बीजिंग ओलंपिक के मशाल प्रज्ज्वलन की घड़ी ज्यों-ज्यों नजदीक आ रही है, 1 अरब 20 करोड़ की आबादी वाले हिंदुस्तान की धड़कनें बढ़ने लगी हैं। हमेशा की तरह फिर वही यक्ष प्रश्न आ खड़ा हुआ है कि क्या ओलंपिक में हमारी असफलता के अभिशाप का सिलसिला टूटेगा? क्या कोई हिंदुस्तानी खिलाड़ी अपने दम पर फकत एक सोने का तमगा ला पायेगा? क्योंकि हिंदुस्तान ने अब तक के ओलंपिक इतिहास में जो 8 सोने के तमगे जीते हैं, वे सब के सब हॉकी की टीम स्पर्धा में जीते हैं और कोढ़ में खाज वाली बात यह है कि पिछले 80 सालों में पहली बार भारतीय हॉकी टीम ओलंपिक में नहीं होगी। जब से भारतीय हॉकी टीम ने ओलंपिक में हिस्सा लेना शुरू किया था, तब से यह पहला ऐसा मौका होगा, जब हमारी टीम खेलों के इस महाकुंभ में मौजूद नहीं होगी।
बावजूद इसके तकरीबन 100 के आसपास खिलाड़ियों, अधिकारियों और खिलाड़ियों के सहयोगियों का दल बीजिंग रवाना हो रहा है। शूटिंग, तीरंदाजी, तैराकी, मुक्केबाजी, कुश्ती, बैडमिंटन, टेनिस, नौकायन और एथलेटिक्स सहित कई प्रतिस्पर्धाओं में भारत के खिलाड़ी उतरेंगे, तो लेकिन क्या पोडियम पर भी खड़े होंगे? यही सवाल देश का हर खेल प्रेमी और खेलों से रिश्ता न रखने वाला भी फिलहाल देशभक्ति की पृष्ठभूमि में पूछ रहा है।
यह न सिर्फ हास्यास्पद अपितु एक बेहद गंभीर और मार्मिक सत्य है कि दुनिया में दूसरे नंबर की सबसे बड़ी आबादी वाला हमारा देश खेलों के मामले में इथोपिया, सोमालिया, पेरू, उरुग्वे तथा पराग्वे जैसे देशों से भी फिसड्डी साबित होता है। जब भी ओलंपिक का जिा छिड़ता है तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। एक अजीब-सी जकड़न में हम बंध गये लगते हैं कि आजादी के बाद से अब तक के तमाम ओलंपिक खेलों में हमारे हजारों खिलाड़ी हिस्सा ले चुके हैं मगर एक हॉकी टीम को छोड़ दें तो कुल जमा अभी तक हमारे खिलाड़ियों ने महज चार व्यक्तिगत पदक जीते हैं। जिसमें तीन कांस्य पदक हैं और एक रजत पदक।
1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में कसाबा जाधव देश के पहले वह खिलाड़ी थे, जिन्होंने आजादी के बाद कोई व्यक्तिगत पदक जीता था। कसाबा जाधव ने कुश्ती में कांस्य पदक जीता था। लेकिन फिर 44 साल तक व्यक्तिगत पदकों का सूखा रहा। हमारे उड़न सिख, उड़नपरी, हमारे मुक्केबाज और पहलवान प्रभावित तो करते रहे, लेकिन पोडियम पर खड़े होने का अगले 44 सालों तक किसी को कोई अवसर हासिल नहीं हुआ। 1996 के अटलांटा ओलंपिक में जाकर लिएंडर पेस ने कांस्य पदक जीता। हालांकि 1952 की तरह अगले पदक के बीच फिर लम्बा अंतराल नहीं रहा और सन् 2000 के सिडनी ओलंपिक में जब तमाम बड़े-बड़े सूरमा खिलाड़ी, जिनसे पदकों की उम्मीद थी, चित्त हो गये, तब भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्र्वरी ने एक अरब वाले देश की लाज रखी और सूची में हिंदुस्तान का नाम भी शामिल करवाया कांस्य पदक जीतकर। पिछले यानी सन् 2004 के एथेंस ओलंपिक में पहली बार व्यक्तिगत पदकों की श्रेणी में हम एक कदम ऊपर बढ़े, जब डबल टैप स्पर्धा में राज्यवर्द्घन सिंह राठौर ने रजत पदक जीता।
आजादी के बाद से अब तक हमने सिर्फ 4 व्यक्तिगत पदक जीते हैं- 3 कांस्य और 1 रजत अगर हॉकी टीम को अलग रखें। सवाल उठता है क्या यह सिलसिला अब टूटेगा? क्या हम भी चीन की तरह कभी यह साबित कर पायेंगे कि बड़ी आबादी का मतलब सिर्फ खाने वाले पेट ही नहीं होते बल्कि इसका मतलब अमूल्य मानव संपदा भी होता है। यह शोध का विषय होना चाहिए कि आखिर हर क्षेत्र में भारतीयों ने अपने दमखम और सफलता का जो परचम लहराया है, खेलों की दुनिया में वैसा अब तक हम क्यों नहीं कर पाये? क्या हम स्वभाव से ही खेल-प्रेमी नहीं हैं? क्या हमारी शारीरिक संरचना ही खेलों के अनुकूल नहीं है? कई बार मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री इस तरह के विश्लेषण के जरिए तात्कालिक गम भुलाने का आधार प्रदान करते हैं। जबकि हकीकत यह नहीं है। न तो हमारी जलवायु उन गरीब अफ्रीकी देशों के मुकाबले गई-गुजरी है, जो तमाम अभावों के बावजूद ओलंपिक की टैक और फील्ड स्पर्धाओं में अपने देश का झंडा बुलंद करते हैं और न ही हमारे यहां खेलकूद का ढांचा यानी बुनियादी सुविधाएं इतनी कम हैं कि हम उनकी आड़ लेकर अपनी इन असफलताओं को तर्क प्रदान कर सकें। बावजूद इसके यह सवाल तो किसी यक्ष प्रश्न की तरह मौजूद ही है कि विज्ञान, तकनीकी, कला, संस्कृति, सिनेमा, प्रबंधन, व्यापार और राजनीति जैसे क्षेत्र में जब हम दुनिया से टक्कर ले सकते हैं, विकास के मामले में हम चमत्कार करने की क्षमता रखते हैं, तो फिर खेलों में हमें क्या हो जाता है?
वास्तव में तमाम बड़े खेल आयोजनों में हमारी असफलता का कारण महज सुविधाओं का अभाव नहीं है। वास्तव में खेलों में हमारे इस कदर फिसड्डी होने के पीछे हमारा सामाजिक और राजनीतिक चरित्र काफी जिम्मेदार है। सरकारी खेल तंत्र बेहद गैर-जिम्मेदार है। नौकरशाही के भरोसे होने के कारण हमारे पूरे खेल ढांचे में कोई ऐसा शीर्ष नहीं है जिस पर असफलता की जिम्मेदारी डाली जा सके। सफलता के श्रेय का बंटवारा करने के लिए तो दर्जनों लोग तैयार रहते हैं लेकिन हमारे खेल ढांचे में जो बहुस्तरीयता है, उसके कारण किसी भी असफलता के लिए कोई यह नहीं मानता कि वह जिम्मेदार है। हर कोई जिम्मेदारी दूसरे पर टालता है। खिलाड़ी अपनी असफलता का ठीकरा ऐन मौके पर सुविधाओं की कमी पर डाल देता है। अधिकारी बड़े अधिकारी पर और बड़े अधिकारी कार्यवाहक तंत्र पर। इस तरह सब पर जिम्मेदारी डालने का नतीजा यह निकलता है कि किसी एक पर जिम्मेदारी नहीं जाती, कोई दोषी नहीं ठहराया जाता। नतीजतन असफलता का सिलसिला चलता रहता है बिना परेशान हुए।
एक और बड़ी बात है। हम अगर पिछले 60-61 सालों से व्यक्तिगत स्तर पर एक भी सोने का तमगा नहीं जीत पाये तो इसका एक बड़ा कारण खेलों को लेकर हम में किसी जुनून का न होना भी है। ऐसा नहीं है कि हमारे खिलाड़ी जीतना नहीं चाहते। यह भी नहीं है कि हमारे खिलाड़ी मेहनत नहीं करते। मगर हमारे खिलाड़ी और उनके परिवार के लोग हमेशा दोहरी शंकाओं में रहते हैं कि अगर कुछ नहीं बन पाये तो क्या होगा? फिर रोजी-रोटी कैसे कमायी जायेगी। यानी सिर्फ खेल अभी भी हमारे यहां एक कॅरिअर के रूप में स्थापित नहीं हो सका है। खिलाड़ियों को अक्सर अपनी रोजी-रोटी की चिंता लगी रहती है। हमारे यहां जो खिलाड़ी सफल होता है, बाद में उसकी कुछ असाधारण कहानियां सामने आती हैं कि कैसे तमाम अभाव और विरोध के बावजूद वह अपनी धुन में लगा रहा। लोग उन्हें पढ़ते हैं, सुनते हैं और रोमांचित होते हैं। वास्तव में सफल होने के बाद इस तरह के किस्से-कहानियां बहुत अच्छी लगती हैं, लेकिन ऐसा हजारों-लाखों में किसी एक के साथ होता है। ज्यादातर खिलाड़ियों को आशंकित असफलता इस कदर भयावह लगती है कि वह पूरे जुनून के साथ कभी भी खेलों में शिरकत ही नहीं कर पाता।
लेकिन अब धीरे-धीरे परिदृश्य बदल रहा है। कार्पोरेट क्षेत्र आगे बढ़कर देश में एक नयी खेल-संस्कृति की नींव रख रहा है। इस नयी खेल संस्कृति के साये में बीजिंग ओलंपिक पहला ओलंपिक होगा। शायद यही वजह है कि अतीत की तमाम निराशाओं के बावजूद इस बार हमें अपने कुछ खिलाड़ियों से पदक हासिल करने वाला खेल दिखाने की उम्मीद है। चीन की तरह हम यह तो दावा नहीं कर सकते कि हमने स्वर्ण पदक जीतने का नुस्खा हासिल कर लिया है और फिर उस दावे को सच साबित करके भी दिखा दें, लेकिन लगता है कि इस बार कुछ चमत्कार होगा। हालांकि 80 सालों में पहली बार हमारी हॉकी टीम इस बार ओलंपिक खेल गांव में नहीं होगी। लेकिन शूटिंग, बॉक्ंिसग, तीरंदाजी और थोड़ी और हिम्मत करें तो टेनिस में लगता है कि इस बार कोई न कोई सोने का पदक मिल जायेगा। सबसे ज्यादा उम्मीद शूटिंग और तीरंदाजी को लेकर ही है।
रायफल शूटिंग में गगन नारंग, टैप शूटिंग में मानवजीत सिंह संधू, बॉक्ंिसग में अखिल कुमार, तीरंदाजी में मंगल सिंह चंपिया ये कुछ ऐसे खिलाड़ी हैं, जो उम्मीदें बंधा रहे हैं। एक नये आशावाद का संचार कर रहे हैं। यूं तो राज्यवर्द्घन सिंह राठौर से भी सबको उम्मीदें हैं, लेकिन पिछले ओलंपिक का यह रजत पदक विजेता हाल की कई स्पर्धाओं में लगातार अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सका है। मगर उनकी भरपाई के लिए इस बार रायफल शूटर अभिनव बिंद्रा और गगन नारंग ओलंपिक में मौजूद होंगे। गौरतलब है कि ये दोनों खिलाड़ी दुनिया के मौजूदा टॉप-10 रायफल शूटरों में गिने जाते हैं। गगन नारंग फिलहाल पूरे फॉर्म में हैं। दुनिया के शूटरों में सातवीं रैंकिंग हासिल करने वाले गगन नारंग ने 2006 के विश्र्वकप में 10 मीटर एयर रायफल का स्वर्ण पदक जीता था। जबकि अप्रैल 2008 में उन्होंने इसी प्रतियोगिता का कांस्य पदक जीता। डबल टैप में राठौर के अलावा मेलबोर्न राष्टमंडल खेलों के हीरो समरेश जंग और मानवजीत सिंह संधू कमाल कर सकते हैं। समरेश जंग ने मेलबोर्न में तहलका मचा दिया था। एक के बाद एक उन्होंने चार पदक झटके थे। इस सूची में अंजलि भागवत भी शामिल हैं जिन्हें भारतीय निशानेबाजी की गोल्डेन गर्ल कहा जाता है। हालांकि उनसे एथेंस ओलंपिक के समय भी बहुत उम्मीदें लगायी गयी थीं, लेकिन वह कहती हैं, “”इस बार मैं कोशिश करूंगी कि खाली हाथ न लौटना पड़े।”
यूं तो एथलेटिक्स में हमने आज तक कोई पदक नहीं जीता, बस पदक जीतते-जीतते रह गये। लेकिन लगता है, अब इतिहास बदलने की घड़ी आ गयी है। अंजू बॉबी जॉर्ज ने लम्बी कूद में एथलेटिक्स विश्र्व चैम्पियन की कांस्य पदक विजेता बनने के बाद उम्मीदें बढ़ा दी हैं और अगर खेल मंत्री एम.एस.गिल की मानें तो 4 गुणा 400 मीटर की महिला रिले दौड़ में हमारी लड़कियां जिनमें चित्रा सोमण, राजा एम.पुयम्मा, मनदीप कौर और एस.गीता शामिल हैं, कमाल कर सकती हैं। ये पोडियम तक पहुंचने का दमखम रखती हैं बशर्ते वह दिन उनका हो और ये सही समय पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकें। भारोत्तोलन में हालांकि इस बार भारत की नुमाइंदगी सिर्फ 69 किलो वर्ग में मोनिका देवी कर रही हैं। लेकिन कई विशेषज्ञों का मानना है कि कम उम्मीदों से बोझिल मोनिका पदक जीत सकती हैं।
जिन खिलाड़ियों ने भारत की पदक को लेकर उम्मीदें बंधायी हैं, उनमें भारत के पहलवान भी शामिल हैं। इस बार बीजिंग ओलंपिक में जिन पहलवानों से देश को तमगे की उम्मीद है, उनमें योगेश्र्वर दत्त 60 किलो फ्रीस्टाइल, सुशील कुमार 66 किलो फ्रीस्टाइल और राजीव तोमर 120 किलो फ्रीस्टाइल हैं। हल्के वजन वर्ग में योगेश्र्वर दत्त और सुशील कुमार भारत का प्रतिनिधित्व करेंगे, जबकि बड़े भार वर्ग में राजीव तोमर पर यह जिम्मेदारी होगी। योगेश्र्वर दत्त और सुशील कुमार बेहद प्रतिभाशाली हैं। हालांकि इन दोनों के पास अनुभवों की कमी है। विश्र्व कैडेट कुश्ती चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीत चुके योगेश्र्वर और सुशील का जोश अनुभवहीनता की भरपाई कर सकता है। इन पर नजदीकी नजर रखने वाले कई विशेषज्ञों का यह कहना है। योगेश्र्वर बेहद फुर्तीले और आाामक पहलवान हैं। इसी साल कोरिया में एशियाई चैम्पियनशिप के दौरान उन्होंने स्वर्ण पदक जीतकर बीजिंग का रास्ता साफ किया था। दूसरी तरफ विश्र्व चैम्पियनशिप में छठां स्थान हासिल करने वाले सुशील कुमार से भी लोगों को काफी उम्मीदें हैं। सुशील की भी खासियत उनका अटैक है। वह मुकाबले की शुरुआत में ही प्रतिद्वंद्वी पर हावी हो जाते हैं और अब तक ज्यादातर मौकों में उनकी यह चाल सफल साबित होती रही है। इससे उम्मीद है कि वह इस बार देशवासियों की पदकों की उम्मीद को पूरा करेंगे। योगेश्र्वर ने इसी साल एशियाई चैम्पियनशिप में जापानी पहलवान को हराकर 21 साल बाद देश को स्वर्ण पदक दिलाया था।
हालांकि बैडमिंटन से ज्यादातर लोगों को पदकों की उम्मीद नहीं है, लेकिन पूर्व दिग्गज खिलाड़ी प्रकाश पादुकोण ने उम्मीद जतायी है कि सायना नेहवाल और अनूप श्रीधर भारत को बीजिंग ओलंपिक में कोई न कोई पदक जरूर दिलायेंगे। सायना फिलहाल फार्म में भी चल रही हैं और पिछले कुछ दिनों में ही वह दुनिया की प्रमुख 20 बैडमिंटन खिलाड़ियों में अपनी जगह बनायी है। अनूप श्रीधर का खेल हालांकि मिश्रित रहा है, लेकिन जानकारों का मानना है कि अगर उन्हें अनुकूल डा मिल गया तो वह फेरबदल कर सकते हैं। मुक्केबाजी में सबसे बड़ी उम्मीद 27 वर्षीय अखिल कुमार से है। 2006 के राष्टमंडल खेलों में स्वर्ण पदक हासिल करने वाले इस दिग्गज मुक्केबाज में आत्मविश्र्वास लबालब है और अपने इस आत्मविश्र्वास की बदौलत यह कुछ भी कर सकते हैं। 54 किलो वर्ग का यह फाइटर भारतीयों की उम्मीदों का सबसे बड़ा केन्द्र भी है। एक और चैम्पियन जो शायद अभी ध्यान खींच पाने में असमर्थ है मगर वह हमारे लिए तुरुप का इक्का साबित हो सकता है वह भी तैराकी में जहां आस्टेलिया और अमेरिका की बादशाहत तोड़ने के लिए चीन गुप्त अभियान में जुटा है। जी हां, इसी तैराकी में कोल्हापुर के 16 वर्षीय छात्र वीरधवल खाड़े एक सनसनी साबित हो सकते हैं। क्योंकि उन्होंने पिछले एक साल में बहुत मेहनत की है। खाड़े ने अपनी दसवीं की परीक्षाएं भी इसीलिए छोड़ी हैं और बीजिंग में वह अपने अब तक के तमाम रिकार्डों को तोड़ डालना चाहते हैं।
मंगल सिंह चंपिया कभी तीर-कमान लेकर पक्षियों के पीछे भागा करते थे। झारखंड के सिंहभूम जिले का यह 24 वर्षीय नौजवान इस बार पीले तमगे के पीछे तेजी से भागने वाला है। 2007 में मंगल सिंह चंपिया ने एशियन चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीता था। महिला तीरंदाजों में डोला बनर्जी, बोमबायला आदि पर उम्मीदें हैं। जूडो, पाल नौकायन, नौकायन, टेबल टेनिस और तैराकी से यूं तो बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं हैं, लेकिन खिलाड़ी उत्साह से भरे हैं और लगता है कुछ कमाल दिखायेंगे। बहरहाल, पिछले 60 सालों से बार-बार ओलंपिक में कोई वैयक्तिक स्वर्ण पदक न जीत पाने की जो कसक, जो पीड़ा पर्वत-सी बन गयी है, अब उस पीड़ा के पर्वत को पिघलना ही चाहिए। पर क्या ऐसा होगा? यह सवाल इसलिए क्योंकि हम हमेशा ओलंपिक के लिए रवाना होने वाले अपने खिलाड़ियों के दल से यह उम्मीद करते हैं और हर बार वह हमें निराश करते हैं। मगर उम्मीद ही की जा सकती है कि इस बार निराशा का सिलसिला टूटेगा।
– कृष्णपाल सिंह
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