इंसान ने हर युग में किसी न किसी चीज का नशा किया है और अब लेटेस्ट नशा है वीडियो गेम्स का। …क्या कहा आपने? वीडियो गेम्स का नशा, नशा नहीं होता? हॉं, खेलने वाले तो यही कहते हैं कि हमें कोई नशा-वशा नहीं है, हम जब चाहें “ब्रेक’ लगा सकते हैं। लेकिन सच मानिए, ऐसा होता नहीं है और यह बात बाकायदा कई शोधों द्वारा पता की गई है।
आज वीडियो गेम्स का चलन बहुत तेजी से फैल रहा है। कोई अपने पी.सी. पर, कोई मोबाइल पर, कोई कन्सोल पर या किसी दूसरे डिवाइस पर वीडियो गेम्स खेल रहा है। शुरू में यह बड़ा म़जेदार टाइम पास लगता है लेकिन फिर इसका नशा चढ़ने लगता है। मोनिका कॉलेज से आते ही यह सोचकर गेम खेलने बैठती है कि पंद्रह-बीस मिनट खेलकर मूड रिफ्रेश कर लिया जाए… और अचानक वह पाती है कि खेलते-खेलते तीन-चार घंटे निकल गए। रमन ऑफिस की एक ़जरुरी मीटिंग में बैठा है और उसका दिमाग किसी गेम की स्टेटेजी बनाने में लगा है। अब आप ही बताइए, क्या मोनिका और रमन की इस हालत को आप वीडियो गेम्स का नशा नहीं कहेंगे? अमेरिका में किये गए एक सर्वे में पाया गया कि दस में से केवल एक गेमर स्वीकार करता है कि उसे गेम्स का नशा है। चार में से एक गेमर कहता है कि उसने गेम के चक्कर में एक पूरी रात जागकर गुजारी है। हर चार में से एक गेमर यह भी स्वीकार करता है कि खेलने के चक्कर में वह खाने-पीने की सुध-बुध खो बैठता है।
सवाल ये है कि क्यों होता है वीडियो गेम्स का नशा? इसका एक ठोस वैज्ञानिक कारण है। दरअसल हमारा दिमाग कुछ इस तरह बना है कि कोई पुरस्कार पाने की संभावना हो या कुछ नया टटोलने का मौका, यह तुरंत उस ओर भागता है। इसमें डोपामीन नामक न्यूरोटांसमीटर बड़ी भूमिका निभाता है। यही नशीले पदार्थ के मामले में भी अहम रोल अदा करता है।
अब अगर आप गौर से देखें तो पाएँगे कि अधिकतर वीडियो गेम्स इस तरह डिजाइन किए जाते हैं कि वे हमें पुरस्कार पाने की संभावना भी दिखाएँ और कुछ नया टटोलने का मौका भी दें। हरदम कुछ नया अनुभव करने का मौका और जीत का पुरस्कार पाने की संभावना… बस, दिमाग से डोपामीन निकलना शुरू हो गया… और हो गई नशे की शुरुआत!
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