कहानी की मांग पर

वो चाहे मल्लिका शेरावत हों, बिपाशा बसु हों या राखी सावंत, ये सब नये जमाने की रूपसियां हैं। उनका व्यक्तित्व अलग-अलग होते हुये भी इन सबमें एक चीज कॉमन है, वो यह कि जब भी इन बदन दिखाऊ अभिनेत्रियों से अंगप्रदर्शन के बारे में बात की जाती है तो उन सबका यही उत्तर होता है कि वह अपनी मर्जी से कुछ नहीं करतीं। वे जो भी दिखाती हैं, कहानी की मांग पर दिखाती हैं।

मतलब यह कि क्या दिखाना है और क्या छिपाना है, यह कहानी तय करती है। अब कहानी पर तो किसी का वश नहीं है, तो हम क्या करें? हम तो पेशेवर हैं, कलाकार हैं। जो निर्देशक कराएगा हमें करना होगा। कितना बढ़िया, कितना सुन्दर और कितना सुपरहिट फार्मूला है, खुद को लांछन से बचाने का? हीरोइनें तो मासूम हैं, लाचार हैं। उनकी तो भारतीय संस्कृति में पूरी आस्था है। वे तो पारिवारिक मूल्यों के प्रति निष्ठावान हैं। यह तो दुष्ट कहानी है जो पर्दे पर दुःशासन की तरह उनके शरीर से कपड़े उतरवा लेती है।

इस स्पष्टीकरण से दो चीजें सामने आती हैं। एक तो इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि फिल्मों में कहानी भी होती है वरना दर्शक तो शुरू से आखिर तक पूरी फिल्म देख लेता है मगर उसे कहानी जैसी कोई चीज ढूंढे नहीं मिलती। यह उसकी समझ के लिये करारा जवाब है। दूसरी बात यह है कि इस कहानी के लिये आज के दर्शक की सोच जिम्मेदार है। हीरोइन तो वही दिखाती है जो निर्देशक दिखाने को कहता है। निर्देशक भी वही सब दिखाने को कहेगा, जो कहानी चाहती है और कहानी का स्वरूप कैसा हो, यह तो अन्तिम रूप से दर्शक ही तय करेगा।

दर्शक ही फिल्म का अंतिम समीक्षक है, वो ही सफल आलोचक है और वही फिल्म का ब्रह्मा-विष्णु-महेश है। तो फिर इस नंगेपन के लिये दर्शक ही जिम्मेदार हुआ न! फिर इस “ओपन कल्चर’ से कष्ट किसको होता है? जाहिर-सी बात है उसी दर्शक को, जो हीरोइन के शरीर से कपड़े उतरवाता है और देखने के बाद सांस्कृतिक मूल्यों के हनन के नाम पर हाय-तौबा मचाता है। इस प्रकार के विरोधाभास की वजह आखिर क्या है? इस बाबत हीरोइन कहती है कि खोट उसके इरादों में नहीं बल्कि खोट तो दर्शक की नीयत में है। वे भले पर्दे पर सब कुछ खोल कर दिखा देती हैं लेकिन उसमें अश्र्लीलता रत्ती भर नहीं होती। उनके अनुसार यह अंग प्रदर्शन भोंडा उन्हें ही नजर आता है जो इतना देखने से भी तृप्त नहीं होते। वे इससे आगे भी कुछ और देखना चाहते हैं। वे और कुछ तो कर नहीं पाते, सो अपनी खीझ मिटाने के लिये हम पर भोंडेपन का आरोप लगाते हैं।

जी हॉं, कहानी का प्रताप ही ऐसा है। यह किसी से भी कुछ करवा सकती है। कहानी इतनी ताकतवर होती है कि हर किसी को अपने इशारों पर नचा सकती है। कहानी आज का बाजार है, कहानी समय की मांग है। हम-आप सब इस कहानी से नियंत्रित होते हैं। इसकी उपेक्षा करने वाला या इसकी धार को मोड़ने वाला विरला ही होता है।

आज जो चारों तरफ यह महंगाई, भूख, गरीबी आदि का बोलबाला है, सारी दुनिया में भ्रष्टाचार, अत्याचार, हिंसा, बलात्कार और आतंकवाद ने पैर पसारे हुये हैं, यह सब उस कहानी का ही हिस्सा है जिसे इस सृष्टि के नियंता ने अपने हिसाब से लिखा है। जरा सोचिये, अगर सारी दुनिया में शान्ति हो जाय, एक देश को दूसरे देश का कोई भय न रहे तो यह रक्षा सामग्री का सारा ताम-झाम, लाखों सैनिक, घातक अस्त्र-शस्त्र और उसके नाम पर अरबों-खरबों के व्यय का क्या औचित्य रह जायेगा। अगर सारे लोग कानून का पालन करने लगें, कहीं कोई अपराध न हो तो सोचिये कि इतनी सारी पुलिस, सुरक्षा एजेन्सियां, कोर्ट, कचहरी, वकील, जज, तमाम ला कॉलेज और मोटी-मोटी कानून की किताबों का क्या मतलब बचेगा? यह सब इस कहानी का अटूट हिस्सा हैं जिसे हमारे भाई लोग, कातिल, बलात्कारी, चोर, डाकू, स्मगलर, घोटालेबाज नेता, गबन करने वाले अफसर और काम के नाम पर जनता की जेब खाली कराने वाले बाबू लोग अपनी कलम से लिखते हैं। ये सब इस कहानी को आगे बढ़ाते हैं, तभी तो नेता लोग जनता से इन अपराधियों तथा गैर कानूनी काम करने वाले लोगों से छुटकारा दिलाने का वादा करते हैं और इसके एवज में वोट प्राप्त करते हैं।

दरअसल इस सृष्टि के नियंता ने ही कहानी में जान डालने के लिये निगेटिव और पॉजिटिव दोनों प्रकार के तत्व डाले हैं। कहानी की मांग पर रावण का जन्म होता है जो राम के जन्म का कारण बनता है। यदि रावण न होता तो राम को पैदा होने का क्या बहाना मिलता? धर्म, अधर्म, शीलता, अश्र्लीलता, लज्जा और बेहयाई, सद्संस्कार या नंगई, सब कहानी की मांग पर चलते हैं। लोकतंत्र में कहानी जनता तय करती है जो जनार्दन का रूप है, उसी तरह जैसे दर्शक की रुचि पर फिल्म की कहानी तय होती है जिसमें हीरोइन कपड़े उतार कर वो सब दिखाती है जो दर्शक चाहता है।

 

– प्रेमस्वरूप गंगवार

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