गंगा के पश्चिम, थोड़ी ही दूर हिमालय की यमुनोत्री से मैं निकली हूँ और करीब आठ सौ मील चलकर प्रयाग में गंगा में समा गई हूँ। गंगा के साथ एक ओर तथा सतलुज के साथ दूसरी ओर मैंने दोआब बनाया है, जिसकी भूमि में वीरकर्मा जातियॉं बसती आई हैं और इतिहास सदी-सदी अपनी ईंट जोड़ता आया है। कुछ लोग मुझे गंगा की भुजा मात्र समझते हैं। लेकिन मैंने अपनी राह आप बनाई है, मेरी धारा किसी धारा से कम पवित्र नहीं है। गंगा और सरस्वती के साथ, सिन्धु और सतलुज के साथ मेरे नाम की महिमा भी वेदों ने गाई है। मेरे तट पर भी महापुरुषों ने उत्तम कर्म किए हैं। मेरी धारा में भी महात्माओं की चरण-रज मिली है।
अब सुनिए मेरी कहानीः
मेरी स्वच्छ नीलधारा कलिन्द के पहाड़ों में यमुनोत्री नामक स्थान से निकलकर जहॉं समतल भूमि पर उतरी है, वहॉं की पृथ्वी मुझे पाकर धन्य हो गई है। मैं भारत की प्राचीन और नवीन राजधानी दिल्ली से सटकर बहती हूँ। मेरे ही तट पर कभी तोमर आ खड़े हुए थे, मेरे ही तट पर दस बार दिल्ली बन-बनकर बिगड़ी, बिगड़-बिगड़कर बनी।
पहले जब उसकी नींव पड़ी तब उसके आसपास खॉंडवप्रस्थ का जंगल था, मेरी धारा से लगा-लगा। जब दुर्योधन ने पांडवों को हस्तिनापुर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया, तब उन्होंने मेरे तीर के घने जंगल साफ करवाए और इन्द्रप्रस्थ की नींव डाली, जिसकी छाया में मेरे ही तट पर आज की दिल्ली खड़ी हुई। पांडवों के बाद फिर मेरा यह तट वीरान हो गया, क्योंकि अर्जुन के धेवते परीक्षित ने फिर हस्तिनापुर को अपनाया और वहॉं गंगा के तीर पर अपने यश का विस्तार करना शुरू किया।
मेरी धारा का जल ढलता गया, सदियॉं बीतती गईं और मेरे दोनों तीर वैसे ही जंगलों से ढंक गए, जैसे कभी इन्द्रप्रस्थ बनने के पहले ढॅंके थे। तोमरों की दिल्ली कुछ काल पहले बस चुकी थी और उस पर गंगा तट के कन्नौज के प्रतीहारों का राज्य था। तभी तोमरों के कमज़ोर हाथों से अजमेर के बीसलदेव ने दिल्ली छीन ली।
अजमेर और सॉंभर से उठकर चौहान की राजलक्ष्मी मेरे तट पर ही इस दिल्ली में आ बसी और गंगा तीर के कन्नौज और मेरे तीर की दिल्ली में शक्ति की होड़ लग गई। पृथ्वीराज चौहान को मैं आज भी नहीं भूली हूँ। मेरे ही जल पर कितनी नावें संध्या की लालिमा में थिरका करती थीं, मेरा आसमान मृदंग के स्वरों में गूंजा करता था। और एक दिन सारे नगर पर, मेरी लहरों तक पर सहसा डर छा गया। गोर के पठान सिन्ध लॉंघ सरहिन्द की ओर चल पड़े थे। आसपास के सभी राजाओं की सेनाएँ उसकी राह रोकने पानीपत के मैदान में आ खड़ी हुईं, जम कर युद्ध हुआ। पृथ्वीराज ने उसके छक्के छुड़ा दिये और उसके कदम पानीपत के मैदान से उखड़कर सिन्ध-पार की ही जमीन पर टिके। लेकिन कुछ अर्से बाद गोरी फिर लौटा, परन्तु इस बीच हमारे आसपास की दुनिया बदल चुकी थी। गंगा-तीर के कन्नौज और मेरे तीर की दिल्ली में रण ठन गया था। दिल्ली कालिंजर और महोबा के चन्देलों को कुचल चुकी थी। कवि जगनिक की आवाज में पृथ्वीराज की वीरता गूंजने लगी थी, पर तभी पृथ्वीराज और जयचन्द में जो घमासान छिड़ा कि उसमें हमारे नगर के अनेक योद्धा काम आए और पठानों से लोहा लेने के लिए कोई न बचा रहा। जब तलावड़ी के उसी मैदान में, जिसमें गोरी ने चोट खाई थी, गोरी फिर आ उतरा। पृथ्वीराज लड़ाई हार गया और युद्धभूमि में खेत रहा। मैं फिर बेसहारा हो गर्ई। आामणकारी मेरी लहरों को लॉंघ गए, नगर-नगर की मूर्तियॉं टूटकर मेरे जल में आ गिरीं। नगर पर चढ़ी गंगा की मूरतें, कछुए पर चढ़ी मेरी मूरतें, हजारों की तादाद में तोड़कर मेरी रेती में फैला दी गईं। नगर के महलों के कलश मेरी तलहटी में डूब गये। मेरे तट की इस दिल्ली की कहानी लम्बी है, क्योंकि दस-दस बार उसकी बुनियाद पर बुनियाद रखी जाती रही है और मैं उसे देखती रही हूँ। उसकी कहानी कहते थकूंगी नहीं, पर कहनी है मुझे अपनी कहानी, अपने बहाव की कहानी, और जो कहना है वह स्वयं कुछ साधारण नहीं है, क्योंकि उसमें मथुरा की कथा है, उसके कृष्ण की, उनकी गोपियों की, उसके कंस और कुषाणों की।
इन्द्र की मार से जब आर्यों के शत्रु भागे तो मथुरा के पास, मेरे तट पर उनके पैर टिके। कृष्ण उनका नेता था। कृष्ण और इन्द्र में जो मरणान्तर लड़ाई छिड़ी, उसका इशारा ऋग्वेद ने भी किया है। कृष्ण ने इन्द्र का अन्त कर उस मथुरा में अपनी पूजा प्रतिष्ठित की, अपना भाव-राज्य चलाया। उस कृष्ण का महान चरित, उसकी क्रीड़ाएँ, विलास और नीति-कथाएँ कुछ अन्य पुराणों के अतिरिक्त श्रीमद्भागवत में तो भरी पड़ी हैं। हिन्दू संस्कृति का वह अलबेला नायक, आनन्द और सौन्दर्य का वह अनुपम कन्हैया मेरे ही तीर पर खेला। मेरे ही तीर के जंगलों में उसने गायें चराईं, वहीं उसने बार-बार अपनी कीर्ति-पताका फहराई। कंस के अत्याचार से दुःखी मथुरा की जनता को छुड़ाकर कृष्ण ने वहॉं सुख और सज्जनता की धारा बहाई।
– डॉ. भगवतशरण उपाध्याय
(राजपाल एंड संस द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘भारत के नदियों की कहानी’ से साभार)
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