तुझे सूरज कहूँ या पलीता

समय बड़ी तेज़ी से बदल रहा है। बदलना भी चाहिये। ठहराव प्रकृति को बर्दाश्त नहीं। विचार बदल रहे हैं। मान्यतायें बदल रही हैं। रिश्ते-नाते भी बदल रहे हैं। बाप बदल रहे हैं तो बेटे भी बदल रहे हैं। मतलब यह कि दुनिया का नक्शा बड़ी तेज़ी से बदलता जा रहा है। समृद्धि आ रही है तो अपने साथ बहुत कुछ ला रही है। भोगवादी संस्कृति सब पर भारी पड़ रही है। ाोफेशनलिज्म का बोलबाला है। बाप-बेटे के रिश्ते भी इसी व्यावसायिक पद्धति से संचालित हो रहे हैं।

आजकल शहर में विभिन्न अपराधों में जो नौजवान पकड़े जा रहे हैं उनमें से अधिकतर संपन्न या खाते-पीते घरों से हैं। किसी का बाप सरकारी सेवा में है तो किसी का कोई अन्य बिजनेस है। घर में वो सब कुछ है जो आदमी को जीवित रहने के लिये चाहिए मगर फिर भी यदि वे भटक रहे हैं, तो इसके लिये कहीं न कहीं मॉं-बाप की भी वो मानसिकता जिम्मेदार है जो अपनी औलाद को सिर्फ और सिर्फ बुलन्दी पर ही पहुँचने का प्रोत्साहन देते हैं।

आजकल बच्चे के जन्म के साथ ही बाप की महत्वाकांक्षा को पर लग जाते हैं। इसे डॉक्टर बनाना है या इंजीनियर बनाना है या फिर अफसर बनाना है, इस धारणा के साथ बच्चे के कोमल मन पर आशा का हथौड़ा बजाया जाता है। अगर बच्चा पढ़ने में थोड़ा कमजोर है या उसकी रूचि पढ़ाई में नहीं है तो भी हर हाल में उसे परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने हैं। पड़ोसी के बच्चे से ज्यादा, रिश्तेदारों के बच्चों से भी ज्यादा… इस दबाव के विपरीत असर होता है। उसके मन में कुंठा जन्म लेती है, निराशा जन्म लेती है।

जब वो देखता है कि उसका प्रदर्शन पढ़ाई में बाप की आशाओं के अनुकूल नहीं है तो उसका मन अवसाद से भर उठता है। ऐसे में बाप फटकारता है, “क्यों बे! तू पढ़ता क्यों नहीं?’ बच्चा सहम कर जवाब देता है, “पापा! मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता। मैं इतने भारी बस्ते का बोझ नहीं उठा सकता।’

सुनकर बाप आग-बबूला हो जाता है, “पढ़ेगा कैसे नहीं? तुझे पढ़ना होगा। तू पढ़ेगा, तेरा बाप भी पढ़ेगा।’ और बाप सचमुच पढ़ने लगता है, एक ऐसे स्कूल में जहॉं बच्चों को पढ़ने को कैसे प्रोत्साहित किया जाय, इस विषय की शिक्षा बाप लोगों को दी जाती है यानी बच्चे को पढ़ाने की खातिर बाप को भी पढ़ना पड़ रहा है।

सिर्फ बाप ही नहीं बल्कि इस समर वैकेशन में बच्चों की मम्मियों ने भी जमकर पढ़ाई की। उन्हें इसलिये पढ़ना पड़ा क्योंकि उनका बच्चा उनके अशिक्षित होने की वजह से पिछड़ रहा है। ज्यादातर कान्वेंट स्कूल बच्चे के साथ ही उसकी मम्मी या उसके पापा का भी इण्टरव्यू लेते हैं। जो मॉं-बाप अंग्रेज़ी नहीं जानते उनका बच्चा हाई क्लास के अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश पाने से वंचित रह जाते हैं।

दूसरे, अगर एडमिशन हो भी गया तो बच्चा स्कूल में अंग्रेजी माहौल में रहने के बावजूद अंग्रेजी में इस वजह से पारंगत नहीं हो पाता क्योंकि घर पर उसे हिन्दी से जूझना पड़ता है। इस लिहाज से बच्चे की मम्मी के लिये यह ज़रूरी हो गया है कि वो अपने बच्चे को चारदीवारी के अन्दर भी हिन्दी की बीमारी से सुरक्षित रखे।

आज की बच्चा पार्टी बचपन में ही कुछ ज्यादा ही ब़ड़ी हो गयी है। यहॉं तक कि बच्चे बड़ों से भी बड़े हो गये हैं। उनकी नॉलेज बड़ों की अपेक्षा ज्यादा अपडेट है, जैसे बहुत से ऐसे काम हैं जो बच्चे तो खेल-खेल में कर डालते हैं पर बड़े लाख कोशिश करने पर भी नहीं कर पाते। बाप को मोबाइल के ही सारे फंक्शन नहीं आते जबकि बच्चा कम्प्यूटर पर नेट चलाता है। वो ई-मेल भेज सकता है, चैटिंग कर सकता है जो बड़े नहीं कर पाते। वो डीजे पर डांस कर लेता है। क्रिकेट पर चर्चा कर लेता है। उसे अपने समय के अभिनेता-अभिनेत्रियों की आदतों के बारे में जानकारी है, जो बड़ों को नहीं है। बच्चे जींस पहनते हैं, बड़े इसे नहीं पहन सकते। इस तरह बच्चे बड़ों पर हर लिहाज से भारी पड़ रहे हैं।

कुछ बाप तो अपने लाडले की बेस्ट परफारमेंस से इस कदर प्रभावित हैं कि वे उनकी गंभीर से गंभीर कारगुजारी को भी निहायत हल्के में लेते हैं, जैसे बाप ने ढेर सारा रुपया रिश्र्वत लेकर या गबन करके या फिर ऐसी ही किसी शार्टकट पद्धति से कमा लिया है तो वह अपने बेटे को हीरो बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। जैसे बच्चा अभी चाहे नाबालिग ही है मगर उसे बाइक चलाने का शौक है तो बाप फौरन उसे बाइक की पीठ पर बैठा कर शहर की सड़कों पर भेज देता है। अब अगर कहीं दुर्भाग्य से किसी नाके पर पुलिस ने रोक लिया, बिना लाइसेंस ड्राइविंग करने या तेज गति से वाहन चलाने के जुर्म में पकड़ लिया तो बाप के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। उसके पास पैसा है, रसूख है, जिसके बल पर वो बेटे को घर ले आता है और दूसरे दिन फिर वही होता है। अगर कहीं गाड़ी बेकाबू होकर सड़क पर चल रहे राहगीरों को अपना निशाना बना लेती है तो बाप को पक्का यकीन हो जाता है कि उसका बेटा हीरो बन चुका है। अगर खुद ठुक गया, अस्पताल पहुँच गया, तो भी बाप को इस बात पर गर्व होता है कि चलो, बेटा एक्शन में पारंगत हो रहा है।

मतलब यह कि बेटे का कॅरियर बनाने के लिये धृतराष्ट्र की तरह पुत्रमोह में अंधा होकर उसे कुछ भी करने की छूट दे देता है। बाद में जब यही लाड़ला उसे अपने घर में एक कोने में भी जगह देने को राजी नहीं होता तो बाप कह उठता है- तुझे सूरज कहूं या पलीता…।

 

– प्रेमस्वरूप गंगवार

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