हमारे समाज में हिंसा की विभीषिका दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। कभी राजनीतिक विचारधाराओं के संघर्ष के कारण, कभी आर्थिक असमानता से उत्पन्न असंतोष, कुंठा, संत्रास और निराशा के कारण। कभी जातीय अगड़ेपन और पिछड़ेपन से उत्पन्न द्वेष भावनाओं के कारण। कभी मजहबी वैचारिक संघर्ष के कारण। कभी महिलाओं के प्रति किए जाते अत्याचारों के कारण, कभी भाषा भेद या प्रान्तीयता के नाम पर, कभी चोरी, छल, कपट, लूट-पाट और गुंडागर्दी के कारण।
यद्यपि हमारे देश में जनतंत्रात्मक शासन व्यवस्था का अत्यंत परिष्कृत संविधान लागू है और हमारे शासनतंत्र के तीनों स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका काफी प्रबल हैं, तो भी हिंसा की विभीषिका समाज को ग्रसित करती जा रही है। इस स्थिति के चंगुल से हमारे समाज को मुक्त कराने के लिए नागरिक स्तर पर क्या किया जा सकता है? यह सोच ऐसे सामाजिक कार्यकर्ताओं में प्रबल होता जा रहा है जो किसी जातीय, मजहबी या राजनीतिक संगठन से जकड़े हुए नहीं हैं और जो अपेक्षाकृत स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं।
हाल ही में केरल की राजधानी तिरुवनन्तपुरम में ऐसे कुछ नागरिकों का एक सम्मेलन गांधी भवन में टी.एन. जयचन्द्रन आई.ए.एस. (सेवानिवृत्त) की अध्यक्षता में आयोजित हुआ। सम्मेलन का आयोजन किया था, “अहिंसा समवाय’ केन्द्र नामक एक स्वैच्छिक संस्था ने। सम्मेलन में करीब सत्तर व्यक्तियों ने भाग लिया। जिसमें स्वतंत्रता सेनानी, लेखक, अध्यापक, सेवानिवृत्त प्राचार्य और प्रमुख गांधीवादी कार्यकर्ता आदि भी थे।
केरल के कन्जूर जिले में आए दिन राजनीति के नाम पर विभिन्न दलों के कार्यकर्ताओं की जो नृशंस हत्याएं हुईं उस पर प्रतिभागियों ने गहरी चिंता प्रकट की। कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि जिन राजनीतिक दलों पर हत्या का आरोप लगाया जा रहा है उन दलों के मुखियाओं से सीधा संपर्क करके उनसे आग्रह किया जाए कि हत्याओं की इस परंपरा को रोकने के लिए वे अपने कार्यकर्ताओं को आवश्यक मार्गनिर्देश दें। यह भी सुझाव आया कि संघर्षग्रस्त केन्द्रों में जाकर वहॉं के युवकों में हिंसा विरोधी भावना जागृत करने का प्रयत्न करें। लघु लेख तैयार करके वितरित करें। पदयात्राएं और नुक्कड़ सम्मेलन आयोजित करके जनता में हिंसा विरोधी चेतना जागृत कराएं। संचार माध्यम के कर्मियों से आग्रह करें कि वे हिंसा विरोधी मनोवृत्ति जगाने में अपनी भूमिका निभाएं।
कुछ प्रतिभागियों ने कहा कि आजकल फिल्मों और टीवी धारावाहिकों में हिंसा के दृश्य बहुतायत में दिखाए जाते हैं। जिनका कुप्रभाव युवकों पर पड़ता है। कुछ युवक इन्हीं का अनुकरण करते हुए कभी दूसरों की और कभी अपनों की ही हत्या कर डालते हैं। अतः फिल्मों और धारावाहिकों के निर्माताओं से आग्रह किया जाए कि वे ऐसे दृश्य अपने फिल्मों, धारावाहिकों में शामिल न करें।
कुछ अध्यापकों का विचार था कि स्कूलों-कॉलेजों के परिसरों में छात्र-संघों के जो कार्यकलाप आयोजित होते हैं उनमें राजनीतिक दलों का इतना प्रभाव रहता है कि कोई छात्र इन कार्यकलापों से अपने को अछूता नहीं रख पाता। मुख्यतः ऐसे छात्र ही इनका नेतृत्व करते हैं जो या तो पढ़ाई में पिछड़े हैं, हिंसात्मक प्रवृत्ति के हैं या अत्यधिक महत्वाकांक्षी हैं। असत्य, भ्रष्टाचार और हिंसात्मक संघर्ष का प्रशिक्षण छात्रों को इन शैक्षिक परिसरों से ही मिलता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि शैक्षिक परिसरों को सिाय राजनीति से और उससे उत्पन्न संघर्षों से मुक्त रखें। भले ही जेएनयू, बीएचयू जैसे कुछ विश्र्वविद्यालयों के परिसरों से बहुत समर्थ नेता उभरकर आते रहे हैं, फिर भी छात्र राजनीति ऐसी हो कि उच्च स्तरीय वैचारिक प्रिाया को और नेतृत्व उत्कृष्ट गुणों को प्रश्रय दे। कुछ प्रतिभागियों ने सुझाया कि हर छोटे-छोटे समूह में कुछ ऐसे कार्यकर्ता तैयार किए जायें जो हिंसात्मक संघर्षों की संभावनाओं को पहले से ही भांपकर उनका निवारण कर सकें। कुछ ऐसी संस्थाएं बनें जो सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं की गलत नीतियों की निष्पक्ष आलोचना कर सकें। सम्मेलन ने एक तदर्थ समिति गठित की जो इस विचार-प्रिाया को आगे ले जा सके।
– के. जी. बालकृष्ण पिल्लै
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