अनवर शऊर की एक ग़ज़ल

कुछ लकीरें रोज़ नक्शे से मिटा देती है आग

कैसे-कैसे शहर मिट्टी में मिला देती है आग

दिल जो अब इस दर्जा वीरॉं है कभी आबाद था

इश्क है इक आग, क्या से क्या बना देती है आग

जो कली खिलती है क्यारी में जला देती है धूप

जो दीया जलता है धरती पर बुझा देती है आग

एक बच्चा भी मिला झुलसे हुए अफ़राद में

पेड़ के हमराह गुल-बूटे जला देती है आग

याद अव्वल तो अब आती ही नहीं उसकी “शऊर’

और आती है तो सीने में लगा देती है आग

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