कोई माने या ना माने पर पाकिस्तान के फैसलाबाद में जन्मे और वहॉं के मशहूर सूफी गायक और कव्वाल के बेटे तथा भारत में सूफी गायकी को लोकप्रियता के मुकाम तक पहुँचाने वाले तथा अपने चाचा नुसरत फतेह अली खान से गायकी की शिक्षा लेने वाले गायक राहत फतेह अली खान की भारत में गायकी की शुरुआत तो तभी हो गई थी, जब वे नुसरत फतेह अली खां के साथ भारत आया करते थे। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद वे लंबे समय तक केवल नुसरत के भतीजे के तौर पर जाने जाते रहे। जब उनके गाए गीत जिया धड़क-धड़क जाए ने बॉलीवुड में प्रवेश किया तो लोग उनकी गायकी उनके स्वर, आरोह- अवरोह और सूफी में नयी ताजगी के दीवाने
हो गए। पिछले दिनों जब वे दिल्ली में पहली बार एनडीटीवी के नए रियल्टी और गायकी के टेलेंट हंट शो की जजिंग के लिए मिले तो वे अपनी नयी सफलता के लिए ही नहीं, बल्कि गायकी के एक भारतीय शो में निर्णायक बनने के लिए भी रोमांचित थे।
लेकिन भारत में पाकिस्तानी गायकों के लिए परिदृश्य आलोचनाओं से भरा है?
मैं हैरान हूँ कि अब भी कुछ भारतीय गायक पाकिस्तानी गायकों के विरोध में बात करते हैं, जबकि दोनों देशों की परम्पराओं में कोई खास अंतर नहीं है।
लेकिन आपको लगता है कि आपके चचा और सूफी के मशहूर गायक नुसरत साहब और आप में उम्र का ही नहीं गायकी का भी बड़ा अंतर है?
मैं उनका मुकाबला नहीं कर सकता। वे सूफी और कव्वाली के जिस मुकाम पर थे, वहॉं तक कोई नहीं पहुँचा। मैं तो उनका शार्गिद भर हूँ।
जो शार्गिद आप अपने शो में ढूंढ रहे हैं, उनके बारे में आप क्या कहते हैं?
तुर्की में रूमी एकमात्र शायर थे जिन्होंने सूफी के नए-नए प्रतीक और बिंब तलाशे, पर दुनिया में अभी भी ऐसे गायकों की कमी नहीं जो उनकी परंपराओं को जिंदा रखे हुए हैं। यह शो ऐसे ही गायकों की तलाश कर रहा है।
यह शो लोक और फिल्मी संगीत के साथ हो रहा है। आपको नहीं लगता कि इससे सूफी संगीत की मौलिकता प्रभावित होगी?
यही तो मेरे इस शो में आने की सबसे बड़ी वजह है। मैंने उनसे कहा कि यदि वे सूफी के लिए अलग से कोई वर्ग रख रहे हैं, तभी मैं आपके शो में आउंगा और वे मान गए। जहॉं तक लोकगीतों और फिल्म संगीत की बात है तो लोकगीत हमारी जड़ों में रहता है और फिल्मी संगीत दोनों के बगैर पूरा नहीं होता।
आपको लगता है कि आपने अपनी गायकी की जो यात्रा शुरू की थी वह भारत आकर लोकप्रियता पाने के साथ पूरी हो गयी?
नहीं, मैं तो अभी गायकी का बच्चा भर हूँ। मैंने महेश भट्ट जैसे लोगों के निमंत्रण पर उनके लिए गाना गाया था। उसके बाद झूम बराबर और अब ओम शांति ओम के लिए। लेकिन जो लोकप्रियता मुझे जग सूना सूना ने दी वह अब तक नहीं मिली।
यानी भारत एकमात्र जगह और बाजार है, जो पाकिस्तानी कलाकारों को सही मुकाम दे सकता है?
हर आदमी अपनी बेहतरी के मुकाम तलाशता है। मैं पहला कलाकार नहीं हूँ, जो भारत आकर काम कर रहा है। मैं यहॉं बसने नहीं आया हूँ। मेरा मुल्क पाकिस्तान है। मैं वहीं जाकर खुद को संपूर्ण महसूस करता हूँ।
आपसे पहले जो कलाकार भारत में काम कर रहे हैं, आप उनके बारे में क्या कहते हैं?
मैं रोमांचित हूँ कि भारत में अब पाकी कलाकारों को लेकर पहले जैसे पूर्वाग्रह नहीं रहे। गायकों में गुलाम अली, रेशमा से लेकर नुसरत साहब और अब अदनान तक सबने बेहतर गायकी का परिचय दिया है। यही नहीं मोहम्मद अली, जावेद शेख साहब, सलमा आगा, साना नवाज, मीरा और दूसरे कई कलाकारों ने हिन्दी फिल्मों में जो परफॉरमेंस दी है, वह काबिले तारीफ है।
दोनों देशों के इस कला संगम का पाकिस्तान में क्या प्रभाव पड़ता है?
यह दोनों देशों के लिए बेहतर है। महेश भट्ट साहब की जन्नत जैसी फिल्मों के प्रीमियर वहॉं होते हैं, तो खुशी होती है। नसीर साहब ने अभी खुदा के लिए की है और किरन खेर वहॉं की फिल्म खामोश पानी पहले ही कर चुकी हैं। यह कला का ही नहीं संबंध का भी विस्तार है।
आपके काम का अब क्या विस्तार है?
जावेद अख्तर साहब के गीतों पर एक एलबम आ रहा है। दो फिल्में कर रहा हूँ। इनमें एक विशाल भारद्वाज की नेक्स्ट और दूसरी सलमान की “मैं और मिसेज खन्ना’ हैं।
सूफी गायकी में नुसरत साहब ने पॉप का इस्तेमाल किया था, आपको लगता है यह सही है?
कला में प्रयोग नहीं हो तो वह जड़ हो जाती है। उसके विस्तार के लिए यह ज़रूरी है। मैंने उन्हें जहॉं तक जाना है, उन्होंने कभी संगीत की आत्मा को नुकसान नहीं पहुँचाया। वे महान गायक थे।
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