कुरुक्षेत्र की पवित्र एवं कर्म प्रधान-भूमि में धर्मरथ रथी पांडवों एवं अधर्म रूपी रथ में आरूढ़ कौरवों के मध्य छिड़े युद्ध में अभूतपूर्व अतिरथी पितामह ने बाणों की शय्या पर लेटे हुए अपने अंतिम समय में भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए अश्रुपूरित नेत्रों से कहा कि “”हे प्रभु! मुझे उस समय आपके मुख-मण्डल की बहुत याद आती है, जब युद्ध के मैदान में आप अर्जुन के रथ को लेकर इधर-उधर दौड़ रहे थे। आपके मुख पर लहराते हुए घुंघराले बाल घोड़ों की टाप की उड़ती हुई धूल से मटमैले हो गये थे और श्रम के कारण निकली हुई पसीने की छोटी-छोटी बूंदें मुख-मण्डल पर शोभायमान हो रही थीं। उस समय ऐसा लग रहा था कि प्रभु का मुख-मण्डल ही नीला आकाश है और छोटी-छोटी पसीने की बूंदें कण ही तारे हैं। मैं अपने तीखे-बाणों से उनकी त्वचा को बींध रहा था। उन सुंदर कवच मण्डित भगवान श्रीकृष्ण के प्रति मेरा शरीर, अंतःकरण और आत्मा समर्पित हो जाय।”
युधि तुरग रजो विधूम्र विवूक,
कच लुलित श्रम वार्यलङ्कतास्ये।
मम निशित शरैर्विभिद्य मान,
त्वचि विलसत्कवचे ऽस्तु कृष्ण आत्मा।। (श्री.भा. 1.9.34)
पितामह भीष्म ने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण अपने मित्र अर्जुन की बात सुनकर तुरंत ही रथ को पांडव और कौरव सेना के बीच में ले आये और वहां पर स्थित होकर अपनी दृष्टि से ही शत्रु-पक्ष के सैनिकों की आयु छीन ली। उन पार्थ-सखा भगवान श्रीकृष्ण में मेरी प्रीति हो।
इस लीला पर श्रीमद्भागवत के टीकाकारों का भाव है कि प्रभु को समदर्शी कहा गया है और संपूर्ण जीवों के ऊपर समान भाव रखने वाले प्रभु ने ऐसा क्यों किया कि कौरवों की सेना की आयु हर कर पाण्डवों का पक्ष लिया है। टीकाकारों का मत है कि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं श्रीमद्भागवत गीता में कहा है कि “”धर्म संस्थापनार्थाय, संभवामि युगे-युगे।।” धर्म की रक्षा करने के लिये, धर्म की स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में अवतार लेता हूं।
अतः यहां पर प्रभु ने पाण्डवों का पक्ष नहीं, बल्कि धर्म को विजय श्री दिलाने के लिए धर्म का पक्ष लिया है और वास्तव में पाण्डवों में सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर भी साक्षात धर्म के अवतार थे।
दूसरा भाव यह भी है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना मित्र बनाया है और संकट के समय मित्र का पक्ष लेना मित्र का परम कर्त्तव्य है। आगे पितामह भीष्म कहते हैं कि अर्जुन ने जब दूर से कौरवों की सेना के मुखिया हम लोगों को देखा तो पाप समझकर अपने स्वजनों के वध से विमुख हो गया। उस समय उन्होंने श्रीमद्भागवद् गीता के रूप में आत्मविद्या का उपदेश करके अर्जुन के सामयिक अज्ञान को नाश कर दिया, उन परम परमात्मा श्रीकृष्ण के चरणों में मेरी प्रीति बनी रहे।
प्रभु की इस लीला का भाव टीकाकारों ने बताया है कि उस समय पितामह भीष्म ने श्रीमद्भागवद् गीता के उपदेश को याद इसलिए किया कि जिस प्रकार से अर्जुन का मोह नष्ट हुआ और अर्जुन ने निष्काम भाव से प्रभु को हृदय में विराजमान कर युद्ध करना प्रारंभ कर दिया, तो इसी प्रकार का भाव पितामह भीष्म के हृदय में भी पैदा हो रहा है कि हमारी मति निष्काम भाव से प्रभु के चरणों में लगी रहे और प्रभु हमारी आत्मा में विराजमान रहें।
आगे पितामह भीष्म कहते हैं कि हे प्रभु! आप का यह कथन आज हमने सत्य पाया कि आप का भक्त स्वतंत्र है और आप भक्त के पराधीन हैं। उन्होंने कहा कि मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्ण को शस्त्र ग्रहण कराकर छोड़ूंगा, और प्रभु आपने प्रतिज्ञा की थी कि मैं शस्त्र नहीं उठाऊँगा। अंततः प्रभु आपने अपने भक्त की बात को सिद्ध करने के लिए अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ दिया, क्योंकि किसी भक्त ने आपके लिए लिखा है कि “”अपना मान टले टल जाये, पर भक्त का मान न टलते देखा।” जिस समय मैंने बाणों की वर्षा करके अर्जुन के रथ को ढंक दिया था और अर्जुन उस समय हमारी स्फूर्ति की प्रशंसा भगवान से कर रहा था कि प्रभु देखो तो दादा भीष्म का शरीर वृद्धावस्था का शरीर है, किंतु कितनी स्फूर्ति है। उधर प्रभु ने देखा कि भीष्म पितामह ने बाणों की वर्षा कर दी है तो प्रभु से रहा नहीं गया और वे रथ से कूद पड़े और जिस तरह जंगल का राजा सिंह हाथी को मारने के लिए उस पर टूट पड़ता है, वैसे ही रथ का पहिया लेकर प्रभु मुझ पर टूट पड़े। संसार के देखने में तो वह रथ का पहिया था, परंतु प्रभु के हाथ में आते ही वह रथ चा सुदर्शन-चा बन गया। उस समय वे इतने वेग से दौड़े कि उनके कंधे का दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी कांपने लगी।
स्व निगमयह्यय मत्प्रतिज्ञा,
मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः।
धृतरथ चरणोऽश्ययाच्चलद्गु र्द्वरि रिव हन्तुमिम गतोत्तरीयः।।
(श्री म.भा. 1,9,37)
पितामह भीष्म ने कहा कि मुझ आततायी ने तीखे बाण मार-मारकर उनके सारे शरीर का कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था। अर्जुन के रोकने पर भी वे बलपूर्वक मुझे मारने के लिए मेरी ओर दौड़े आ रहे थे।
इस लीला में टीकाकारों का मत है कि जब भगवान का शरीर पंच-तत्व (पृथ्वी, जल, तेल, वायु, आकाश) से रहित है तो प्रभु के शरीर से रक्त कहॉं से निकला? इस पर टीकाकारों का मत है कि महाभारत के युद्ध को देवता भी आकाश से देख रहे थे और रक्त पुष्पों की वर्षा हो रही थी। वे पुष्प आकर के प्रभु के शरीर से लिपट गये थे और ऐसा लग रहा था कि रक्त की बूंदों से शरीर लथपथ हो गया।
दूसरा भाव यह भी टीकाकारों ने लिखा है कि पितामह भीष्म को उस समय भयंकर ाोध आ रहा था, ाोधावेश से उनकी आँखें लाल हो रही थीं और उन्हें प्रभु के शरीर में रक्त ही रक्त दिखाई दे रहा था। तीसरा भाव टीकाकारों ने यह भी बताया कि अर्जुन के शरीर में बाण लगने से रक्त निकल रहा था, कुछ बाण घोड़ों के शरीर पर लगे, जिससे रक्त निकला और वह रक्त की बूंदें प्रभु के शरीर पर पड़ गयी थीं, पितामह भीष्म ने कहा, ऐसे प्रभु जो रथ चा लेकर मुझे मारने के लिए दौड़े आ रहे थे और ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्त वत्सलता से परिपूर्ण थे, वे ही प्रभु श्रीकृष्ण मेरी एक मात्र मति हों – एक मात्र मेरे आश्रय हों।
– मृदुल कृष्ण महाराज
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