वक्त के साथ हम बहुत-सी आदतें विकसित कर लेते हैं, जो हमें आरामतलबी के जाल में फॉंसकर उससे बाहर नहीं निकलने देतीं और हमें हमारी क्षमता के अनुरूप तरक्की नहीं करने देतीं। जल्द ही यह आदतें हमारी समझ का अटूट हिस्सा बन जाती हैं और निर्धारित करती हैं कि हम क्या कर सकते हैं व क्या नहीं कर सकते। इस स्थिति में हम कुछ नये के लिए प्रयास भी नहीं करते, क्योंकि हमें डर लगा रहता है असफलता का। आदतें डर बनकर हम पर शासन करती हैं। लेकिन आज आप जहॉं हैं, उससे अगर किसी दिशा में विकसित होना है, तो नाकामी के डर को अलविदा कहना होगा। कोई और रास्ता है ही नहीं।
जो आपने आदतें विकसित की हैं, उनमें कुछ खास खामी नहीं हैं। शायद पहले वह आपके बहुत काम आयी हों, लेकिन अब समय आ गया है कि उन पर पैर रखकर आगे बढ़ें एक ऐसे संसार में- जहॉं उस क्षमता का प्रयोग किया जा सके जिसका अभी तक इस्तेमाल नहीं किया गया है। तमाम मशविरों के बावजूद हर किसी को अपनी डगर खुद चुननी है, जो वह बेहतर कर सकता है, करता है और अक्सर उससे गलतियॉं भी हो जाती हैं। कुछ गलतियों का हो जाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। पंडित जवाहर लाल नेहरू कहा करते थे-
कुछ इस तरह से तय की हैं
हमने ज़िंदगी की मंज़िलें
कि गिर पड़े, गिर कर उठे,
और फिर उठकर चले
लेकिन अगर आप नाकामी को सोचकर डर जाएँगे और सभी गलतियों से बचने के लिए चंद आज़माये हुए रास्तों पर ही चलेंगे, जिनकी आपको आदत पड़ गयी है, तो आप बहुत से अवसर भी खो देंगे। बहुत से लोग, जो कार्यस्थल पर बोरियत महसूस कर रहे हैं, वह डर के मारे अपने हस्तिनापुर से बाहर निकलने की कोशिश नहीं कर रहे। उनका डर उन्हें कुंठित किए जाता है। वह गलतियों के डर से रिस्क नहीं लेना चाहते और उसी खड्ड में फॅंसे हैं जो उन्होंने अपनी आदतों की वजह से तैयार किया था। जो लोग कभी गलतियॉं नहीं करते, वह कभी कुछ नया भी नहीं करते हैं। ‘नो रिस्क, नो गेम’।
अब समय आ गया है कि उन आदतों से छुटकारा पाया जाए जो हमारे लिए हमारा जीवन चला रही हैं। ऐसा करने के लिए सबसे पहले अपनी आदतों की सच्चाई को समझना होगा। वह हमेशा पूर्व की सफलताओं का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। जब एक बार किसी तरीके से सफलता मिल जाती है और दोबारा वही तरीका अपनाने से भी वही नतीजा मिलता है, तो वही तरीका आदत बन जाता है और वह उपयोगी महसूस होता है। उसे छोड़ने में डर लगता है। हमारी आदतें हममें इतना डर भर देती हैं कि हम नई राहों और क्रिएटिव विचारों के लिए प्रयास ही नहीं करते। नये विचार नहीं होंगे तो नया ज्ञान भी नहीं होगा। नया ज्ञान नहीं होगा, तो सफल परिवर्तन तक भी पहुँच नहीं होगी।
सीधी-सी बात है- कुछ अलग करके देखने के लिए अपनी आरामदायक आदतों को छोड़ना होगा और यह तभी मुमकिन है जब हम अपने अंदर से नाकामी का भय निकाल देंगे, उसे अलविदा कह देंगे। आपको डर लगा रहता है कि कुछ नया करने से, जो है कहीं व भी न खो जाए। इस तरह आप यथास्थिति में फॅंसे रहते हैं और तरक्की के अवसर गॅंवा देते हैं।
निर्भय होना है, तो अपने अंदर के अमृत को पहचानो। आप में अमृतरूपी क्षमता ज़बरदस्त है। वह निर्भय होने से प्रकट हो जायेगी। अपने डर को अलविदा कहो, वह दुनिया आपको दिखायी दे जायेगी। अपने हस्तिनापुर को छोड़ो, कई इन्द्रप्रस्थ तुम्हारे इंतज़ार में हैं।
– रौशन सांकृत्यायन
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