वर्ष 2008 के शुरुआत में एक सेमिनार में बोलते हुए जब दिल्ली के राज्यपाल तेजेन्दर खन्ना ने साफ-साफ यह कह दिया कि दिल्ली वाले लोग ट्रैफिक सेंस के मामले में बेहद लापरवाह हैं तो आनन-फानन में उनके विरूद्ध एक मोर्चा खोल दिया गया और उन पर दबाव डाला गया कि वह बिना किसी शर्त के तुरंत अपना बयान वापस लें। लेकिन अगर नेशनल ााइम रिकॉड्र्स ब्यूरो ऑफ इंडिया के रोड एक्सीडेंट्स संबंधी आंकड़े उठाकर देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि तेजेन्दर खन्ना बिलकुल सही कह रहे थे।
न सिर्फ दिल्ली बल्कि समूचे हिन्दुस्तान में लोग ट्रैफिक सेंस को लेकर बेहद लापरवाह हैं। इसका सबूत हैं एक्सीडेंट्स से होने वाली मौतें, जिसमें हम आज दुनिया के सिरमौर बन गए हैं। हमारी सड़कें धीरे-धीरे श्मशान में परिवर्तित होती जा रही हैं। सड़कों पर सालाना मौतों का आंकड़ा 1 लाख से ऊपर पहुंच चुका है और घायलों की तादाद 10 लाख का आंकड़ा छू रही है। आश्र्चर्यजनक ढंग से सड़क हादसों में इस कदर बढ़ोत्तरी हुई है कि हर साल आतंकवाद और आपराधिक कारनामों के जरिए जितने लोगों की मौत होती है उससे दोगुने से भी ज्यादा अकेले रोड एक्सीडेंट्स में लोग मारे जाते हैं। सन् 2003 में जहां रोड एक्सीडेंट्स के द्वारा जान गंवाने वाले लोगों की तादाद 84,430 थी वहीं सन् 2005 में यह आंकड़ा बढ़कर 98,254, 2006 में 1,05,725 और सन् 2007 में 1,10,000 के ऊपर पहुंच गया। कुल मिलाकर देखा जाए तो सड़कों पर होने वाली मौतों की दर में 8 फीसदी से ज्यादा का सालाना इजाफा हो रहा है जो कई दूसरे क्षेत्रों की विकास दर से काफी ज्यादा है। रोड एक्सीडेंट्स में सबसे ज्यादा जान गंवाने वाले युवा हैं। कुल मौतों में 61 प्रतिशत मौतें 35 साल या उससे कम उम्र के लोगों की होती है।
गौरतलब है कि सन् 2006 के दौरान जहां रोड एक्सीडेंट्स में 1,05,725 लोग मारे गए वहीं इस दौरान हत्या का शिकार होने वाले लोगों की कुल संख्या 32,481 रही यानी रोड एक्सीडेंट्स में मारे गए लोग हत्या के शिकार लोगों के मुकाबले 3 गुना से भी ज्यादा रहे। इसी दौरान विभिन्न आतंकवादी एवं नक्सलवादी वारदातों में देशभर में लगभग 10,000 लोग मारे गए जिनके मुकाबले रोड एक्सीडेंट्स 10 गुना से भी ज्यादा रहे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में रोड एक्सीडेंट्स किस कदर तेजी से बढ़ रहे हैं। रोड एक्सीडेंट्स के मामले में हम आज पूरी दुनिया में सबसे ऊपर हैं। शायद हमारी जगह कोई लेना भी नहीं चाहेगा। हालांकि अभी कुछ साल पहले तक यह स्थिति नहीं थी। सन् 2005 में चीन में रोड एक्सीडेंट्स के जरिए 98,738 लोग मारे गए थे जबकि उस साल भारत में रोड एक्सीडेंट्स में मरने वाले लोगों की संख्या 98,254 थी यानी हम चीन से मामूली ही संख्या में पीछे थे।
लेकिन बहुत ही जल्द हमने चीन को पीछे छोड़ दिया। सन् 2006 में चीन जहां अपने यहां रोड एक्सीडेंट के जरिए होने वाली मौतों के आंकड़े को 98,738 से घटाकर 89,455 पर ले आया वहीं हमने महज एक साल के भीतर अपने यहां रोड एक्सीडेंट के जरिए होने वाली मौतों के आंकड़े 98,254 को बढ़ाकर 1,05,725 तक पहुंचा दिया। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे यहां किस कदर तेजी से रोड एक्सीडेंट्स बढ़ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि 2005 से 2006 के बीच चीन में लोगों ने रोड पर चलना कम कर दिया हो या वहां की सड़कों पर वाहन कम हो गए हों। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। सिर्फ सजगता, अनुशासन और दृढ़ता के जरिए चीन की सरकार ने रोड एक्सीडेंट्स की संख्या को कम किया है। दरअसल, रोड एक्सीडेंट्स का सबसे बड़ा कारण खराब ड्राइविंग, घटिया स्तर की सड़कें और कानून के प्रति लोगों का गैर जिम्मेदार रवैया है। चीन सरकार ने अपने यहां बड़ी तादाद में हो रहे रोड एक्सीडेंट्स से चिंतित होकर ट्रैफिक मैनेजमेंट में सुधार किया। ड्राइविंग स्कूलों पर कड़ी नजर रखी गई और लोगों की ड्राइविंग क्वालिटी को चैक किया गया जिससे चीन की सड़कों पर बहते खून में कमी आई। जबकि दूसरी तरफ हमारे यहां लगातार बढ़ते सड़क हादसों के बावजूद ट्रैफिक मैनेजमेंट पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। ड्राइविंग स्कूलों ने सिर्फ पैसा लेकर लाइसेंस देने का सिलसिला जारी रखा। नतीजा है, बढ़ते रोड हादसे और असमय मौत का शिकार होते लोग।
ट्रैफिक रिसर्च एण्ड इंजरी प्रिवेंशन प्रोग्राम, आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर दिनेश मोहन के मुताबिक, रोड एक्सीडेंट्स को लेकर हमारा किस कदर लापरवाही भरा नजरिया है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां अमेरिका में सरकार के स्तर पर 5 हजार से ज्यादा रोड सेफ्टी प्रोफेशनल कार्यरत हैं वहीं भारत सरकार में ऐसा एक भी प्रोफेशनल नहीं है। सवाल है, हम आखिर अपने यहां तेजी से बढ़ती इन सड़क मौतों को कैसे रोक सकते हैं? रोड ट्रैफिक एक्सपर्ट रोहित बलूजा जो कि इंस्टीट्यूट ऑफ रोड ट्रैफिक एजुकेशन के अध्यक्ष भी हैं, कहते हैं, भारत के पास कोई यातायात नीति नहीं है। हमारी राजनीतिक निर्णय लेने की अक्षमता ने इस संकट को और ज्यादा बढ़ा दिया है। रोड हादसों के गुनहगारों को मिलने वाली नाममात्र की सजा और ज्यादातर मामलों में सजा न मिलने के मामले भी इस तरह के हादसों को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं।
अगर सड़कों को श्मशान होने से बचाना है तो सरकार को जन यातायात की व्यवस्था बेहतर करनी होगी। साथ ही कानूनी शिकंजा भी कड़ा करना होगा। नहीं तो हर गुजरते दिन के साथ हमारी सड़कें खून का दरिया बनती जाएंगी। हमारे यहां बढ़ते रोड हादसों का एक बड़ा कारण बढ़ते वाहन भी हैं। सन् 2002 में जहां देश में कुल वाहन 5,86,83,000 थे वहीं 2006 में इनकी तादाद बढ़कर 7,27,18,000 के पार पहुंच गई थी और इस समय यह संख्या तकरीबन 8,00,00,000 या उससे ज्यादा है। देश में रोड हादसों को लेकर लोगों की लापरवाही का एक कारण इसके लिए मिलने वाली मामूली सजा है। रोड एक्सीडेंट्स में जो अधिकतम सजा हो सकती है वह आईपीसी की धारा 304 (ए) के तहत होने वाली 2 साल की सजा है। जबकि ज्यादातर मामलों में महज कुछ महीनों की ही सजा हो सकती है और चाहे जितना बड़ा रोड हादसा हो जाए, ड्राइवर को तुरंत जमानत मिल जाती है। इस कारण भी रोड एक्सीडेंट्स बढ़ रहे हैं।
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