टाटा की लखटकिया कार “नैनो’ को स्वयं उन्हीं की घोषणा के अनुसार इस साल मार्केट में लॉंच हो जाना था। लेकिन उनकी यह महत्वाकांक्षी योजना, जिसके जरिये उन्होंने वैश्र्विक स्तर पर आटोमोबाइल क्षेत्र में ाांतिकारी इतिहास रचने का संकल्प लिया था, अब अधर में लटकती समझ में आती है। कारण यह कि सिंगूर (प. बंगाल) स्थित इसके कारखाने में खुद उनकी ही मरजी से एक अघोषित बंद के ही साथ काम ठप्प हो गया है। एक दिन पहले तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व में इस परियोजना के लिए अधिग्रहीत की गई अतिरिक्त भूमि की वापसी की मॉंग करने वाले प्रदर्शनकारियों ने करखाने के स्टाफ के साथ मुख्यद्वार पर धक्का-मुक्की की थी और दूसरे दिन एक भी अधिकारी अथवा कर्मचारी काम पर नहीं आया। हालॉंकि परियोजना की प्रबंध समिति की ओर से सिंगूर से इस परियोजना को स्थानांतरित करने अथवा कारखाना बंद करने की कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गई है, लेकिन प्रबंधकों ने अपने पूरे स्टाफ को काम पर जाने से मना कर दिया है। उनका कहना है कि जिस तरह की परिस्थितियॉं इस परियोजना के खिलाफ पैदा की गई हैं, उनमें इसका काम आगे बढ़ा पाना सख्त मुश्किल है।
इस घटना के बाद यह कयासबाजी तेज हो गई है कि अगर सिंगूर में हालात नहीं सुधरे और तृणमूल नेता ममता बनर्जी ने टाटा के इस प्रोजेक्ट के खिलाफ अपना आंदोलन वापस नहीं लिया तो कारखाना बन्द भी हो सकता है। इस बात की घोषणा प्रोजेक्ट के मैनेजिंग डायरेक्टर रतन टाटा बहुत पहले कर चुके हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि सामान्य स्थिति बहाल किये बिना परियोजना पर आगे काम करना मुश्किल होगा, ऐसी परिस्थिति में प्रोजेक्ट को कहीं अन्यत्र भी स्थानांतरित किया जा सकता है। उनका यह बयान आने के बाद इस महत्वाकांक्षी परियोजना को हासिल करने के लिए कई राज्यों ने टाटा को अपने-अपने प्रदेशों में कारखाना लगाने का आमंत्रण देना शुरू कर दिया है। इस संभावना को ़खारिज करने के लिए प. बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्घदेव भट्टाचार्य ने भी कहा है कि “नैनो’ कार का प्रोजेक्ट अन्यत्र कहीं नहीं जाएगा और यह कार अपने पूर्व घोषित समय पर ही मार्केट में लांच होगी। उन्होंने अपने इस बयान में यह भी कहा है कि परियोजना के संबंध में विरोधी पक्ष की जो भी मॉंग है, उस पर विचार कर उसका समाधान ढूंढने के लिए वे एक टेबल पर बैठ कर ममता बनर्जी से बात करने को तैयार हैं। उधर परियोजना के खिलाफ आंदोलन का सूत्रपात करने वाली तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी का कहना है कि उनका विरोध इस परियोजना के बाबत कत्तई नहीं है। वह बस इतना चाहती हैं कि इसके लिए जो अतिरिक्त भूमि किसानों की मरजी के खिलाफ अधिग्रहीत कर ली गई है, उसे उन्हें वापस कर दिया जाय।
़गौरतलब है कि प. बंगाल सरकार ने परियोजना के लिए शुरुआती दौर में सिर्फ 600 एकड़ ़जमीन की आवश्यकता बतायी थी और यही मॉंग टाटा की भी थी। लेकिन जमीन 1000 एकड़ एक्वायर की गई। सारा झगड़ा इसी अतिरिक्त 400 एकड़ ़जमीन का है। सरकार और रतन टाटा का कहना है कि यह ़जमीन फालतू नहीं है क्योंकि इस पर सहायक उद्योग लगाये जायेंगे। ममता बनर्जी इसे किसानों के साथ खुले तौर पर की गई धोखाधड़ी मानती हैं और इस ़जमीन की वापसी का आंदोलन चला रही हैं। स्थिति इस समय ऐसे निर्णायक मोड़ पर आ गई है कि अगर संबंधित पक्षों ने इस समस्या का समय रहते कोई हल तलाश नहीं किया तो परियोजना प. बंगाल के हाथ से निकल भी सकती है। सरकार ने तो बहुत अर्थों में अपने को जिम्मेदार मानते हुए अपने रु़ख में नरमी का इ़जहार किया है, लेकिन ममता बनर्जी का तेवर ज्यों का त्यों बना हुआ है। फिर भी वे शायद ही यह चाहें कि इतना बड़ा प्रोजेक्ट प. बंगाल के हाथ से निकल जाय। उनकी मंशा सिर्फ प. बंगाल की सत्ता पर काबिज वामपंथी सरकार को राजनैतिक तौर पर शिकस्त भर देने की है। अतः उनसे इस तरह की नासमझी की उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती कि वे अपने आंदोलन को टाटा विरोधी बनाते-बनाते बंगाल विरोधी बना दें।
रतन टाटा अपनी इस परियोजना को अगर सिंगूर से कहीं अन्यत्र ले जाते हैं तो यह प. बंगाल के औद्योगिक विकास के लिए एक बड़ी त्रासदी होगी। फिर कोई भी देसी-विदेशी उद्योगपति बंगाल में पूंजी निवेश की हिम्मत नहीं दिखाएगा। एक बहुत बड़ा नुकसान यह होगा कि अपनी जिस राजनीतिक प्रतिबद्घता से बाहर आकर और चीन की तरह मार्क्सवाद की किताब ताक पर रख कर बुद्घदेव भट्टाचार्य ने बंगाल के विकास का नक्शा तैयार किया है, वह फिर मार्क्सवादी हो जाएगा और बंगाल की गरीबी भी अपने पड़ोसी बिहार की शक्ल लेने लगेगी। हालॉंकि अभी अपने इस प्रोजेक्ट के संबंध में रतन टाटा ने कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया है लेकिन खतरे की घंटी बजनी शुरू हो गई है। प. बंगाल में अपनी-अपनी परियोजनाओं को लेकर कई अन्य उद्योगपतियों के मन में भी अपने लिए दहशत पैठ गई है। इस हालत में यह संभावना भी व्यक्त की जा रही है कि अगर टाटा की ओर से अपना “नैनो’ कारखाना सिंगूर से हटाने का निर्णय लिया गया तो ये उद्योगपति भी उनके नक्शे-कदम पर चल सकते हैं। वामपंथी सरकार के साथ ममता बनर्जी की लड़ाई किस मुकाम तक जाएगी, यह तो कहना मुश्किल है, लेकिन इस लड़ाई की बलिवेदी पर कम से कम बंगाल को तो नहीं ही चढ़ाया जाना चाहिए।
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