जगन्नाथपुरी रथयात्रा

jagannathpuri-rath-yatraआषाढ़ शुक्ल द्वितीया को सम्पूर्ण भारत वर्ष में रथयात्रा उत्सव का आयोजन किया जाता है। सबसे प्रतिष्ठित समारोह जगन्नाथपुरी में मनाया जाता है। बंगाल की खाड़ी के निकट बसा यह पवित्र स्थान उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्र्वर से आठ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। प्राचीन काल में पुरी को पुरुषोत्तम क्षेत्र एवं श्रीक्षेत्र भी कहा जाता था। ऐसी धारणा है कि कभी यहॉं भगवान बुद्ध का दांत गिरा था, इसलिए इसे दंतपुर भी कहा जाता था। यहां का जगन्नाथ मंदिर अपनी भव्य एवं ऐतिहासिक रथयात्रा के लिए पूरे संसार में प्रसिद्ध है। पश्र्चिमी समुद्र तट से लगभग डेढ़ कि.मी. दूर उत्तर में नीलगिरि पर्वत पर 665 फुट लंबे और इतने ही चौड़े घेरे में 22 फुट ऊँची दीवारों के मध्य स्थित यह प्राचीन एवं ऐतिहासिक मंदिर कलिंग वास्तु-शैली में बना 12वीं सदी का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है। कृष्ण वर्णिय पाषाणों को तराश कर बनाये गये इस मंदिर का निर्माण 12वीं सदी के नरेश चोड़गंग ने करवाया था।

आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से दशमी तिथि तक नौ दिनों की यह रथयात्रा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने वाली है। इसे श्री गण्डिचयात्रा और घोषयात्रा भी कहते हैं। इस रथयात्रा का विस्तृत वर्णन स्कंद पुराण में मिलता है। जहॉं श्रीकृष्ण ने कहा है कि पुष्य नक्षत्र से युक्त आषाढ़ मास की द्वितीया तिथि को युद्ध, समुद्र तथा बलभद्र को रथ में बिठाकर यात्रा कराने वाले मनुष्य की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। इस रथयात्रा महोत्सव में श्रीकृष्ण के साथ श्री राधिका जी न होकर सुभद्रा और बलराम होते हैं।

पुरी में रथयात्रा हेतु तीनों देवताओं के लिए प्रतिवर्ष तीन अलग-अलग नये रथों का निर्माण होता है। रथ के लिए लक़डियॉं इकट्ठा करने का कार्य बसंत पंचमी से शुरू होता है तथा रथ-निर्माण कार्य अक्षय तृतीया से। रथ का निर्माण मंदिर द्वारा चयनित विशेष परंपरागत बढ़ई ही करते हैं। रथ निर्माण में पूर्ण रूप से लकड़ी का प्रयोग होता है, कहीं भी लोहे या कील का प्रयोग वर्जित है।

रथयात्रा आरंभ होने से एक दिन पूर्व ही तीनों रथ मंदिर के मुख्य-द्वार के सामने बने गरुड़ स्तंभ के निकट खड़े कर दिये जाते हैं। रथयात्रा में सबसे आगे लाल और हरे रंग के तालध्वज नामक रथ पर बलभद्र जी विराजमान होते हैं। रथयात्रा के मध्य में लाल और नीले रंग के दर्पदलना अथवा देवदलन नामक रथ पर देवी सुभद्रा विराजमान रहती हैं। सबसे अंत में नन्दीघोष नामक रथ पर भगवान श्री जगन्नाथ रथारूढ़ होते हैं, जो कि लाल और पीले रंग का होता है। रथयात्रा में पोहण्डी बिजे, छेरा पोहरा, रथटण, बहुडाजात्रा, सुनाभेस, आड़प्रदर्शन तथा नीलाद्रिविंज आदि पारंपरिक रीति-रिवाजों को अत्यंत श्रद्धा एवं भक्ति के साथ निभाया जाता है। रथयात्रा उत्सव में सर्वप्रथम सुदर्शन चा को सुभद्रा जी के रथ पर पहुँचाया जाता है। तत्पश्र्चात्, ढोल-नगाड़े और गाजे-बाजों के साथ कीर्तन करते हुए भगवान की मूर्तियों को मंदिर से मस्ती में झूमते-झुलाते हुए रथ पर लाया जाता है, जिसे पोहण्डी बिजे कहते हैं।

जब तीनों प्रतिमाएँ अपने-अपने रथ में विराजमान हो जाती हैं, तब पुरी के राजा पालकी में आकर तीनों रथों को सोने की झाडू से बुहारते हैं, जिसे छेरा पोहरा कहते हैं। इसके उपरांत रथयात्रा आरंभ होती है। सैकड़ों-हजारों भक्तगण रथ को खींचते हैं, जिसे रथटण कहते हैं। तीन मील के बड़दंड की यात्रा कर तीनों रथ सायंकाल तक गुण्डिया मंदिर पहुंचते हैं। जहां 6 दिनों तक भगवान प्रवास करते हैं। 8वें दिन गुण्डिया मंदिर के शरघाबालि मंदिर में तीनों रथों को घुमाकर सीधा किया जाता है। दशमी तिथि को वापसी यात्रा आरंभ होती है, जिसे बहुड़ाजात्रा कहते हैं। वापस आने पर तीनों देवता एकादशी के दिन मंदिर के बाहर ही रथ पर दर्शन देते हैं। भक्तों द्वारा उनका स्वर्ण एवं रत्नाभूषणों से श्रृंगार किया जाता है, जो सुनाभेस कहलाता है। मंदिर से बाहर 6 दिनों के दर्शन को आड़पदर्शन कहा जाता है। द्वादशी तिथि पर रथों पर अधरापणा के पश्र्चात् प्रतिमाओं का मंदिर में पुनः प्रवेश होता है, जिसे नीलाद्रिविंज कहते हैं। जिस विामी संवत् के आषाढ़ मास में मलमास अधिमास होता है, उस वर्ष रथयात्रा उत्सव के साथ एक विशेष उत्सव भी मनाया जाता है, जिसे नवकलेवर उत्सव के नाम से जाना जाता है। इस उत्सव में भगवान जगन्नाथ जी अपने पुराने कलेवर का परित्याग कर नया कलेवर धारण करते हैं अर्थात् पुरानी मूर्तियों की जगह लकड़ी की नयी मूर्तियां बनायी जाती हैं तथा पुरानी प्रतिमाओं को मंदिर परिसर के कोयती वैकुण्ठ नामक स्थान पर भूमि में समाधि दे दी जाती है। श्री जगन्नाथपुरी महोत्सव कुल दस दिनों तक चलता है। यह रथयात्रा संस्कृति और सभ्यता का अनूठा उदाहरण है। रथारूढ़ भगवान श्री जगन्नाथ, देवी सुभद्रा तथा बालभद्र जी के दर्शन मात्र से ही प्राणी जन्म और मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

– कीर्ति

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