महाराजा दशरथ न्यायप्रिय व प्रजापालक शासक थे। वह हर क्षण यह ध्यान रखते थे कि राज्य के किसी भी व्यक्ति को किसी तरह का कष्ट न होने पाए। सभी लोग धर्म का पालन करते हुए सुखी व समृद्ध बने रहें।
एक दिन उन्हें प्रजा के हित के काम में व्यस्त देख कर गुरु वशिष्ठ जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने हृदय से दशरथ जी को आशीर्वाद दिया। उन्हें लगा कि शायद दशरथ जी अपनी रानियों की इच्छा पूरी करने में कम ध्यान देते हैं। उन्होंने कहा, “महाराज, कभी-कभी रानियों से मिलकर उनकी इच्छा की जानकारी ले लिया करें। पति का यह धर्म है कि वह पत्नी की सुख-सुविधा का ध्यान रखे।’ दशरथ जी ने उसी दिन महारानी कौशल्या से पूछ लिया, “यदि मन में कोई इच्छा-आकॉंक्षा हो, तो निःसंकोच बताओ? उसे पूरा करने का प्रयास किया जाएगा।’
महारानी कौशल्या पति के शब्द सुनकर मुस्कुराईं तथा बोलीं- “महाराज, यह घोषित कर दें कि राज्य में जो भी अभाव पीड़ित हो, ऋण ग्रस्त हो, वह राजकीय कोष से जितना चाहे, धन ले ले। मेरी यही आकॉंक्षा है कि हमारे राज्य में किसी को किसी प्रकार का कष्ट न हो।’
महारानी की उदार आकॉंक्षा सुनकर दशरथ जी गद्गद् हो उठे। वे हंसकर बोले, “देवि! क्या तुम अपने पति को कृपण समझती हो? मैं दावे से कह सकता हूँ कि प्रजा का प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण सुखी व संतुष्ट है।’
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