शक्तिपीठ देवी पाटन का महात्म्य

maa-durgaउत्तर-प्रदेश के जनपद बलरामपुर (नेपाल की सीमा से मिला हुआ) की तहसील तुलसीपुर नगर से दो कि.मी. की दूरी पर सिरिया नाले के पूर्वी तट पर स्थित सुप्रसिद्ध सिद्ध शक्तिपीठ मां पाटेश्र्वरी का मंदिर देवी पाठन है, जो देशभर में फैलते 51 शक्तिपीठों में मुख्य स्थान रखता है। यह शिव और सती के प्रेम का प्रतीक स्वरूप है। अपने पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ में अपने पति महादेव का स्थान न देखकर नाराज सती ने अपमान से ाोधित होकर अपने प्राण त्याग दिये। इस घटना से क्षुब्ध होकर शिव दक्ष-यज्ञ को नष्ट कर सती के शव को अपने कंधे पर रखकर तीनों लोक में घूमने लगे, तो संसार-चा में व्यवधान उत्पन्न हो गया। तब विष्णु ने सती-शव के विभिन्न अंगों को सुदर्शन-चा से काट-काटकर भारत के भिन्न-भिन्न स्थानों पर गिरा दिया। पृथ्वी पर जहॉं-जहॉं सती के शव के अंग गिरे, वहॉं-वहॉं शक्तिपीठ स्थापित हुए। सती का वाम स्कन्ध पाटम्बर अंग यहॉं आकर गिरा था, इसलिए यह स्थान देवी पाटन के नाम से प्रसिद्ध है। यहीं भगवान शिव की आज्ञा से महायोगी गुरु गोरखनाथ ने सर्वप्रथम देवी की पूजा-अर्चना के लिए एक मठ का निर्माण कराकर स्वयं लम्बे समय तक जगजननी की पूजा करते हुए साधनारत रहे। इस प्रकार यह स्थान सिद्ध शक्तिपीठ के साथ-साथ योगपीठ भी है।

देवी पाटन की देवी का दूसरा नाम पातालेश्र्वरी देवी के रूप में प्राप्त होता है। कहा जाता है कि माता सीता लोकापवाद से खिन्न होकर यहॉं धरती-माता की गोद में बैठकर पाताल में समा गयी थीं। इसी पातालगामी सुरंग के ऊपर देवी पाटन पातालेश्र्वरी देवी का मंदिर बना है।

मंदिर के गर्भगृह में पहले कोई प्रतिमा नहीं थी। मध्य में एक गोल चांदी का चबूतरा था, वो अब भी है, जिसके नीचे सुरंग ढकी हुई है। मंदिर के उत्तर में कार्यकुण्ड है। सूर्यपुत्र महारथी कर्ण ने यहॉं परशुराम से धनुर्वेद की शिक्षा ली थी। जनश्रुति के अनुसार महाभारत कालीन इस जलकुंड में स्नान करने से कुष्ठ रोग तथा चर्मरोग ठीक हो जाते हैं।

चैत्र-मास के नवरात्रि-पर्व पर वीर रतननाथ बाबा की सवारी नेपाल के जिला दांग चौधरा नामक स्थान से पदयात्रा करके मठ के महंतों द्वारा हर वर्ष पंचमी के दिन मॉं पाटेश्र्वरी के दरबार पाटन में लायी जाती है। यह शिवावतार महायोगी गुरु गोरखनाथ से दीक्षा लेकर स्वयं एक सिद्ध महायोगी पीर रतननाथ बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए। देश के कई भागों में आज भी इनके मठ एवं मंदिर तथा दरीचे मिलते हैं। मंदिर के पीछे प्रांगण में स्थित पीर रतननाथ बाबा पाटेश्र्वरी के परमभक्त थे और प्रतिदिन दांग नेपाल से कठिन पहाड़ी के रास्ते से आकर देवी की आराधना किया करते थे। माता जी ने प्रसन्न होकर एक बार उनसे वरदान मांगने के लिए कहा, तो रतननाथ ने कहा, “”माता, मेरी प्रार्थना है कि आपके साथ यहॉं मेरी भी पूजा हो।” देवी ने कहा, “”ऐसा ही होगा। तभी से यहॉं रतननाथ का दरीचा कायम है। दरीचे में पंचमी से एकादशी तक रतननाथ की पूजा होती है। इस अवधि में घंटे व नगाड़े नहीं बजाये जाते हैं। और देवी की पूजा केवल रतननाथ के पुजारी ही करते हैं।

– कीर्ति

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