इक्कीसवीं सदी के इन प्रारंभिक वर्षों में मजहबी उन्माद ने विश्व के अनेक देशों, समुदायों और वर्णों को युद्ध की विभीषिका में भस्मसात होने के लिए उत्प्रेरित किया है। यह समय मजहब अथवा धर्म की आँखों से देखने का न होकर, मानवतावादी दृष्टि रखने की ख्वाहिश रखता है। प्रत्येक देश व समाज एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए परस्पर खिंचाई में अधिक विश्र्वास कर रहे हैं, जबकि आज की आवश्यकता सह-आस्तत्व की है। आज धार्मिक व मजहबी कट्टरता के स्थान पर मानव-धर्म की अधिक आवश्यकता है।
आज हमें कबीर जैसे जाति, धर्म और पंथ-निरपेक्ष साहित्यकारों की आवश्यकता है। महात्मा गांधी के धार्मिक और सामाजिक सरोकारों के चिन्तन के पीछे कबीर की अहम् भूमिका रही है। गांधी जी ने जब 1935 में हरिजन यात्रा की और काशी के कबीर मठ में पहुंचे तो उन्होंने बड़े ही गर्व के साथ घोषित किया कि “मेरी माता कबीर पंथी थीं।’
गांधी के जीवन-दर्शन पर कबीर का गहरा प्रभाव था। यूं तो टाल्सटॉय, रस्किन तथा लायड गैरिसन आदि चिन्तकों का प्रभाव भी उन पर पड़ा था, किन्तु वह ज्योति, जो कबीर के “परम प्रकाश’ की थी, अमिट और स्थाई थी।
कबीर और गांधी दोनों ही राम-नाम की महिमा का बखान करते हैं, किन्तु दोनों ही दशरथ पुत्र राम के नहीं, ब्रह्म स्वरूप राम के गायक हैं। आज हमें कबीर के साहित्य पर नहीं उनके सामाजिक सरोकारों से दो-चार होना है। भारत में दलित आन्दोलन का सूत्रपात कबीर ने ही किया था। “हरिजन सबीं न जाति’ कहकर शूद्र कहे जाने वालों को हरिजन का सम्मानजनक पदनाम दिया था।
कबीर का धर्म परमात्मा के साथ सच्ची प्रीति और अनन्य लगन से था। वे प्राणिमात्र के साथ शुद्ध मानवीय करुणा से ओतप्रोत थे। यही बात उन्हें कोरे दार्शनिक वाग्जाल से अलग करती है। उनकी कथनी और करनी में कोई भेद न था।
कबीर को हम किसी धर्म अथवा मत के चौखटे में “फिट नहीं’ कर सकते, किन्तु हिन्दी के स्वनाम धन्य समालोचक डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उन्हें ब्राह्मण धर्म के छद्य पोषक के रूप में देखा है।
डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के इस मत से डॉ. धर्मवीर भारती सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं कि- “कबीर न मुल्ला को कुछ समझते हैं, न ब्राह्मण से कोई आशा लगाए बैठे हैं। कबीर का अपना समाज है, जिसे कबीर का “लक्ष्य समाज’ कहा जा सकता है। इस लक्ष्य समाज में इस देश के शूद्र और अन्त्यज शुमार होते हैं। ये लोग यहां के अर्थशास्त्र में मजदूर और छोटे किसान बने हुए हैं। कबीर को केवल इनके भले का सोचना है।’
यहां ब्राह्मण शब्द जाति विशेष सूचक होते हुए भी पुरोहितवाद के लिए प्रयुक्त है। कबीर की सामाजिक चेतना जातिवाद पर नहीं वर्ग पर आधारित है। वे असमंजस में हैं कि हिन्दुओं के साथ चला जाए या मुसलमान के साथ, क्योंकि दोनों ही गुमराह हैं-
अरे इन दोउन राह न पाइ।
हिन्दू अपनी करै बड़ाई,
गागर छुवन न देई।
वेश्या के पायन तर सोवैं,
यह देखी हिन्दुवाई।
मुसलमान के पीर औलिया,
मुरगा-मुरगी खाई।
खाला केरी बेटी ब्याहैं
घरहि में करैं सगाई।
हिन्दुन की हिन्दुवाई देखी
तुरकन की तुरकाई।
कहै कबीर सुनौ भाई साधौ,
कौन राह है जाई।
उन्होंने केवल हिन्दुओं और मुसलमानों का ही नहीं, जैन, शाक्त, नाथ और सूफी मतों का भी खण्डन किया है। साथ ही साथ इन मतों का प्रभाव भी उनके विचारों में स्पष्ट देखा जा सकता है। कबीर में कहीं सर्ववाद तो कहीं एकेश्र्वरवाद, कहीं अद्वैतवाद तो कहीं द्वैतवाद, कहीं पर द्वैताद्वैत तो कहीं विलक्षणवाद, कहीं शून्यवाद या सहजवाद दिखाई देता है। तात्पर्य यह है कि वे सब कुछ हैं और कुछ भी नहीं हैं, यही विलक्षणता कबीर को अन्य मतावलंबियों से अलग करती है।
कभी कबीर हमें सूफियों के प्रेम की पीर में तड़पते नजर आते हैं तो कभी अद्वैत वेदान्त की भांति मायावाद के मकड़जाल में मस्त योगी से बने रहते हैं। कभी वे वैष्णव भक्तों की तन्मयता में डूबे नजर आते हैं तो कभी नाथ योगियों की जमात में अलख जगाते दिखाई देते हैं। रांगेय राघव “लोई का ताना’ में कहते हैं- “वे पहले अवतारवाद को मानते थे। उसके पश्र्चात वे निर्गुण की ओर झुके, फिर योगियों के रहस्यवाद और षट्चा साधना की ओर। बाद में वे सहज साधना में चमत्कारवाद से आगे बढ़ गए। अन्त में तो वे एक नयी भूमि पर पहुंच गए… कबीर में सूफी मत, वेदान्त, रहस्यवाद आदि अनेक बातें हैं, जैसे संसार की असारता पर जोर, मायावाद आदि का वर्णन, पर यह अनेक विकास की मंजिलें हैं, वे धीरे-धीरे आगे बढ़ गए हैं।’
कबीर की यह विकास-यात्रा उन्हें कट्टरवाद से अलग करती है। आधुनिक हिन्दी साहित्यकारों में प्रेमचन्द ने कबीर के सामाजिक विचारों को सहेजने का सफल प्रयास किया है। शायद इसीलिए वे कथा साहित्य के अमर शिल्पी हो सके।
आज कबीर की सामाजिक चिन्ताएं, उनकी अवधारणाएं बेहद सामयिक और अनिवार्य हो उठी हैं। प्रेमचन्द के अधिसंख्य पात्र कबीर के हरिजन अथवा दलित वर्ग के ही हैं। चाहे गोदान के होरी और गोबर हों या कफन के घीसा या पूस की रात के हलकू।
कबीर के प्रमुख आलोचक माने जाने वाले डॉ. धर्मवीर भारती भी इस सच्चाई को स्वीकार करते हैं। वे लिखते हैं- भारत के श्रमिक समाज की परेशानी शिक्षा का अभाव है। इस देश के लिखित धर्म शास्त्रों द्वारा श्रमिक समाज के लोगों को जबरन शिक्षा से वंचित रखा गया है।
डॉ. धर्मवीर कबीर को अपने युग का सर्वाधिक शिक्षित व्यक्ति मानते हैं। वे लिखते हैं- कबीर अपने युग के सबसे अधिक शिक्षित व्यक्ति थे। उस युग में उनके बराबर पढ़ा-लिखा और समझदार व्यक्ति मिलना कठिन था।
सच तो यह है कि इस दलित वंचित समाज को जगाने व संगठित करने का कार्य कबीर ने ही प्रारंभ किया था। हिन्दू और मुसलमान इसीलिए उन्हें अपनाने के लिए लालायित थे। आज कबीर सर्वाधिक स्पृहणीय और पठनीय हैं।
आज हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे का घर जलाने में लगे हैं, मगर कबीर तो अपना घर जलाकर ही परमतत्व के निकट पहुंचना चाहते हैं-
“कबिरा खड़ा बाजार में लहैं लुकाठा हाथ।
जो घर जारें, आपना, चलै हमारे साथ।’
परमात्मा से अनन्य प्रेम, प्राणीमात्र के प्रति सद्भाव रखना, मनुष्य मात्र को एक ही परमपिता का अंश मानना आदि उनके दर्शन व सामाजिक आस्तत्व का आधार था। वे मानवतावादी धर्म के सर्वोत्कृष्ट व्याख्याता व अनुयायी थे। काश! हम सब उनकी सदाशयता के कायल हो सकते तो आज भारत ही नहीं बल्कि विश्र्व का नक्शा ही कुछ दूसरी विधि का होता।
– डॉ. दुर्गाप्रसाद शुक्ल “आजाद’
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