रमणू अभी-अभी गाय-भैंस चराकर लौटा ही था कि अम्मा ने दुअन्नी देकर नमक तथा गुड़ लाने के लिए लाला की दुकान पर दौड़ा दिया। रमणू भाई-बहनों में सबसे बड़ा था। उसे मदरसे का मुँह देखना नसीब नहीं हुआ। उसके हिस्से में गाय, भैंस तथा खेतीबाड़ी का काम ही आया। दिमाग का धनी रमणू जब अपने छोटे भाई-बहनों के साथ हिन्दी के स्वर-व्यंजन तथा पहा़ड़े तोते की तरह रटता, तो ऐसा लगता, जैसे वह कक्षा में मास्टर जी के सामने गर्व से सिर उठा कर सुना रहा हो। वह अपने भाई-बहन का पाठ उनसे पहले ही याद कर लेता था। कभी-कभी तो इसी बात पर उसके भाई-बहन चिढ़कर बापू से उसकी शिकायत कर उसे डॉंट भी पिला देते थे।
रमणू दुअन्नी हाथ में पकड़ कर लाला की दुकान पर खड़ा हो गया। सेठ दुनीचंद अपने नौकर के साथ वहां सामान लेने आया था। सेठ ने सामान का थैला नौकर के सिर पर रखा और अपनी जेब से सौ का नोट निकाला। रमणू ने पहली बार सौ रुपये का नोट देखा था। इत्ता बड़ा नोट! वह और भी उच्चक कर नोट को देखने लगा। सेठ ने रमणू की आँखों की भाषा पढ़ ली। उसने रमणू के हाथ में नोट को पकड़ाया और ठहाका लगाकर हॅंसने लगा।
यह कितने का नोट है? रमणू ने हैरान होकर सेठ से पूछा।
ओ रमणुआ यह एक सौ रुपये का नोट हैै। देख लिया? लाला ने अपने टूटे-फूटे दॉंतों की बतीसी दिखाते हुए नोट लेने के लिए हाथ बढ़ाया। रमणू ने नोट को उलट-पुलट कर देखा और सेठ को लौटा दिया। सेठ ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, लड़के, सौ रुपये कमाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। पहले खूब पढ़ना पड़ता है। फिर नौकरी करनी पड़ती है, तब जाकर कहीं सौ रुपये हासिल होते हैं समझे।
लाला की दुकान से वापस नमक तथा गुड़ लेकर आते रमणू के दिमाग में सौ का नोट ही बसा हुआ था। सौ रुपया कमाने के लिए बहुत मेहनत, पहले खूब पढ़ाई, फिर नौकरी, सेठ के यही वाक्य उसके दिमाग में गूँजने लगे। लेकिन पढ़ाई कैसे, फीस तथा कॉपी-किताबें आदि के लिए पैसे कहॉं से? वह अपने परिवार की खस्ता हालत को जानता था।
वह दूसरे दिन अनमने मन से गाय-भैंस को चराने के लिए गया, पर रास्ते में सरकारी मदरसे में पढ़ते बच्चों को देखकर उससे रहा नहीं गया और वह सीधा कक्षा में मास्टर जी के पास चला गया।
क्या बात है रमणू, तू यहॉं? कहीं तेरी गाय-भैंसें मदरसे में तो नहीं घुस आईं?
नहीं… नहीं… मास्टर जी…। मैं भी पढ़ने आया हूँ। मुझे पढ़ना है। रमणू ने झट से अपने मन की बात मास्टर जी को बता दी। मास्टर ने हिसाब लगाकर पूरे दस रुपये का खर्चा बताया और उसे पहली कच्ची क्लास के छोटे बच्चों के साथ बैठने का आदेश दिया। यह सब जानकर रमणू का उत्साह ठंडा पड़ गया। वह अपनी गाय-भैंस को हो… हो.. कर हॉंकता हुआ ले गया। उसके मन में सौ के नोट की कड़क… पढ़ाई… नौकरी आदि को पाने के लिए उथल-पुथल मची हुई थी।
पढ़ाई की ललक में वह एक दिन किसी को कुछ बताए बिना सुबह-सुबह उठकर पॉंच कोस दूर आने वाली छोटी छुक-छुक रेलगाड़ी में चढ़ गया और पठानकोट से दिल्ली शहर में जा पहुँचा। उसे तो यह भी नहीं पता था कि गाड़ी में चढ़ने का किराया लगता है और टिकट नहीं लेने पर जेल भी जाना पड़ सकता है। भूख-प्यास से बेचैन रमणू छोटे-से पार्क की बेंच पर बैठ अपने सूखे होंठों पर जीभ फेर रहा था। दूसरी बेंच पर बैठकर जोर-जोर से हॉंफ रहे बूढ़े पर उसकी नजर पड़ी, जो अपनी छाती को जोर से दबाए जा रहा था। रमणू ने झट से अपने आँसू पोंछे और बूढ़े की ओर बढ़ा। बूढ़े बाबा ने उसे अंगुली से अपना घर दिखाकर दवा लाने के लिए कहा। रमणू दौड़ा और दरवाजे को ठकठकाया। बुढ़िया ने दरवाजा खोला तो रमणू ने सामने पार्क की बेंच पर पसरे बूढ़े बाबा की ओर इशारा करके सारी बात कह सुनाई। बुढ़िया फौरन दवा के साथ पानी का गिलास लेकर दौड़ी आई। दवा खाने के पश्चात बूढ़े बाबा की हालत में कुछ सुधार आने लगा। उन्होंने रमणू के सिर पर हाथ फेरते हुए उसका नाम पूछा। भूख से तिलमिला रहे रमणू ने नाम तो बता दिया, पर साथ में रात भर भूखे रहने की बात भी कह दी। बुजुर्ग दम्पत्ति रमणू को अपने घर ले आए।
यहीं पर रमणू के जीवन की पगडंडी के स्थिर एवं उत्प्रेरक पॉंव पड़े थे। कुछ ही क्षणों की अनजानी भेंटवार्ता के अबोधपन में वह अपने भीतर को इतने सहजपन और सरलता से उस बुजुर्ग दम्पत्ति के सामने खोलता गया, जैसे वह उसके जन्म-जन्मांतर के अभिभावक हों। इतना ही नहीं, उसने तो बिना किसी लाग-लपेट के सौ रुपये के नोट से लेकर भागकर यहॉं आने के अपने मकसद तक को एक ही सांस में बता दिया। बुजुर्ग दम्पत्ति उसकी इस साफगोई से बहुत प्रभावित हुए। उनका अपना इकलौता बेटा विदेश में ही बस गया था। हर महीने अपने मॉं-बाप को उनकी जरूरत भर के डॉलर भेजकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझता था। बुजुर्ग दम्पत्ति विदेशी बेटे के मोह को त्याग रमणू में ही रम गये। रमणू कहलाने वाला पहाड़ी छोकरा रमण बनकर बुजुर्ग दम्पत्ति के बुढ़ापे का सहारा बन गया। उसने घर पर ही ट्यूटर की मदद से पहले प्राइवेट पॉंचवीं कक्षा, फिर आठवीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास करके दसवीं का इम्तिहान दिया। बुजुर्ग दम्पत्ति हमेशा उसकी पीठ थपथपाते रहे। कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ रमण ने बुजुर्ग दम्पत्ति की सेवा का जिम्मा भी अपने ऊपर ले लिया। लगन के पक्के रमण ने बीएससी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की और सरकारी विभाग में एग्रीकल्चर इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त हो गया।
सृजन का आधार कोई न कोई बीज होता है। बीज से ही जड़ निकल कर तना और फिर सम्पूर्ण वृक्ष बनता है। गॉंव में गाय-भैंसें चराने वाला रमणू अपनी लगन और मेहनत के दम पर उच्च पद हासिल करने में कामयाब रहा। उसने अपनी जड़ों को नहीं भूलाया और न ही लाला की दुकान पर मिली सेठ की प्रेरणा को। अपने संरक्षक बुजुर्ग दम्पत्ति से आज्ञा लेकर गॉंव आया। सबसे पहले वह सेठ दुनीचंद के घर गया और अपनी हजार रुपये की पहली तनख्वाह में मिले सौ-सौ के नोट उनके चरणों में रखकर चरण-स्पर्श किया। सेठ सौ-सौ के नोटों को देखकर हक्का-बक्का रह गया और परेशान होकर सामने खड़े युवक को आश्र्चर्य से देखने लगा। ऐसा लग रहा था जैसे पूछ रहा हो, यह सौ-सौ के नोट कहॉं से आये? शायद उसे उत्तर भी मिल गया कि सेठ जी, यह आपकी नसीहत और मेरी मेहनत का फल है।
– अमर तनौत्रा
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