ऐसा कम ही होता है कि आप किसी के विवाह में जाएँ और आपका मुँह गालियों से भर जाए। पर आजकल मेरे साथ यही हो रहा है। एक तो आजकल शादियों का सीजन है और लोग थोक के भाव कार्ड छपवा कर बांटने लगे हैं। किसी भी शादी की दावत में चले जाओ, पार्किंग से लेकर खाने की प्लेट तक अनाप-शनाप भीड़ मिलती है। इस भीड़ के संस्कार देखकर तो खून खौलने लगता है। यही कारण है कि शादी की पार्टियों में मेरा मुँह गालियों से भर जाता है लेकिन चाह कर भी मैं एक भी गाली बक नहीं पाती और वे सारी गालियॉं सांस के साथ मेरे भीतर चली जाती हैं और पर्त दर पर्त जमा होती रहती हैं।
आप भी सोच रहे होंगे कि जरूर मुझे पार्किंग करते हुए दिक्कत हुई होगी या खाने की टेबल पर प्लेट लेते समय लम्बी बारी की प्रतीक्षा करनी पड़ी होगी। पर मेरी गालियों की वजह का इन बातों से कोई सरोकार नहीं है। दरअसल हर शादी में देखने को मिलता है कि लोग एक प्लेट लेते हैं और उसे ठूंस-ठूंस कर भर लेते हैं। फिर दो-चार गस्से खाकर इधर-उधर रख देते हैं। डस्टबीन तक जाने की तकलीफ कौन करे? और जो स्वयं को ज्यादा संभ्रान्त मानते हैं, वे भरी प्लेट को बड़े नाजुक अंदाज से डस्टबीन में रखते हैं। फिर ये लोग दूसरी प्लेट लेते हैं और चखनी-मखनी करके दुबारा प्लेट रख देते हैं। सबको पता है कि आजकल प्लेट के हिसाब से शादियॉं होती हैं।
एक तो बिना बात ही दो प्लेटों के पैसे ठुक गए। चलो ठुक गए सो ठुक गए। शादी-विवाहों में खर्चा होता ही है। पर मुँह में गालियॉं इसलिए आती हैं कि ये लोग जितना खाना खा सकते हैं, अपनी प्लेटों में उतना क्यूं नहीं डालते? कोई और परोस कर दे तो तसल्ली हो जाए कि किसी ने डाल दिया, पर जब डालना ही खुद है तो कम से कम अपनी जरूरत के हिसाब से डाला जा सकता है। अपने पेट का किसे पता नहीं है? पिछले दिनों मैंने देखा कि एक जोड़ा अपने दो बच्चों के साथ शादी में मस्ती कर रहा था। खाना खाने और फेंकने के बाद उन चारों ने तिल्ले वाली चार कुल्फियॉं हाथ में लीं। एकाध बुड़का मारकर चारों ने कुल्फियॉं डस्टबीन में डाल दीं और प्लास्टिक की प्यालियों में रसमलाई डलवाकर लुत्फ लेने लगे। वे भी दो चम्मच खाकर डस्टबीन के पेट में फेंक दीं।
फिर वे जलेबियों के सामने सरके। बच्चों ने मना किया कि वे जलेबी नहीं खाएँगे, पर पापा ने फरमान जारी किया, मत खाना, चखने में क्या हर्ज है? और सबने जलेबियों के दोने पकड़ लिये। मैंंने एक बार जलेबियों के दोनों की ओर देखा और फिर डस्टबीन की तरफ। फिर उन हाथों की तरफ जिन्होंने जलेबियों को पकड़ रखा था। इसके बाद मुझे उन करोड़ों लोगों के हाथ और चेहरे दिखने शुरू हो गए जो जीवन में एक बार भी जलेबी चख नहीं पाए हैं। और आखिर में मेरा मुँह गालियों से भर गया।
एक बार की बात है कि ताऊ सुरजे का छोरा नत्थू अमेरिका से एमबीए की पढ़ाई करके आया। जब उसका विवाह होने लगा तो उसने जिद कर ली कि वो निक्कर पहनकर फेरे लेगा। उसका ताऊ बोल्या, फेरे करवाने जाना है या जनसंघ की सभा में जाना है? नत्थू नहीं माना। फिर घरवालों ने बहुतेरा समझाया, पर वो कती नहीं माना। बरात पहुँच गई अर ये शेर बहादुर निक्कर पहने पहुँच गया सुसराल में। फिर क्या था, किसी ने पुलिस को शिकायत कर दी कि नाबालिग छोरे का ब्याह हो रहा है। पुलिस आई अर छोरे का बाब्बू पकड़ लिया गया। उसे धमकाते हुए थानेदार बोल्या, तुझे इतने बड़े को शर्म नहीं आई, छोटी उम्र में छोरे का ब्याह करते हुए? ताऊ बोल्या, भाई दरोगा! तूं क्यूं म्हारी सान ले रह्या है? हमारे घर चल, वहॉं जब तुझे इसके जनम का सर्टीफिकेट दिखा दूँगा तो आप्पे बेरा पटेगा कि इस टिंगर की देही में सिर्फ ये निक्कर ही नाबालिग है।
– शमीम शर्मा
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