जिनका ज्ञान उनके आचरण से उजागर होता है, उन्हें आचार्य कहा जाता है। ऐसे आचार्य ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा रखने वाले को साधना का पथ दिखाते हुए, उसे योग्य आचरण की शिक्षा देते हैं। सत् गुरु द्वारा बताये गये पथ पर अग्रसर होकर साधना करना तथा उसी को आचरण में लाना ही आचार्योपासना कहलाता है। साधना और स्वाध्याय से जीवन तथा व्यक्तित्व को पुष्टि मिलती है।
आचार्य गुरुदेव रानडे कहा करते थे, दैवीसत्य का आकलन होने के लिए वह सत्य मानवीय माध्यम से प्रकट होना आवश्यक है। यदि हम चाहते हैं कि यह सत्य की अनुभूति अपने अन्तर्मन में प्रस्फुटित हो, तो जिन्होंने यह अनुभूति ली है, उनकी ओर हमें ध्यान देना चाहिए। शिष्य अपने गुरु से इसे समझने की कोशिश करता है।achayr के पीछे गुरु का असीम प्रेम होता है। गुरु शिष्य को समझ लेते हैं।
कठिन परिश्रम, निश्र्चय और नियमित रूप से साधना के बिना गुरु की अंतरंग स्थिति का आकलन नहीं हो पाता। ज्ञान-प्राप्ति के लिए योग-साधना करने वाला सुयोग्य शिष्य हो, तो गुरु उसके प्रति कुछ कड़ा रुख अपना कर उससे साधना करवाते हैं। अंबुराय महाराज अपनी साधक अवस्था में अपने गुरु संत उमदीकर महाराज के सानिध्य में रहते थे। एक बार वे सर्दी से पीड़ित थे। उन्हें कंबल लपेटे हुए, सर्दी में सिकुड़ते हुए, अपने द्वार पर खड़े देख कर गुरु ने उनसे पूछा, क्या तुम सर्दी से परेशान हो? क्या तुम्हें ठंड लग रही है? जाओ नित्य की तरह साधना कर के सो जाओ।
गुरु की आज्ञा सप्रमाण मानकर अंबुराय ध्यान में मग्न हो गये और कुछ समय पश्र्चात् पसीना छूट कर उनका बुखार उतर गया।
बुखार पर ध्यान देना ही औषधि है, ऐसा सूचित करना इस उदाहरण का अभिमत नहीं है अपितु आचार्योपासना का यह एक अनूठा उदाहरण है। ध्यान योग का मूलमंत्र है। इससे हमें कम से कम अच्छी सेहत में साधना करने की प्रेरणा मिलती है।
– माधवानंद
You must be logged in to post a comment Login