आसमान में शोर मचाते
छाये बादल अलबेले
पूरब पच्छम दक्कन उत्तर
रूप बदलते फिरते अक्सर
कभी हैं भूरे कभी ये काले
करते हैं ये जादू मंतर
रहते मिल जुलकर आपस में
कभी नहीं रहते ये अकेले।
ऐसा बरसाते हैं पानी
हो जाती है धरती धानी
बूँदाबांदी कहीं पे बरसे
कहीं पे जनता सारी तरसे
जैसे चीनी घुल जाती है
वैसे घुल जाते हैं ढेले।
आबाद इनके दम से वन
जब आता है झूमके सावन
हरयाली ने डाला डेरा
हर मंज़र लगता है मन भावन
नभ पर जब छाती है धनक
लगे बाग में फूल के मेले।
किसान खुश रहते इनसे
जल बरसाते हैं जब मन से
मोर नाचते शोर से इनके
खुशी लुटाते हैं तन मन से
सावन आते ही गर्मी के
“आरज़ू’ गायब सारे झमेले।
– लतीफ़ “आरज़ू’ कोहीरी
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