हमारे लिए कार्लाइल की इस उक्ति को शिद्दत से याद करने का समय आ गया है कि वह देश अभिशप्त है जिसे नायकों की ज़रूरत पड़ती है और वह देश उससे भी ज्यादा अभिशप्त है जिसके पास नायक नहीं हैं। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम इन दोनों ही अभिशप्त कोटियों में आते हैं। नायकों के बिना हमारा काम नहीं चलता और आज हमारे पास ऐसे नायक नहीं हैं जो लोगों को प्रेरित कर सकें। यह बात उस देश के लिए सातवें आश्र्चर्य की तरह है जिसके पास पिछले दो सौ वर्षों में न केवल नायकों की कमी नहीं रही, बल्कि उनकी अधिकता ही थी। क्या पचास-साठ वर्षों में इतना फर्क पड़ जाता है कि भारत जितना बड़ा समाज अचानक नायकशून्य हो बैठे? हमारा सांस्कृतिक जीवन इतनी जल्द बंजर कैसे हो उठा? इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि इस शून्य के प्रति हमारे समाज में कहीं कोई चिंता नहीं दिखाई दे रही है। इसे संवेदनहीनता की पराकाष्ठा कहा जा सकता है।
यूरोप और अमेरिका में अगर आज नायक नहीं हैं, तो यह भी कम चिंता की बात नहीं है। ये महादेश प्रगति की एक विशेष सीमा पार कर चुके हैं और उनका संघर्ष इस बात के लिए है कि इस जीवन स्तर को कैसे बनाए रखा जाए। लेकिन आज से सिर्फ दस वर्ष पहले क्या इस बात की कल्पना की जा सकती थी कि अमेरिका जैसा अमीर देश भी खाद्य संकट का शिकार हो सकता है? स्पष्ट है कि ये समाज भी खतरे के बिन्दु से गुजर रहे हैं। यही कारण है कि अमेरिका जैसा देश, जो एक जमाने में उपनिवेशवाद का विरोधी था, आज स्वयं उपनिवेशवादी की निंदनीय भूमिका में आ गया है। साम्राज्यवाद को उसने अपनी विश्र्व नीति का अनिवार्य हिस्सा बना रखा है। इतनी गंदी चीज चल पा रही है और विश्र्व स्तर पर इसका कोई संगठित विरोध नहीं हो पा रहा है, यह आज के कमजोर और नीतिविहीन विश्र्व पर एक सख्त टिप्पणी है।
स्पष्ट है कि पश्र्चिमी समाज आर्थिक, राजनीतिक और नैतिक संकट से गुजर रहा है। एक जमाने में माना जाता था कि पश्र्चिमी संस्कृति ही दुनिया का भविष्य है। यही कारण है कि सभी विकासशील देशों ने इसी संस्कृति को अपनी विकास नीति का आधार बनाया। लेकिन आज हम पाते हैं कि स्वयं पश्र्चिमी संस्कृति ही अपनी चुनौतियों से जूझ नहीं पा रही है। उसने अपनी समस्याओं के समाधान के लिए जिस साम्यवादी मॉडल का विकास किया, वह अपने अंतर्विरोधों से ध्वस्त हो गया। कायदे से उसका स्थान लेने के लिए किसी बेहतर मानववादी व्यवस्था को उभरना चाहिए था, पर पश्र्चिमी दुनिया एडम स्मिथ के जमाने में वापस लौटने के लिए बेकरार है। जिस विचारधारा को इतिहास के घूरे पर फेंक दिया गया था, क्या वह पश्र्चिमी समाजों को उनके वर्तमान संकट से उबार सकती है?
ध्यान देने की बात यह है कि चूंकि पश्र्चिम ही आधुनिक विश्र्व का नेतृत्व कर रहा है और वह स्वयं नायकविहीन हो चुका है, तो इसका असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा। यह सिर्फ भूमंडलीकरण का मामला नहीं है। मामला यह है कि विश्र्व का पुनर्निर्माण किस तरह किया जाए कि हमारी धरती सुरक्षित रह सके, प्रदूषण पर्यावरण को नष्ट न कर डाले, भूख तथा गरीबी को इतिहास की वस्तु बनाया जा सके तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में धर्म और नीति का तत्व आ सके। अगर इस दिशा में पश्र्चिम पहल नहीं कर सकता, तो यह उम्मीद दुनिया के किसी अन्य इलाके से नहीं की जा सकती। कम से कम इस समय तो यही स्थिति है।
यह बात कड़वी लग सकती है, लेकिन इसकी वास्तविकता से इनकार नहीं किया जा सकता। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के बाद गहरी उम्मीद पैदा हुई थी कि एशिया और अफ्रीका एक नई संस्कृति के साथ उभरेंगे और विश्र्व को एक नई दिशा देंगे। यह जमाना जवाहरलाल नेहरू, माओ त्से तुंग, मार्शल टीटो और कर्नल नासिर जैसे करिश्माई नेताओं का था। निर्गुट आंदोलन से भी अनेक लोग बड़ी-बड़ी उम्मीदें कर रहे थे। लेकिन 1980 का दशक आते-आते सब कुछ भहरा गया। एशिया-अफ्रीका का अंधकार और गाढ़ा हो गया। न केवल सभी प्रकार के आदर्शों को विदा कर दिया गया, बल्कि स्वार्थ साधन ही एकमात्र मूल्य बन गया। भू-मंडलीकरण की प्रिाया इस कोढ़ में खाज का काम कर रही है। आज जो समाज भूमंडलीकरण से जितने ज्यादा प्रभावित हैं, वे उतने ही कठिन संकट से गुजर रहे हैं। भारत इसका अपवाद नहीं है। यह दुनिया का अकेला देश है, जिसका प्रधानमंत्री एक जाना-माना अर्थशास्त्री है। इससे कम से कम इतना तो होना ही चाहिए था कि हम अपनी मूलभूत आर्थिक समस्याओं के समाधान की ओर बढ़ रहे होते। अगर ऐसा नहीं हो पा रहा है तो उस आधुनिक अर्थशास्त्र की वैधता पर संदेह करने का ठोस कारण है जिस पर हमारा सरकारी आर्थिक चिंतन आधारित है।
जयप्रकाश नारायण भारतीय समाज के आखिरी नायक थे, जिसने वर्तमान व्यवस्था के मुख्य बिंदुओं पर पुनर्विचार करने के लिए देश के एक बड़े हिस्से को प्रेरित किया। लेकिन यह हवा ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी। जयप्रकाश जी के निधन के बाद जेपी आंदोलन के हर सिपाही को एक अग्निपुंज बन जाना चाहए था और परिवर्तन की लहर को तेज करना चाहए था। लेकिन नये सिपाही बहुत जल्द धीरज खो बैठे और धीरे-धीरे निषिय होते चले गए। कुछ ने तो जयप्रकाश नारायण के बुनियादी उसूलों के खिलाफ काम करना भी शुरू कर दिया। आज राजनीति एक ऐसे गठर में गिर पड़ी है, जिससे उसे निकालने के लिए किसी महानायक की ज़रूरत है। महानायक की ज़रूत इसलिए जान पड़ती है कि साधारण नागरिकों को वह हस्तक्षेप कहीं देखने में नहीं आ रहा है जो हमारी राजनीतिक-सामाजिक प्रिायाओं पर नैतिक अंकुश का काम कर सके। लोग असहाय और दिशाविहीन हैं। उनमें मानवीय सदिच्छा बड़े पैमाने पर मौजूद है, लेकिन किसी सशक्त और प्रेरणादायी नेतृत्व की अनुपस्थिति में यह सिर्फ छटपटा रही है। इस छटपटाहट का कोई व्यावहारिक नतीजा नहीं निकल पा रहा है।
जब समाज में सच्चे नायक नहीं होते, तब झूठे नायकों की बन आती है। यही कारण है कि नायक के नाम पर हमारे पास सिर्फ फिल्म स्टार, खिलाड़ी और उद्योगपति बचे हुए हैं। जो फिल्म स्टार नायक या महानायक का दर्जा हासिल किए हुए हैं, वे किसी भी तरह से पैसा कमाते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। खिलाड़ी अपने को ज्यादा से ज्यादा कीमत पर बेचने में लगे हुए हैं। उद्योगपति ज़रूर उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर रहे हैं, लेकिन वे समाज के रोल मॉडल नहीं बन सकते। कारण उनका मुख्य लक्ष्य अरबपतियों और खरबपतियों की सूची में शामिल होना है, न कि देश के औद्योगिक विकास को इस ऊँचाई पर ले जाना, जहॉं हम अपनी गणना एक विकसित औद्योगिक समाज के रूप में कर सकें। ऐसा लगता है कि एक राष्ट्र के तौर पर हममें कोई रचनात्मक ऊर्जा बची ही नहीं है और हम किसी तरह अपने को घसीट रहे हैं, क्या यह वही भारत है जिसका स्वप्न हमारे तेजस्वी पूर्वजों ने देखा था?
– राजकिशोर
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