अब शिक्षा महज़ लक्ष्मी बटोरने का साधन

Now Education became the source of big incomeहम जिस समय में आ पहुँचे हैं, यह बेहद नाजुक समय है। आज के ढांचे में तिहरी-चौहरी शिक्षा व्यवस्थाएं काम कर रही हैं। गांवों, दूर-दराज के इलाकों, कस्बों, जनपदों, बड़े शहरों में स्कूल-कॉलेज हैं, यूनिवर्सिटी या उच्चशिक्षा संस्थान हैं, वे कई स्तरों और सितारों वाले हैं। निचले स्तर के स्कूल निहायत ही जर्जर किस्म के भवनों, असुविधाओं और तकलीफों को बढ़ाने वाले और बिना स्टाफ के हैं। इनमें ज्यादातर गिनती नगर-परिषदों, सेवा समितियों, दान-चंदों तथा सरकार के रहमोकरम पर चलने वाले स्कूलों की ही है। बच्चे बस्ते लटकाये आते हैं और मुंह लटकाये चले जाते हैं। इन्हें किस किस्म की शिक्षा मिल रही है? या इन पर कौन से कहे जाने वाले ज्ञान की अमृतवर्षा हो रही है, यह उनके “भाग्य-विधाताओं’ को भी पता नहीं। इन स्कूलों में जो बच्चे आते हैं, वे छोटे किसानों, दिहाड़ीदारों, छोटे-मंझोले दुकानदारों, छोटे-मोटे धंधे करने वाले, कम आय वाले लोगों के बच्चे होते हैं जो यह सपना देखते हैं कि उनके बच्चे किसी तरह मशक्कत करके पढ़ जायें। कुछ बन जाएं और उन्हें उनकी तरह जिंदगी घसीटनी न पड़े, दुर्दिन न देखने पड़ें। वे मुसीबतों से छुटकारा इस शिक्षा में खोजते हैं, चूँकि उनके पास इतनी “पूंजी’ कहॉं कि वे कोई व्यवसाय या अच्छा काम-धंधा ही चला पायें। पेट काटकर, मेहनत-मशक्कत करके वे अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं। घर पर कोई पढ़ा-लिखा न होने की वजह से उन्हें अपना “होम वर्क’ करवाने वाला कोई नहीं, “ट्यूशन’ में तो पैसे लगते हैं। वे उनके पास कहॉं, उन्हें तो केवल और केवल अपने स्कूल टीचर (भाग्य विधाता) पर ही निर्भर रहना पड़ता है। वे ही उनके भगवान हैं, निर्माता हैं। ऐसे में ये किस तरह पढ़ते हैं? यह महसूस करने का भाव है, संवेदना है और काफी कुछ कष्टदायक है।

आज के प्रतिद्वंद्विता के दौर में इस वर्ग के प्रति एक बड़ा वर्ग संवेदनहीन होता जा रहा है। सुविधा संपन्न वर्गों के बच्चे जिस तरह से शिक्षा खरीदते हैं और उसका व्यापार करते हैं, यह खुद में एक बड़ा सवाल है। इन वर्गों का सोचना और कहना है कि जो महंगे दामों की, सुविधापूर्ण शिक्षा लेने में समर्थ हैं और यदि वे दाम चुका कर इसे ग्रहण करते हैं तो इसमें आपत्ति क्या है? उन्हें चाहे यह आपत्ति हो या न हो पर तर्कसंगत सोच रखने वाले लोगों को आपत्ति होगी ही, पैसे से यह अवसर उन्होंने पाया है। सोचिये, अगर इन वर्गों के पास यह धन न होता तो क्या वह पहले वर्ग में न आ जाते, तब उनको कैसा लगता? अप्रिय लगता, बहुत ही बुरा, आज वंचित लोग इसी अप्रियता को भुगत रहे हैं। समाज का एक वर्ग इसे अच्छी शिक्षा की संज्ञा देता है, इसे वह ज्ञान तथा कौशल और न जाने क्या-क्या कहता है। अरे! यह कोई जीवन के रगड़े खाकर सीखने वाली बात थोड़े ही है। “पकी-पकायी खीर’ है। यह वर्ग “पढ़ा हुआ’ तो है, “गढ़ा हुआ’ नहीं।

अब पहले दर्जे वाले असुविधा-संपन्न स्कूलों की जगह कस्बों-शहरों में जो स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह पिछले तीन दशकों में पनपे हैं, उनकी बात करें। ये खाते-पीते, मध्यवर्गीय, निम्नमध्यम वर्गीय परिवारों (नौकरी-पेशा, व्यवसायी) के बच्चों के बल पर चलने वाले अच्छी सुविधाओं के स्कूल हैं। इनमें बच्चे अच्छी ड्रेस में आते हैं, उन्हें अच्छे डेस्क-बैंच मिलते हैं, खेल के मैदान मिलते हैं, कुछ अतिरिक्त शौकिया गतिविधियां करने को मिलती हैं। अच्छा “होमवर्क’ मिलता है (जिसकी तैयारी अक्सर मॉं-बाप करवाते हैं, या फिर ट्यूशन से यह धंधा चलता है)। अब यह बच्चे की मानसिक तैयारी होती है और मॉं-बाप की जेब-कटाई, लूट-लुटाई। मॉं-बाप अकसर शिकवा-शिकायत करते मिलते हैं, सिस्टम से ़खफा टीचर्स के “एटीट्यूड’ से परेशान। निजी मालिकों वाले ये स्कूल मनमानी करते हैं और माता-पिता उनके दृष्टिकोण से हैरान। अब इसे न छोड़ते बनता है और न ही पचाते। इसी परेशानी के चलते बच्चा किसी न किसी तरह शिक्षा की गाड़ी खींच ले जाता है। कर्मयोगी बनकर, दिन-रात डट कर। किताबी दुनिया का रटंतू ज्ञान लेकर… जिंदगी के उतार-चढ़ाव यहॉं नदारद। “एक बनावटी-दिखावटी’ सा वातावरण बन रहा है। बच्चों में समानता और उच्चता के मूल्य और आदर्श नहीं बल्कि अंकों को बटोरने की अंधी, व्यावसायिक और गलाकाट प्रतियोगिता है।

एक अन्य श्रेणी के स्कूल वे हैं जहॉं बड़े पूंजी-घरानों के पैसे लगे हैं और नखरे-नज़ाकत के कई रूप यहॉं देखने को मिलते हैं। इनके पास जिंदगी को भोगने के खूबसूरत नज़ारे हैं, वे इन स्कूलों में भी नज़ारे लेते हैं। वे इसे अपने “लाइफ-स्टाइल’ में भोगते हुए जिंदगी में ही सीखना-सिखाना कहते हैं। किताबों का बोझ वहॉं उन पर कम ही लादा जाता है। इसे वे खेल-खेल में सीखना कहते हैं। यहॉं आउटडोर और इनडोर गेम हैं। बच्चा घुड़सवारी करे, तैराकी करे, निशाना साधे, चेस खेले, कैरम की गिट्टियों में अंगुलियां चलाये, दिमागी कसरत करे, िाकेट का शौक फरमाये, फटाफट अंग्रेज़ी खाये-उगले, घर से अलग कांटीनेंटल खाने-पीने का मज़ा ले…. इसी को कहा गया है- जिंदगी के बीच में सीखने की आदत। अब भला क्या मज़ाल पहले वाले यहॉं झांक भी लें। अगर दरवाजों की बिलों से देखेंगे या पास फटकेंगे भी तो इनकी वो ठुकाई हो जाएगी कि फिर कभी इधर झांकने का हौसला ही न हो। इन्हें दुत्कार-फटकार सहन करनी पड़ेगी। इन्हें ये आदमजात में भी शामिल नहीं करते।

अब आप ही बताइये, व्यवस्थाओं के भीतर व्यवस्थाएं, सुविधाओं के भीतर सुविधाएं। आरामदेह चीज़ें भला किसे नहीं लुभाएंगी। पर इस मायावी शिक्षा के रहस्य-लोक में पहुँचने के लिए जिन हाथों में “माया’ है वे ही लुत्फ उठाएंगे न। अब आप इस व्यवस्था के बीच कह रहे हैं-गधे, घोड़े, ऊंट, हाथी सब एक साथ दौड़ें? कैसे संभव है? क्या ऐसा होगा, जब सब एक जैसी शिक्षा लेंगे, कोई भेदभाव नहीं होगा, मनुष्य को ढोर-डंगर की तरह ट्रीट नहीं किया जाएगा। पहले बच्चे सरकार और सरकारी जैसे निजी स्कूलों में वास्तव में ज्ञानार्जन करते थे, शिक्षकों के उच्च मूल्यों तथा आदर्शों से सीखते थे। अब मुनाफा बनाने की होड़ ने शिक्षा के बड़े उद्देश्य को केवल “लक्ष्मी’ बटोरने-बनाने का साधन बना दिया है।

 

– डॉ. ओमप्रकाश “करुणेश’

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