हम भारतीय प्रमाण-पत्रों के पुराने शौकीन हैं। राजा लोग खुद को ही प्रमाणित करने के लिए अपने जनहित के कार्यों के शिलालेख जगह-जगह लगवाते रहे हैं, ताम्रपत्र जारी करते रहे हैं। दूसरों की तरह हम भी बचपन में इनके लिए लालायित रहते थे। पहला और आखिरी प्रमाण-पत्र हमें मैट्रिक का मिला था। हमने कोई विशेष स्थान प्राप्त नहीं किया था, पर उस पर “पास’ ज़रूर लिखा था। इसलिए उसे शीशे के ोम में जड़वाकर दीवार पर विशेष स्थान पर लगा दिया था। उन दिनों किसी के पढ़ा-लिखा होने का यही दीवारी सबूत होता था। जिस घर में एक-आध पढ़ा-लिखा होता, उस घर में दीवार पर टंगा यह प्रमाण-पत्र अवश्य होता था। दीवार पर इसका निचला हिस्सा दो कीलों या लकड़ी की पट्टी पर टिका होता और ऊपर का हिस्सा रस्सी के सहारे एक कीले से बंधा, आगे की ओर झुका होता था। इसके पीछे सामान रखने की जगह बन जाती थी। वहॉं हम अपनी नकदी, डाक या अन्य सामान छुपाकर रख देते थे, अगर किसी चिड़िया ने घोंसला बनाकर अंडे नहीं दिये हुए होते। कालांतर में नौकरी लगने पर उसकी हालत वही हो जाती, जो किसी नारी की प्रेमिका से पत्नी बनने पर होती है।
हमारी सरकारें, हमारे राजनीतिक दल और नेता अब भी प्रमाण-पत्रों के दीवाने हैं और इन्हें प्राप्त करने के लिए शीर्षासन करते नज़र आते हैं। चुनाव के लिए उनकी ज़रूरत ज्यादा होती है। साधु-संत, गुरु-जगद्गुरु आदि से देसी प्रमाण-पत्र तो लेते ही हैं, धर्मनिरपेक्ष और अल्पसंख्यक प्रेमी होने का प्रमाण-पत्र हम पाकिस्तान, चीन और वेटिकन से प्राप्त करने की कोशिश सदा से करते रहे हैं। अब तो बात बहुत आगे बढ़ गई है। पाकिस्तान से मिलने वाले प्रमाण-पत्र के लिए लालू और आडवाणी भी वहॉं का सफर कर चुके हैं। पाकिस्तानी लालू का सत्तू चख चुके हैं, आडवाणी की जिन्ना को अर्पित श्रद्धांजलि सुन चुके हैं। एक हाथ में धर्मवादी होने का और दूसरे में धर्मनिरपेक्ष होने का प्रमाण-पत्र लेकर चुनाव मैदान में उतरना राजनीतिक सेहत के लिए अच्छा रहता है। हमारी सरकारों ने विदेशों से मिले प्रमाण-पत्रों पर जीवन बिताया है। पहले इस मामले में सोवियत संघ और अमेरिका के प्रमाण-पत्र काफी काम आते थे। जब-जब भी बंगाल-केरल में उपजे नेता ज्यादा नाचा-कूदी करते, मास्को से सनद आती और कुछ दिन-महीनों की शांति मिल जाती थी। दक्षिणपंथी पार्टियों को टिकाने के लिए अमेरिकी सर्टिफिकेट काम आता। सोवियत संघ के खंडित हो जाने पर ज्यादा मुश्किल हमारी सरकारों को ही आ रही है। अमेरिका से करार पर वामपंथियों से तकरार है। उन्हें मनाने के लिए कहते हैं, चीन से कुछ एसएमएस भिजवाये गये हैं, पार नहीं पड़ रही है। इसलिए आज की दुनिया में रोज-रोज की उलझनों से निपटने के लिए अमेरिका की सिफारिशी चिट्ठी ही काम आ रही है। अमेरिका का पता नहीं चल रहा है कि वह दोस्त है या दुश्मन।
अमेरिका से अभी-अभी एक नया प्रमाण-पत्र मिला है। इसका क्या असर होगा, यह देखना अभी बाकी है। वैसे हमारे यहॉं अमेरिकी प्रमाण-पत्र चलता खूब है। कुछ साल पहले एक भारतीय संस्था और उसकी प्रयोगशाला ने साबित किया था कि एक अमेरिकी कंपनी के भारत में मिलने वाले शीतल पेय में बहुत ज्यादा कीटनाशक हैं। वही शीतलपेय अमेरिका में भी उसी कंपनी द्वारा बनाये व बेचे जाते हैं, पर उसमें उतना कीटनाशक नहीं होता है। एक चॉकलेट में भी कीड़े बताये गये। बड़ा शोर मचा। कुछ दिन बाद सारा शोर झाग की तरह बैठ गया। क्योंकि अमेरिका की प्रयोगशाला के प्रमाण-पत्रों ने भारत की प्रयोगशाला के प्रमाण-पत्रों को झुठला दिया। यूएनओ ने कहा है कि अमेरिका, यूरोप में खाद्यान्नों का जैविक ईधन बनाने में उपयोग के कारण अन्नाभाव पैदा हो रहा है। इसे दबाने के लिए पहले अमेरिका की विदेश सचिव कोंडोलिजा राइस और फिर बुश ने प्रमाण-पत्र दिया है कि खाद्यान्न की कमी का कारण भारतीयों का पेटू होना है।
अमेरिका कुछ न कुछ करता रहता है। कभी अपने यहॉं रोजगार का लालच देकर अपनी टेकनीक और कंप्यूटर हमें बेचता है। फिर नीति बदलकर हजारों-लाखों को बेरोजगार कर वापस भारत जाने पर मजबूत कर देता है। कभी हमारे यहॉं के व्यापारियों द्वारा भेजे गये माल को दूषित बताकर वापस भेज देता है और इस तरह अब तक वह हमारे पेट पर लात मारता रहा है। अब अमेरिका ने हमें पेटू कह कर हमारे पेट पर बात मारी है। एक बार एक अमेरिकी के साथ बैठकर भोजन करने का मौका मिला। वह मेरे से सात गुणा ज्यादा भोजन खा गया, फिर भी डकार नहीं आई उसे। मुझे दो रोटियॉं खाने के बाद ही “असभ्य’ कहलाने के लिए डकारना पड़ा। मैंने उस अमेरिकी को पेटू कह दिया था। उसे शायद टेटू सुना। उसने अपनी कमीज उठा दी। देखा, उसके पेट पर पिज्जा, वाइन और वेटर का टेटू बना हुआ है। पता नहीं सब उसके पेट में चले गये थे या पापी पेट दिखाकर और मांग रहा था। पर आज उसके हाथ में कोंडोलिजा राइस का सर्टिफिकेट होता तो वह मुझे कहता और सबूत के तौर पर मेरी डकार को पेश करता। कुछ साल पहले एक और प्रमाण-पत्र आया था। इसे पहले मैंने मजाक समझा था। एक अमेरिकी ने दावा किया था कि ओजोन परत को नुकसान अमेरिका या यूरोप के कारखानों, परमाणु परीक्षणों से उत्सर्जन होने वाली गैसों से नहीं हो रहा है, बल्कि इसका कारण भारतीयों की खान-पान की आदतें हैं। उनके पेट में गैस बहुत ज्यादा बनती है। इस गैस उत्सर्जन पर कोई पाबंदी नहीं है। यही गैस ओजोन परत को घायल कर रही है। लगता है, हम भारतीयों पर ओजोन परत के इलाज के खर्चे की जिम्मेवारी आने वाली है, क्योंकि उस अमेरिकी दावे को कोंडोलिजा राइस और बुश के इस ताजा प्रमाण-पत्र से बल मिलेगा।
हम क्या कर सकते हैं? हम तो शाप दे सकते हैं। कोंडोलिजा, तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम दोबारा विदेश मंत्री नहीं बनोगी। बुश के लिए भविष्य में “सफेद घर’ के द्वार नहीं खुलेंगे, क्योंकि तुम्हारे यहॉं दकियानूसी लोकतंत्र है। हमारी तरह का मुक्त लोकतंत्र नहीं है कि किसी को कुर्सी पर बैठाने के लिए या किसी को उतारने के लिए संविधान में जब चाहो तब संशोधन कर दो। पर तुमने हमारे पेट पर बात मारी है। तुम्हें नहीं पता कि हमारे पेट कितने मजबूत हैं। पर हम कितना खाते हैं, यह तुमने खली की प्लेट देखकर अंदाजा लगाया होगा। हम पेटुओं की एक बड़ी संख्या रोजाना दो वक्त का भी भोजन नहीं कर पाती है। महिलाएँ एक करवा चौथ ही नहीं, पता नहीं कितने-कितने व्रत करती हैं और हमारे साधु-संत व्रत करके दूसरी दुनिया में, तो नेतागण अनशन करके जमीन से कुर्सी पर पहुँच जाते हैं। हम जैसे “पेटुओं’ से शाप पाने का पंगा क्यों लिया?
– गोविंद शर्मा
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