हिन्दुओं के चार धामों में से एक गुजरात की द्वारिकापुरी मोक्ष तीर्थ के रूप में जानी जाती है। पूर्णावतार श्रीकृष्ण के आदेश पर विश्र्वकर्मा ने इस नगरी का निर्माण किया था। यहॉं का द्वारिकाधीश मंदिर, रणछोड़ जी मंदिर व त्रैलोक्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक शारदा पीठ यहीं है।
कंसवध के बाद उसकी पत्नी अस्ति व प्राप्ति ने अपने पिता, मगध के राजा जरासंध को श्रीकृष्ण से बदला लेने के लिए उकसाया। जरासंध ने श्रीकृष्ण के साथ-साथ समस्त यदुवंशियों से पृथ्वी को विहीन करने का संकल्प ले लिया और यदु-राजाओं की राजधानी मथुरा पर आामण किया। श्रीकृष्ण और बलराम ने युद्ध करते हुए जरासंध की सेना का वध कर डाला। हार से पीड़ित जरासंध अपनी नगरी को लौट गया।
जरासंध ने कुल सत्रह बार मथुरा पर आामण किया और प्रत्येक बार श्रीकृष्ण के हाथों पराजित हुआ। जब वह अट्ठारवीं आामण की तैयारी कर रहा था, उसी समय काल्पवन नामक यवन राजा को स्वयं नारद ने मथुरा पर आामण करने की प्रेरणा दी। जरासंध और काल्पवन के ाोध से यदुवंशियों की रक्षा करने के लिए श्रीकृष्ण ने सागर के बीच में द्वारिका नामक अजेय दुर्ग के निर्माण की योजना बनायी। द्वारिका नगरी का निर्माण होने पर श्रीकृष्ण ने मथुरा के सभी नागरिकों को वहॉं भेज दिया और बलराम को नगर प्रमुख बनाकर उनकी रक्षा का दायित्व सौंप दिया था।
सागर के मध्य द्वारिका का निर्माण कराने की बात कोई कल्पना नहीं है बल्कि बड़ौदरा मंडल के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीक्षण पुरातत्वविद की तरफ से द्वारिकाधीश मंदिर के गेट पर लगाये गये बोर्ड पर साफ लिखा है कि बेट द्वारिका के पास अरब सागर के गर्भ में छिपे प्राचीन द्वारिका का अस्तित्व हाल के शोधों से ज्ञात हुआ है। द्वारिकाधीश या रणछोड़ जी का मंदिर आठवीं व दसवीं शताब्दी के बीच निर्मित हुआ माना जा रहा है। एक मान्यता यह भी है कि मंदिर का निर्माण भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र ब्रजनाथ ने किया था। कालांतर में इसके स्वरूप में परिवर्तन होते रहे। मंदिर के मौजूदा स्वरूप का निर्माण गुजरात के चालुक्य राजवंश की कलाशैली को दर्शाता है। इस कला शैली में गर्भगृह, अंतराल, रामामंडप व मुखमंडप का निर्माण प्रमुख है। मंदिर का शिखर 52 मीटर ऊँचा है और मंदिर में 72 अलंकृत स्तंभ हैं। यह मंदिर पांच तलों का है और प्रत्येक तल में आगे की ओर निकले विभिन्न आकृतियों के झरोखे बने हुए हैं।
मंदिर की एक बड़ी विशेषता यह है कि यह गोमती नदी के सागर में संगम के स्थल के निकट है। यहां रंगम नारायण, वसुदेव, गऊ, पार्वती, ब्रह्म, मुरधन, गंगा हनुमान व निष्पाप नाम के बारह घाट बने हुए हैं। ऐसी मान्यता है कि गोमती में स्नान किए बिना मंदिर के दर्शन करने पर आधा ही पुण्य मिलता है। नदी से 56 सीढ़ियां चढ़कर रणछोड़जी के मंदिर में पहुंचा जाता है। मंदिर में द्वारिकाधीश या रणछोड़ महाराज चांदी के सिंहासन पर सोने के मुकुट व मालाओं के साथ विराजमान हैं। एक मीटर ऊँची यह प्रतिमा काले आरज पहाड़ के पत्थर से बनाई गई है। इसमें भगवान कृष्ण का चतुर्भुजीय स्वरूप देखने को मिलता है। प्रतिमा और उसका श्रृंगार इतना सुंदर है कि भक्त बस देखते ही रह जाते हैं।
द्वारिकाधीश के दर्शन लगभग दस फुट की दूरी से किए जाते हैं। मंदिर की एक विशेषता यह भी है कि द्वारिकाधीश के विभिन्न तरह के श्रृंगार निश्र्चित समय पर खुले रूप से किये जाते हैं। प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु अपनी आंखों से दिव्य-श्रृंगार होते देखते हैं। मुख्य मंदिर के चारों तरफ परिामा करने के लिए खुला स्थान है। मंदिर परिसर में ही वेणी माधव पुरुषोत्तम जी, देवकी आदि के मंदिर हैं और आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदापीठ भी मंदिर परिसर में ही है। स्कंदपुराण में श्री द्वारिका महात्म्य का वर्णन है। उसके अनुसार द्वारिका को कुशस्थली नगरी भी कहा जाता है। इसमें सबको मोक्ष देने वाले भगवान् श्रीकृष्ण सोलह कलाओं से परिपूर्ण होकर विराजमान हैं। द्वारिका की यात्रा करने पर सभी पाप नष्ट होते हैं और पितृगणों को भी मुक्ति मिलती है।
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