मैं और मेरा एक दोस्त दिल्ली यूनिवर्सिटी के कैम्पस कम्पाउंड में स्थित शंकर ऑडीटोरियम में एक सेमिनार अटेंड करने गये थे। हम लोग जल्दी पहुंच गये थे, इस वजह से ऑडीटोरियम के पास की एक चाय की दुकान में खड़े चाय पी रहे थे। वहां यूनिवर्सिटी के तमाम लड़के खड़े थे। कोई चाय पी रहा था, कोई किसी का इंतजार कर रहा था, कोई यूं ही गपशप कर रहा था। दो लड़के जो बिल्कुल हमारे पास खड़े थे और आपस में बातचीत में व्यस्त थे, दूर से एक तीसरे लड़के को आते देख उनमें से एक बोला, आ गया साला एमबीए। हमें लगा कि शायद जो लड़का आ रहा है, वह एमबीए होगा। लेकिन जब वह नजदीक आया और उनसे बातचीत करने लगा तो उनकी बातों से पता चला कि वह तो अभी फ्रेशर है। स्कूल पास करके कॉलेज बस पहुंचा ही है। तो फिर, वे लोग उसे एमबीए क्यों कह रहे थे? हमें लगा कि हो सकता है यह उसके नाम का संक्षेपाक्षर हो। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। यह उलझन इसलिए भी बन गयी, क्योंकि उन दोनों लड़कों ने, जो तीसरे के आने के पहले ही हमारे पास खड़े थे, बातचीत में कई और लड़कों को एमबीए कहा।
उत्सुकता जाहिर करने के बाद एक अन्य लड़के से हमें पता चला कि एमबीए न तो किसी के नाम का संक्षेपाक्षर है और न ही कॉलेज गोइंग छात्रों के बीच बातचीत के दौरान यह जरूरी है कि एमबीए का मतलब डिग्री से ही हो। दरअसल, वहां एमबीए का मतलब था- मां-बाप के पैसों पर ऐश करने वाला। यह एक खास स्थिति को व्यक्त करने वाला बेहद छोटा-सा शब्द है और शायद यह जानकर आपको हैरानी भी होगी कि आजकल के युवाओं के पास ऐसी बड़ी-बड़ी स्थितियों को छोटे-छोटे शब्दों में व्यक्त करने वाली एक भरी-पूरी डिक्शनरी है, जिसका वह खूब धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं।
सिर्फ दिल्ली या मुंबई जैसे बड़े मेट्रो शहरों में ही नहीं बल्कि छोटे-छोटे शहरों में भी युवाओं के बीच यह कटिंग लैंग्वेज धड़ल्ले से लोकप्रिय हो रही है। ग्लोबिश जैसी भाषा के इस दौर में हालांकि इस कटिंग लैंग्वेज के विकास का कोई तयशुदा सिद्धांत नहीं है। फिर भी इसकी एक न्यूनतम सार्वभौमिकता है। इन संकेतपूर्ण शब्दों का मतलब न सिर्फ एक क्षेत्र या इलाके में ही नहीं बल्कि लगभग पूरे भारत में एक ही होता है। इस तरह कहना चाहिए कि इस कटिंग लैंग्वेज की अपनी मान्यता और एकरूपता भी है।
दिल्ली, मुंबई, कोलकाता या हैदराबाद व बेंगलुरू में ही नहीं बल्कि लखनऊ और इलाहाबाद के यूनिवर्सिटीज़ इलाकों में गपशप कर रहे छात्र ऐसी न समझ में आने वाली भाषा में बात कर रहे हों, तो समझ जाएं कि कटिंग लैंग्वेज का वहां भी धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। यह कटिंग लैंग्वेज धीरे-धीरे युवाओं की दुनिया की एक आधिकारिक जुबान-सी बनती जा रही है। युवा दरअसल हर मायने में बहुत जल्दबाज होते हैं। उन्हें इंतजार कतई पसंद नहीं होता। यहां तक कि वह किसी का पूरा नाम भी नहीं लेना चाहते। इसीलिए ज्यादातर स्कूली और कॉलेज छात्र अपने दोस्तों और सहपाठियों के नाम छोटे कर देते हैं। तरुण कुमार टीके हो जाता है और प्रमोद कुमार पीके। लेकिन यह भी पुरानी बात है। नये दौर में सिर्फ नामों का ही संक्षेपीकरण नहीं हो रहा है, बल्कि युवाओं की नयी जुबान में संदर्भित शब्दों, इतिहास-भूगोल और रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाले बहुत सारे विषयों, लोगों, स्थितियों और परिस्थितियों को भी काट-छांटकर बेहद संक्षिप्त और सार्वभौमिक बना दिया गया है।
मसलन, आज दिल्ली में युवा अपने गुजरात के दोस्तों को गुज्जू, पंजाब के दोस्तों को पुज्जू कहकर बुलाना कतई अटपटा नहीं मानते। सच बात तो यह है कि इस कटिंग लैंग्वेज को लेकर वह बड़े सहज होते हैं। मसलन, अगर किसी लड़की को देखकर कोई लड़का उसे बीबीसी कह दे तो कुछ लोगों के लिए यह भले ही एक अजनबी और अर्थहीन शब्द होगा, लेकिन वह लड़की और कोई भी दूसरा युवा आराम से समझ जायेगा कि कहने वाला उसे बहन जी बनी कैट कह रहा है यानी फैशन की दुनिया में बस अभी कदम रख रही है। युवाओं के पास लगभग हर शब्द की शानदार कटिंग है और उसकी कटिंग की कम से कम शहरी भारत में एक सार्वभौमिकता भी स्थापित हो चुकी है। जैसे पटना से लेकर पुणे तक अगर युवाओं द्वारा हैप शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, तो इसका मतलब ऊंची क्लास वाला है। कंफ्यूजियाना अब किसी शरद जोशी जैसे व्यंग्यकार का शब्द नहीं है, अपितु रांची से लेकर राऊरकेला तक धड़ल्ले से इस्तेमाल होने वाला शब्द है। इसी तरह डैम गुड का मतलब है ईमानदार मगर भोंदू। एचएस मतलब हाई स्टैंडर्ड और अगर दो लड़के आपस में बात कर रहे हों और एक कह रहा हो कि तूने इसे पीपी समझ लिया है क्या, तो यह मत समझें कि अपने तीसरे दोस्त पीपी से उसकी तुलना कर रहा है। बल्कि वह यह कह रहा है कि तूने तो मेरी चीज को पब्लिक प्रॉपर्टी मान लिया है यानी पीपी मतलब पब्लिक प्रॉपर्टी।
सवाल है, यह कटिंग लैंग्वेज बनती कैसे है? नहीं, इसमें अंग्रेजी का वर्चस्व जरूरी नहीं है। इस कटिंग लैंग्वेज के बनने, विकसित होने और पहचान पाने के पीछे सबसे बड़ी ताकत है लोकप्रियता। जो शब्द जितना ही लोकप्रिय होगा, वह या उसके संक्षिप्तीकरण के इस कटिंग लैंग्वेज में शामिल होने के उतने ही ज्यादा अवसर हैं। झक्कास, बिंदास, उड़नछू, पटाखा, फुंटी ये कोई अंग्रेजी भाषा के शब्द नहीं हैं, लेकिन कटिंग लैंग्वेज की जान हैं। कटिंग लैंग्वेज में सही मायनों में लोकतंत्र का राज है। जो शब्द जितना ज्यादा लोकप्रिय होगा, वह उतना ही ज्यादा स्वीकार्य होगा चाहे वह किसी भी भाषा का हो। युवाओं के कुछ चर्चित शब्द हैं जैसे पजामा। पजामा का मतलब है ऐसा भोंदू लड़का, जिसे बार-बार समझाने के बाद भी कुछ भी समझ में न आता हो। ऐसा ही एक शब्द है डू डाउट यानी किसी लायक न होना या किसी लायक न लगना।
लेकिन सिर्फ व्यंग्य करने वाले, चिढ़ाने वाले या अप्रत्यक्ष रूप से खाल उतारने वाले शब्द ही इस कटिंग लैंग्वेज में नहीं हैं। अपितु कई गंभीर और प्रभावशाली शब्दों का भी संक्षिप्तीकरण खूब चलन में है। जैसे- कॉलेज के लड़के पूरा यूनिवर्सिटी शब्द बोलने की जहमत नहीं उठाते सिर्फ यूनिव कहना ही गवारा करते हैं। इसी तरह लाइब्रेरी के लिए लिब, ग्रेट के लिए ग्रेटो, ब्रदर के लिए ब्रो और जस्ट लाइक दैट जैसे फ्रेज़ की कटिंग करके उसे जेएलटी बना देते हैं। इस कटिंग लैंग्वेज में छेड़ने और फब्तियां कसने का अंदाज भी शानदार होता है। किसी स्मार्ट लड़के की तारीफ करनी हो तो उसे ड्यूड, युम या स्टड कहते हैं। किसी की खूबसूरती की तारीफ करनी हो तो बीए बहुत है। बीए यानी ब्यूटीफुल एंगल। इसी तरह बीएस यानी ब्यूटीफुल स्ट्रक्चर भी तारीफ के लिए वजनदार शब्द है, लेकिन अगर किसी से ऊब होती हो तो उसे युवा अपनी कटिंग लैंग्वेज में कीड़ापट्टी यानी पकाऊ लड़का और पोंची यानी बहुत बनने वाला कहना नहीं भूलते। …और हां, अगर हिंदी अंग्रेजी का संगम देखना हो तो भला फिकर नॉट से बढ़िया शब्द क्या हो सकता है?
– डी.जे. नंदन
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