संसार में मनुष्य को ही नहीं, प्रत्येक प्राणी मात्र को जीने का अधिकार है। किसी भी प्राणी के प्राणों को बलात् लूट लेना हिंसा है। भगवान महावीर ने हिंसा के दो रूप बताएँ हैं- आवश्यक और अनावश्यक। एक गृहस्थ जीवन-यापन के लिए अनावश्यक हिंसा से बच नहीं सकता, किन्तु अनावश्यक हिंसा को रोक सकता है। जिस हिंसा के बिना जीवन चल सकता है, वैसी हिंसा से मनुष्य की क्रूरता प्रकट होती है। संसार में पर्यावरणीय न्याय चलता है। बड़े जीव छोटे जीवों का भक्षण करते हैं। शक्तिशाली पशु दुर्बल पशुओं का वध कर अपना पेट भरते हैं। किन्तु जब मनुष्य अकारण किसी जीव की हत्या करता है, प्राण वियोजन करता है तो वह मानवीय वृत्तियों से हटकर दानवीय वृत्तियों को पोषण देता है। आज मानव के मन में करुणा का स्रोत सूखता जा रहा है। प्रेम, सौहार्द व सदाचार की भावना प्रतिदिन घटती जा रही है।
वर्तमान युग में अपराधों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इनमें जघन्य अपराध है- भ्रूणहत्या। इसका मुख्य कारण है- इच्छित संतान, जो आधुनिक शिक्षित व सभ्य समाज की पहचान बन गई है। इस मंजिल तक पहुँचने के लिए वैज्ञानिक आविष्कार अनन्य सहयोगी बने हैं। परिणाम स्वरूप शिशु का लिंग-परीक्षण कराना व अनचाही संतान से छुटकारा पाना आज के युग में सहज हो गया है। जन-संख्या नियंत्रण को प्राथमिकता देने वाली सरकार ने जबसे भ्रूण-हत्या को कानूनी वैधता प्रदान की है, तब से विश्र्व में भूण-हत्याओं का क्रूर व्यापार निर्बाध गति से बढ़ रहा है। भगवान महावीर, बुद्ध व महात्मा गांधी जैसे नायकों के अहिंसा प्रधान देश में हिंसा का नया रूप भारतीय संस्कृति का उपहास है।
भारत वर्ष में लगभग दो दशक पूर्व भ्रूण-परीक्षण पद्धति की शुरुआत हुई, जिसका नाम है-एमिनो सिंथेसिस। इसका उद्देश्य है गर्भस्थ शिशु के क्रोमोसोमों के सम्बन्ध में जानकारी हासिल करना। यदि इनमें किसी भी तरह की विकृति हो, जिससे शिशु की मानसिक व शारीरिक स्थिति बिगड़ सकती हो, तो उसका उपचार करना। किन्तु पिछले दस वर्षों से यह उद्देश्य बिल्कुल बदल गया है। आज अधिकांश माता-पिता गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य की चिंता छोड़कर भ्रूण-परीक्षण केन्द्रों में यह पता लगाते हैं कि गर्भस्थ शिशु लड़का है अथवा लड़की। यह कटु सत्य है कि लड़का होने पर उस भ्रूण के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाती है, किन्तु लड़की की इच्छा न होने पर उस भ्रूण से छुटकारा पाने की प्रिाया अपनायी जाती है। उस भ्रूण की चीत्कार अनसुनी कर दी जाती है।
माँ चाहे मुझे प्यार न देना,
चाहे दुलार न देना।
कर सको तो इतना करना,
जन्म से पहले मार न देना।।
कौन सुनता है, इसकी दर्दभरी पुकार को। माता ममतामयी कहलाती है। करुणा की मूर्ति मानी जाती है। उसी मॉं का नाम जब हत्या के साथ जुड़ जाता है, तो आश्र्चर्य होता है। हत्या भी किसकी? अपने ही खून की!
देवी स्वरूप, निःस्वार्थ भाव से अपनी सुख-सुविधाओं का बलिदान करने वाली मां अजन्मे शिशु को मारने की स्वीकृति कैसे दे सकती है? क्या उस बच्ची को जीने का अधिकार नहीं है? बेचारी उस बच्ची ने कौन-सा अपराध किया है? यह कृत्य मानवीय दृष्टि से भी उचित नहीं है। प्रत्येक प्राणी जीना चाहता है। जीने के अधिकार से किसी को वंचित करना पाप है। संसार के किसी भी धर्म में भ्रूण-हत्या को श्रेष्ठ नहीं बताया गया है। वैदिक धर्म में ब्रह्म-हत्या से भी अधिक पाप भ्रूण-हत्या को बताया गया है।
यत्पापं ब्रह्महत्यायां द्विगुणं गर्भपातने, प्रायश्र्चितं न तस्यास्ति तस्यास्त्यागो विधीयते
ब्रह्म हत्या से जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात से लगता है। इसका कोई प्रायश्र्चित नहीं है। जैन-दर्शन में भी पंचेन्द्रिय की हत्या करना नरक की गति पाने का कारण माना गया है। आश्र्चर्य है कि धार्मिक कहलाने वाला समाज, चींटी की हत्या से कांपने वाला समाज आँख मूंद कर कैसे भ्रूण-हत्या करवाता है! यह मानव-जाति को कलंकित करने वाला अपराध है। अमेरिका में सन् 1994 में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें डॉ. निथनसन ने एक अल्ट्रासाउंड फिल्म (साईलेंट सीन) दिखाई। कन्या भ्रूण की मूक चीख बड़ी भयावह थी। उसमें बताया गया कि 10-12 सप्ताह की कन्या-धड़कन जब 120 की गति में चलती है, तब बड़ी चुस्त होती है। पर जैसे ही पहला औजार गर्भाशय की दीवार को छूता है तो बच्ची डर से कांपने लगती है और अपने आप में सिकुड़ने लगती है। औजार के स्पर्श करने से पहले ही उसे पता लग जाता है कि हमला होने वाला है। वह अपने बचाव के लिए प्रयत्न करती है। औजार का पहला हमला कमर व पैर के ऊपर होता है। गाजर-मूली की भांति उसे काट दिया जाता है। कन्या तड़पने लगती है। फिर जब संडासी के द्वारा उसकी खोपड़ी को तोड़ा जाता है तो एक मूक चीख के साथ उसका प्राणान्त हो जाता है। यह दृश्य हृदय को दहला देता है।
इस निर्मम कृत्य से ऐसा लगता है, मानों कलियुग की क्रूर हवा से मॉं के दिल में करुणा का दरिया सूख गया है। तभी दिन-प्रतिदिन कन्या भ्रूण-हत्या की संख्या बढ़ती जा रही है। यह भ्रूण-हत्या का सिलसिला इसी रूप में चलता रहा तो भारतीय जन-गणना में कन्याओं की घटती हुई संख्या से भारी असंतुलन पैदा हो जाएगा। इस बात से देश के प्रबुद्ध समाज शास्त्री चिंतित हैं। उनका मानना है कि आने वाले कुछ वर्षों में ऐसी स्थिति आ जायेगी, जिससे विवाह योग्य लड़कों के लिए लड़कियॉं नहीं रहेंगी। अपेक्षा है कि सामाजिक सोच बदली जाए, मानदंड बदले जाए। लड़के और लड़कियों के बीच भेद-रेखा को समाप्त किया जाये। एक कहावत है- लड़का करेगा कुल को रौशन, लड़की है पराया धन। इस प्रकार की भ्रांत धारणाओं के विकसित होने के परिणाम स्वरूप ही कन्या भ्रूण हत्याएं बढ़ी हैं। आज की परिस्थिति में लड़का हो या लड़की, इस बात का महत्व नहीं रहा है। बच्चा चाहे वह लड़का हो या लड़की, उसे शिक्षा व संस्कारों से संस्कारित किया जाना चाहिए। लड़कियों के जन्म से घबराने की अपेक्षा उनके जीवन के निर्माण की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए, यह समाज के लिए अधिक श्रेयस्कर है। संस्कारी और सुयोग्य कन्याओं के सुरभित गुणों से परिवार भी सुरभित बनेगा, जो समाज व राष्ट्र के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। कुछ प्रान्तों में भारत सरकार द्वारा कन्याभ्रूण हत्या पर प्रतिबंध लगाया गया है। जब तक मनुष्य की मनोवृति नहीं बदलेगी, भोगवृति सीमित नहीं होगी, तब तक सही समाधान नहीं मिल सकेगा। नैतिक मूल्यों की स्थापना व अहिंसक चेतना को जगाने के लिए आचार्य श्री तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन के माध्यम से मानव को आचार संहिता दी है। उसमें निरपराध प्राणी की हत्या न करने पर बल दिया गया है। अगर हम एक नियम को जीवन में उतार लेते हैं तो हमारा जीवन सुख-शांति व आनंदमय बन सकता है। अपेक्षा है, जीवन को संकल्पित बनाने की।
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