विवाह संस्था का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के पारिवारिक जीवन को सुव्यवस्थित बनाकर एक सामाजिक सुरक्षा का पर्यावरण प्रदान करना है। विवाह से पूर्व प्रायः प्रत्येक मनुष्य मधुर और सुनहरे सपने देखता है, लेकिन हर विवाह का यथार्थ किसी परी-कथा की तरह सुखान्त नहीं होता। विवाह के कुछ समय पश्र्चात जब जिन्दगी की नंगी वास्तविकताएं सामने आने लगती हैं, तो आदमी स्वयं को एक मोहभंग की स्थिति के चाव्यूह में फंसा पाता है। यदि पति-पत्नी आपसी समझदारी, तालमेल और परस्पर विश्र्वास से काम लें तो वैवाहिक यथार्थ की उन चुनौतियों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु जो दम्पति सपनों के टूटने से उपजे आाोश को अपने जीवन में समायोजित नहीं कर पाते, उनके कदम अनचाहे ही विवाह-विच्छेद अथवा तलाक की मंजिल तक बढ़ने लगते हैं। पति-पत्नी के एक-दूसरे से अलग होने को ही तलाक कहा जाता है।
यह सत्य है कि तलाक या विवाह-विच्छेद की समस्या का वर्तमान स्वरूप हमारी आधुनिक सभ्यता की देन है, किन्तु हमारी अत्यंत प्राचीन सांस्कृतिक विरासत में भी विवाह-विच्छेद की अवधारणा के प्रमाण मिलते हैं। अथर्ववेद में वर्णन मिलता है कि एक स्त्री ने अपने पति से विवाह-विच्छेद कर अन्य पुरुष के साथ विवाह किया। याज्ञवल्क्य, मनु और वशिष्ठ ने अपने ग्रंथों में पुरुष को अपनी यौन रोग से पीड़ित पत्नी से विवाह-विच्छेद करने का अधिकार दिया है। नारद और पाराशर ऋषियों ने पति के नपुंसक होने, उसके लापता होने, संन्यासी हो जाने, जाति से बहिष्कृत कर दिये जाने अथवा देशद्रोही करार दिये जाने की स्थितियों में पत्नियों को पति से विवाह-विच्छेद कर अन्य पुरुष से विवाह करने की अनुमति प्रदान की है।
महान कूटनीतिज्ञ कौटिल्य ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “अर्थशास्त्र’ में उस युग में प्रचलित विवाह-विच्छेद की परंपरा का विशद वर्णन किया है। तलाक प्राप्त करने के आधारों का उल्लेख करते हुए कौटिल्य ने बताया है कि सामान्यतः पति-पत्नी परस्पर सहमति से विवाह-विच्छेद कर सकते हैं। अपवाद स्वरूप व यथोचित आधार मौजूद होने पर दोनों पक्षों में बिना एक-दूसरे की सहमति और स्वीकृति के भी विवाह-विच्छेद हो सकता है। इस प्रकार प्राचीन युग में भी तलाक की परंपरा या असफल विवाह के विघटन का उपचार उपलब्ध था। हालांकि उस युग में विवाह विच्छेद के मामले बहुत ही समिति संख्या में होते थे।
मध्ययुगीन भारत का इतिहास बताता है कि समाज के सभी क्षेत्रों में बढ़ी रूढ़िवादिता का प्रभाव विवाह संस्था पर भी पड़ा। उस युग में स्थापित मूल्यों को आधार बनाकर हिंदू समाज में विवाह विच्छेद को धार्मिक दृष्टि से अनैतिक घोषित किया गया और सामाजिक स्तर पर हिंदू समाज में विवाह-विच्छेद पर प्रतिबंध लगा दिया गया। तलाक के निषेध के साथ यह धार्मिक विश्र्वास प्रचलित किया गया कि पति-पत्नी का संबंध ईश्र्वरीय देन है और इसे ईश्र्वर की अनुमति के बिना तोड़ना पाप है। मुस्लिम शासकों के राज्यकाल में हिंदू समाज में विकसित हुई धार्मिक रूढ़िवादिता ने भी इस सोच को बल दिया कि विवाह-विच्छेद की परंपरा हमारे धार्मिक संस्कारों को दूषित करती है। इस मानसिकता के चलते मध्यकालीन भारत में हिंदू समाज में विवाह-विच्छेद की प्रथा लगभग समाप्त हो चली थी। मुगल सल्तनत के पराभव के बाद जब भारत पर अंग्रेजों का राज्य हुआ तो तत्कालीन हिंदू समाज पर पाश्र्चात्य संस्कृति के प्रभाव स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने लगे। तथाकथित प्रगतिशील जीवन मूल्यों ने हिंदू समाज की परंपरागत विवाह संस्था के समक्ष कई यक्ष प्रश्र्न्न खड़े कर दिए। इसके अतिरिक्त बदलती युगीन परिस्थितियां और शिक्षा के प्रभाव से भारतीय जन-मानस में एक चेतना जागृत हुई। इन हालातों में विवाह-विच्छेद अथवा तलाक की अवधारणा को धीरे-धीरे हिंदू समाज में पुनः स्थान मिलने लगा। इस प्रिाया की तार्किक परिणति के रूप में सबसे पहले 1942 में बड़ौदा स्टेट ने विवाह विच्छेद कानून बनाया, जिसमें कुछ आधारों पर पति-पत्नी को विवाह-विच्छेद का कानूनी अधिकार प्रदान किया गया। इसके बाद बंबई राज्य ने 1946 में, मद्रास राज्य ने 1949 में तथा सौराष्ट्र राज्य ने 1952 में विवाह-विच्छेद अधिनियम पारित किए।
आजादी के बाद सरकार ने हिंदू समाज में व्याप्त विवाह संबंधी समस्याओं के निराकरण हेतु 1955 में हिंदू विवाह तथा विवाह-विच्छेद अधिनियम-1995 पारित किया। इस अधिनियम के पश्र्चात ही देश में हिंदू समाज को विवाह-विच्छेद के मामलों में कानूनी उपचार उपलब्ध हो सका। यह अधिनियम एक व्यक्तिगत विधि है, जो हिंदू धर्मावलंबियों पर ही लागू होता है। इस अधिनियम की धारा 10 न्यायिक पृथक्करण से संबंधित है। इस धारा के अधीन पति या पत्नी दोनों में से कोई भी पक्ष किसी अन्य पक्ष द्वारा दो साल से अधिक समय तक बिना किसी उचित प्रयोजन के अलग रहने पर, पति या पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य से यौन संबंध स्थापित करने पर, एक वर्ष से किसी संाामक रोग से ग्रसित होने पर तथा क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने के आधार पर न्यायालय में प्रार्थनापत्र पेश कर पृथक्करण की डिग्री प्रदान किये जाने का आवेदन कर सकता है। इसी प्रकार धारा 13 के अंतर्गत कोई भी पक्ष अन्य पक्ष द्वारा धर्म परिवर्तन करने एवं अन्य व्यक्ति से यौन संबंध स्थापित करने, क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने तथा सात वर्ष से अधिक समय से लापता होने की स्थिति में न्यायालय से विवाह-विच्छेद की प्रार्थना कर सकता है। इसके अतिरिक्त यदि पति बलात्कार, अप्राकृतिक मैथुन का अपराधी हो या उसने किसी अन्य स्त्री से विवाह कर लिया हो तो पत्नी को उससे तलाक प्राप्त करने का हक है।
“तलाक’ को निरुत्साहित करने के उद्देश्य से इस अधिनियम की धारा 14 व 15 में कुछ प्रावधान किये गये हैं। विवाह के एक वर्ष पश्चात ही विवाह-विच्छेद का आवेदन किया जा सकता है। ऐसा इसलिए किया गया है कि भावुकता और जल्दबाजी में विवाह-विचछेद सरीखा गंभीर कदम उठाने से पूर्व दम्पति एक-दूसरे को समझने का प्रयास कर सकें। पति या पत्नी के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति किसी पक्ष की ओर से तलाक का मुकदमा दाखिल नहीं कर सकता। प्रारंभ में क्रूरता के आधार पर तलाक प्राप्त नहीं किया जा सकता था। किंतु सन् 1976 में हिंदू विवाह तथा विवाह विच्छेद अधिनियम में अनेक महत्वपूर्ण संशोधन किये गये तथा “क्रूरता’ को तलाक के आधारों में शामिल कर लिया गया। इस अधिनियम में “क्रूरता’ को परिभाषित नहीं किया गया है। वस्तुतः क्रूरता की अवधारणा समय, स्थान और व्यक्ति के अनुरूप परिवर्तनशील है। देखा जाए तो क्रूरता कोई एक कार्य नहीं है बल्कि यह एक पक्ष द्वारा किए गए कई कार्यों का सम्मिलित प्रभाव है, जिससे दूसरे पक्ष को चोट पहुँचती है। वैवाहिक क्रूरता का न्यायिक निर्धारण करते समय स्वास्थ्य, मानसिकता, व्यक्तित्व, सामाजिक और आर्थिक स्तर, शिक्षा एवं पारिवारिकता जैसी बातों को दृष्टिगत रखा जाता है। एक सर्वेक्षण के अनुुसार हिंदू विवाह तथा विवाह-विच्छेद अधिनियम के अधीन तलाक के लिए दायर किये गये मुकदमों में 27 प्रतिशत परगमन, 21 प्रतिशत नपुंसकता, 22 प्रतिशत परित्याग तथा 29 प्रतिशत क्रूरता के आधार पर दायर किये जाते हैं। भारत में तलाकशुदा स्त्रियों की संख्या पुरुषों के मुकाबले अधिक है। यह अनुपात 10:10.3 का है।
तलाक की परिकल्पना पुरातन हिंदू समाज के नैतिक प्रतिमानों और शताब्दियों पुरानी मानसिक स्थिति के कारण अस्वाभाविक लग सकती है। किंतु वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों को मद्देनजर रखतेहुए “तलाक’ की व्यवस्था विवाह संस्था के हित में है। यह अवश्य होना चाहिये कि विवाह-विच्छेद केवल उन्हीं परिस्थितियों में हो, जब अन्य सभी विकल्प निरर्थक सिद्ध हो चुके हों। तलाक की स्थिति को यथासंभव टालना अधिक हितकर है। क्योंकि हमारे समाज में तलाकशुदा स्त्रियों की कोई बेहतर स्थिति नहीं है और बहुधा उन्हें उचित सम्मान देने में समाज अभी भी कोताही बरतता है।
– कैलाश जैन (एडवोकेट)
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