरज-घुमड़-बरसन-बिजली-सी
फैल उठी सारे अम्बर में
(माखनलाल चतुर्वेदी)
धूप रस्सी पर लटके कपड़ों को सुखा रही है। चाची घर के आँगन में सूप फटक रही है। गाइया पीपल की छाव में घास चबा रही है। झबरू कुत्ता आँख मूंदे उसके पास लेटा है। मिस्त्री छज्जा ठीक करने के लिए बैठा है। अम्मा दीदी को साथ लिए राशन लेने गयी है और खुतरू मोची से जूते लेने गया है। ऐसे में अचानक आसमान पर काले बादल छा जाते हैं। उसके पीछे हवा के ठंडे झोंके हैं। पहले टिप-टिप और बाद में घनघोर और फिर मंगूल धोबी कपड़े लाने बाहर लपकता है। चाची भीतर भागती है। मिस्त्री गारे पर कुछ ढ़ांक देता है। धूप में सूखे कपड़े इधर-उधर हो गये हैं।
चाची ने खिड़की दरवाज़े
बंद कर दिये सारे
पलंग के नीचे जा लेटी
बिजली के डर के मारे
झबरू ऊँचे सुर में भौंका
गाय लगी रंभाने
हौदी बेचारी कीचड़ में हो गयी दाने-दाने
अम्मा दीदी आई दौड़ती
सर पर रखे झोले
जल्दी-जल्दी राशन के फिर सभी लिफाफे खोले
सब ने बारिश को कोसा
आँखें भी खूब दिखाई
पर हम नाचे बारिश में और
मौजें ढेर मनाईं
मैदानों में भागे दौड़े मारी बहुत छलांगें
तब ही वापिस घर आए जब थक गयी दोनों टांगें
(सफदर हाशमी)
… यह मनोरम दृश्य और हर दिन की एक नयी अदा हर उस व्यक्ति को याद होगी, जिसके भीतर एक बच्चा मौजूद है।
दिन जब बूंदा-बांदी में गुज़र जाता है। कच्चे-गीले रास्तों पर आने जाने वाली गाड़ियों के निशान कुछ ऐसे पड़े हैं, जैसे सोच भरे माथे की रेखाएं हों। शाम का अंधेरा जब छाने लगता है और आने-जाने वालों की ़कदमों के स्वर भी अब थम गये हैं। ऐसे में अगर साथ कोई न हो तो बरसात भी अकेली लगने लगती है। सूनापन और गहराने लगता है और किसी का आँसू-धुला उदास चेहरा याद आने लगता है।
सील भरी ड़ूबी फुहार चलती पुरवाई
बिछुड़न की रातों को ठंडी-ठंडी करती
खोये-खोये लुटे हुए खाली कमरे में
गूंज रहीं पिछले रंगीन मिलन की यादें
नींद भरे आलिंगन में चूड़ी की खिसलन
मीठे अधरों की वे धीमी-धीमी बातें
– (गिरिजा कुमार माथुर)
बारिश की छम-छम करती बूंदों में एक अनोखा संगीत होता है। जैसे हरियाली और प्रेम को कोई नया गीत बना हो। मेघ झूम कर जब धरती की प्यास बुझाने लगते हैं, खुशहाली की लहर दौड़ जाती है। बरखा की रिमझिम का यही मीठा-सा गीत एवं झरनों की कलकल का संगीत एक नयी कविता का साथ जन्म लेता है।
अंबर की धरती तक पानी का जाल
बाग़ों में झुकी-झुकी जामुन की डाल
लछुवा की देहरी में सटे खड़े ढोर
बरखा की भोर
बादल की घूंघट से सूरज की किरन
झांक रही जैसे हों हिरणी के नयन
बांसों के जंगल में नाच रहे मोर
बरखा की भोर- (नरेन्द्र दीपक)
…और यह ऐसा ही समय होता है, जब छपक-छपक के बरसते पानी में वन में मोर नाचता है तो शोर मचाने को जी करता है। क्योंकि बारिश से खेतों में हरियाली उग आती है। हरी डाल पर कोयल गीत सुनाने लगती है। तालाबों में मेंढकों की टर्र-टर्र आँगन में पशु-पक्षियों की चहचहाहट और नयी बयार का झोंका मन में हिलोर लेने लगता है।
नदिया कल-कल बहती रहती
यौवन के ख्यालों में
नभ से जा अमृत रस गिरता
टकराता बड़े पहाड़ों से
भारत देश किसानों का है,
चहूँ ओर हरियाली है
हर खेतों में फसल दिखाती
उसकी शान निराली है
सच्चाई से डटे रहेंगे हम
जाएंगे अब कहीं न छोड़
आओ चले मचाएँ शोर- (शंभू नाथ)
बारिश से जब खेत हरे हो जाते हैं और घास सिर उठाने लगती है तो हवा के झोंकों से हिल कर उससे जो आवाज़ निकलती है, वह मन को क्योंकर न भाए। क्योंकि उन हरी-हरी पत्तियों पर शबनम के दिल धड़कते हैं।
झाड़ियों को जो हिलाते हैं हवा के झोंके
दिले शबनम के धड़कने की सदा आती है
(जोश मलीहाबादी)
वह बारिश ही है, जो सूखी धरती में नये प्राण डाल देती है। ग्रामीण जीवन खिल जाता है। चाहे कीचड़ में पैर घुटनों तक ही क्यों न धंसे, लेकिन चलने का उल्लास कम नहीं होता, लेकिन आधुनिक शहरी जीवन ने बारिश के आनंद का वह उल्लाक जैसे हम-से छीन लिया है। नोटों के भीग जाने का डर हमें भीगने नहीं देता। मिट्टी की सौंधी खुशबू को सिमेंट और कॉंक्रीट के जंगलों ने अपने भीतर ़कैद कर लिया है और उसके बदले बारिश का स्वच्छ जल, गंदी नालियों के मिलावट के बाद सड़कों पर जलभराव के रूप में हमारे सामने है। अब वह दौर कहॉं जो गर्जन भैरव नाद से नया आनंद मिल सके-
झर-झर-झर-निर्झर गिरी-सर में
घर, मरू, तरू-मर्मर सागर में
सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में
मन में विजय-गहन-कानन में
आनन-आनन में रव घोर कठोर
राग अमर
अंबर में भर निज रोर
– (सूर्यकांत त्रिपाठी निराला)
बारिश के साथ हमारे कई सपने जुड़े होते हैं। चाहे हमारे भीगने की प्रक्रिया जारी हो या बंद, लेकिन सपने देखने का अधिकार हमसे कोई नहीं छीन सकता और फिर-फिर बारिश आने के सपने हम देखते रहते हैं।
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