हम सभी इस सत्य को नकार नहीं सकते कि संसार दुःखों की खान है, अगर प्रभु में हमारा ध्यान है, तब वह सुखों की खान है। अक्सर देखने को मिलता है कि निर्धन हों या धनी, हर कोई दुःखी ही प्रतीत होता है। इसका मुख्य कारण है अज्ञानता। इसी कारण मानव दुःख-सुख के पहलुओं को नहीं समझता और शोकग्रस्त व उदास हो जाता है, जबकि ये दोनों अस्थायी हैं, आयेंगे और चले जायेंगे। साथ जायेगी हमारी नेक कमाई, नेक कर्म, परोपकार के कार्य, वो इबादत, जिससे दुःखियों की इमदाद की, वो सद्कार्य जिनसे बर्बादों को आबाद किया, वो दयाभावना, जिससे गरीबों को सहारा दिया। इसीलिए किसी कवि ने कहा है कि –
करिये पर-उपकार नित,
जब तक जीवन शेष।
पथ पावन चुन लीजिए,
इच्छा रहे न लेश।।
बहाई धर्म के प्रवर्तक बहाउल्लाह ने कहा है कि –
यदि दरिद्रता तुझे ग्रस्त कर ले, तो दुःखी न हो, क्योंकि यथासंभव वैभव का स्वामी तुझ तक पदार्पण करेगा। दुर्भाग्य से भय न कर, क्योंकि एक दिन वैभव तुझ पर आसीन होगा।
जब हम सभी परोपकार के कार्यों से जुड़ते हैं अर्थात् शुभ कर्म एकत्र करने को जागरूक रहते हैं, तभी हम सभी के जीवन में परिपक्वता आती है। पर वास्तविक परिपक्वता तब तक नहीं आती, जब तक हम यह नहीं समझते कि दुःख और सुख हम सभी के जीवन में अकस्मात् नहीं आते। हमारी पूर्ति के लिए ईश्र्वर की कृपा से हमारे पास आते हैं। मानव जितना ज्यादा उन्हें ईश्र्वर द्वारा प्रदत्त आशीर्वाद समझकर झेलता है, इस कथन पर दृढ़ रहता है, तेरा भाणा मीठा लागे तो वह उतना ही ज्यादा परिपक्व हो जाता है, ईश्र्वर के नजदीक हो जाता है। साथ ही उतना ही अधिक अपने बोए आध्यात्मिक बीजों के फल प्राप्त करता है। प्रभु का भाणा मीठा मानने के लिए अर्थात् हर दुःख और सुख में उसकी रज़ा मानने के लिए किसी कवि ने कहा है कि –
दिल दे, तो उस मिजाज का परवरदिगार दे, जो रंज की घड़ी भी खुशी से गुजार दे। राज़ी हूँ उसी में जिसमें तेरी रज़ा है
या यूं भी वाह वाह है और वुऊँ भी वाह वाह है।
अक्सर देखा गया है कि मानव अपनी बुद्धि पर नाज़ करता है और दूसरों के सुखों को देखकर चिन्ताग्रस्त रहता है कि ये सुख उनके जीवन में आये, तो कैसे? कहां से आये? इसी की जलन में वह दुःखी रहता है जबकि मानव को चाहिए कि वह दूसरों के सुखों से न जले। जो उसे प्रभु ने दिया है, उसमें उसका आशीर्वाद निहित समझकर सुख-चैन से जीए। जो मिले, उसी में अपना भला समझे। साथ ही उसे चाहिए कि जितना भी उसका जीवन अभावों में झुलस जाये, संकटों से गुजर जाये, जिन्दगी के कंटीले पथरीले मार्ग पर ठोकरें खाये, हंसकर उन्हें झेलना आरंभ कर दे, तभी अपने जीवन में परिपक्व बन सकता है। वैसे भी दुनिया के कलह-क्लेषों, आपसी द्वेष भाव से दूर रहने के विषय में कबीर जी ने कहा है –
कबीरा मन तो एक है
चाहे जहां लगाय,
चाहे हरि की भक्ति कर,
चाहे विषय लगाय।
तब तक मानव जीवन में परिपक्वता नहीं आ सकती, जब तक वह इस विषय में सजग नहीं होता कि जीवन में जो भी पद उसे मिलते हैं, वे ईश्र्वर द्वारा प्रदत्त होते हैं, फिर वह अहंकार किसलिए करता है? क्यों वह कृतज्ञता की भावना से नहीं जुड़ता, क्यों किसी के हृदय को आघात पहुँचाता है? क्यों मधुरवाणी का प्रयोग नहीं करता, क्यों
वह त्याग और समर्पित भावना से कार्य नहीं करता? क्यों वह ईर्ष्या-द्वेष, प्रतिस्पर्धा, आपसी विरोध में विश्र्वास रखता है आदि? यदि मानव प्रभु द्वारा प्रदत्त पदवियों को ईश्र्वर का आशीर्वाद समझकर कार्य करेगा तो वह निश्र्चय ही परिपक्वता से जुड़ जायेगा और अपने जीवन में आने वाली सभी बाधाओं पर काबू पा लेगा। यह सच सिद्ध होगा कि परिपक्वता आने पर हर परिस्थिति पर काबू पाने योग्य बन सकता है, अन्यथा नहीं। मानव को जीवन में सदैव उच्च पद पाने की प्रार्थना करनी चाहिए जैसे कि किसी महापुरुष ने कहा है कि –
न खुवादिश है मुझे मर्तबा (पद) मालोजर कि ऐ खुदा
मेरी जिन्दगी खिदमते खल्क (जन सेवा) में गुजार दे।
जब तक मानव स्वः-प्रेम और स्वार्थवृत्ति से मुंह नहीं मोड़ता तब तक वह परिपक्वता की सीढ़ियॉं चढ़ ही नहीं सकता। जबकि मानव जानता है कि यह पाशविक प्रवृत्ति है, फिर भी वह इससे विलग नहीं होना चाहता, क्योंकि वह अपने हित, अपने से प्रेम व स्वार्थ के कारण इतना अंधा हो गया है कि वह किसी सेवा हेतु नाम मात्र भी त्याग नहीं करना चाहता और वह पाशविक स्तर पर उतर आता है। यही कारण है कि वह परिपक्वता के माध्यम से दुःखों का निवारण करने में असमर्थ रह जाता है। स्वार्थवृत्ति से दूर रहने के लिए किसी महापुरुष ने कहा है कि –
बना नियम जग में रहो,
उर में सत्य विचार,
भेदभाव को छोड़कर,
कर लो सबसे प्यार,
फल छाया सब देते हैं,
नहिं मॉंगे तरु मोल,
उत्तम जन मांगे बिना,
देते वस्तु अनमोल।
वह मानव जीवन दुःखों से निवारण प्राप्त कर सकता है, दरिद्रता और शोक की जकड़न से मुक्त रह सकता है, जो अपने जीवन के प्रत्येक पल प्रभु प्रेम मदिरा का पान करे, प्रार्थनाओं व पावन लेखों का पाठ करे, प्रभु के अध्यादेशों का पालन करे, परमार्थ कार्यों को करने में पहल करे। ऐसे मानव का जीवन परिपक्वता की सीढ़ियॉं चढ़ जायेगा और इस नश्र्वर संसार में रहते हुए भी वह परम सुखों से जुड़ता जायेगा। साथ ही हम कह सकेंगे कि परिपक्वता में ही निहित है, दुःखों का निवारण।
– उषा रानी अरोड़ा
You must be logged in to post a comment Login