आज से लगभग 877 वर्ष पूर्व कर्नाटक में स्थित बीजापुर जिले के बागेवाड़ी गॉंव में मदारस-मादलांबिका नामक एक दंपत्ति रहते थे, जो नंदीश्र्वर के भक्त थे।
एक दिन मादलांबिका ने पूजा के समय शिवलिंग पर चमेली का फूल चढ़ाया। वह फूल उसके आँचल में आ गिरा। उस फूल को आशीर्वाद समझ कर उसने अपने बालों में लगा लिया।
उसी रात उसने सपने में देखा कि कैलाश से शिव जी ने अपने वाहन नंदी को इस लोक में भेजा है। नंदी उनके घर में प्रवेश किया, जिससे घर जगमगा उठा।
मादलांबिका ने दूसरे दिन प्रातः इस स्वप्न के विषय में अपने पति मदारस को बताया। मदारस ने गॉंव के एक आध्यात्मिक गुरू को यह बात बतायी। सारा वृत्तांत सुनने के पश्र्चात गुरु ने बताया कि तुम्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति होगी।
1131ई. में इनके घर में एक शिशु ने जन्म लिया। इस शिशु ने एक मुनि की तरह जन्म लिया अर्थात जनमते ही इसने रोया नहीं। उन्हीं गुरुजी ने इस शिशु के विषय में बताया कि यह शिशु साधारण मानव नहीं है, बल्कि महा-पुरुष होगा।
नंदी वृषभ को कहा जाता है और कन्नड़ में वृषभ को बसवा कहा जाता है। बसवा शब्द मूलतः संस्कृत का है। इस तरह शिशु का नाम बसवा रखा गया। इस शिशु की प्रखर बुद्धि को देखकर सब लोग आश्र्चर्य चकित रह जाते थे। गुरूजी द्वारा पाठ पढ़ाये जाने पर बसवा अद्भुत प्रश्र्न्न करके सबको आश्र्चर्य में डाल देते थे। बसवा बालपन से ही बड़े ज्ञानी थे।
बसवा के समय समाज में कई तरह की कुप्रथाएँ व्याप्त थीं, जिनके दमन के लिए उन्होंने कठोर संघर्ष किया। बसवा उस धर्म के खिलाफ थे, जिसमें पूजा के नाम पर ढकोसलेबाज़ी होती है। बसवा उस काल के रीति-रिवाज का खंडन करते हुए एकता की भावना को प्रकट करते हैं। बसवा ने जो दीप जलाया है, उसकी रोशनी में हमें अपने कर्मों को परखना होगा और उनके दिखाये हुए मार्ग पर चलना होगा, तब ही हम भगवान के सच्चे भक्त बन सकते हैं।
-लतीफ़ “आरज़ू’ कोहीरी
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