शुद्घ चेतना पर आधारित वैदिक स्वास्थ्य पद्घति के तहत मंत्र चिकित्सा, पंचकर्म और आयुर्वेदिक औषधियों से अपने नागरिकों का जीवन निरोग बनाकर विकासशील देश अपने स्वास्थ्य व्यय को आधे से भी ज्यादा कम कर सकते हैं। वेद प्रधान आयुर्वेद ही भारत सहित समूची दुनिया में निरोग समाज की स्थापना कर सकता है। दुःख की बात तो यह है कि “इंटीग्रेटिड हेल्थ सिस्टम’ के नाम पर आयुर्वेद को उसके मूल वेद से पृथक करने के प्रयास हो रहे हैं, जिस पर रोक न लगी तो “आयुर्वेदोऽमृतानाम्’ का प्रभाव ही मिथ्या हो जाएगा।
भारत में मंत्र चिकित्सा का विशेष महत्व रहा है, लेकिन काल के प्रभाव में उसका समग्र रूप छिन्न-भिन्न हो गया था, जो मनुष्य के शरीर में वैदिक वाङ्मय की खोज के बाद अपने वैज्ञानिक और समग्र रूप में पुनः प्रकाशित हुआ है। वैदिक मंत्रों में व्यष्टि के प्रकृति वैषम्य को दूर कर साम्य स्थापित करने का अद्भुत सामर्थ्य है, जो मनुष्य द्वारा जाने-अनजाने में प्रकृति के नियमों की अवहेलना के कारण उत्पन्न होता है।
वैदिक मंत्र उस शुद्घ एवं शांत चेतना के स्पंदन हैं, जिससे मानव शरीर सहित समूचे चराचर जगत का सृजन, पालन और विकास हो रहा है। वेद, पुराण, महाभारत और रामायण सहित वैदिक वाङ्मय के सभी चालीस क्षेत्र दस-बीस हजार वर्ष पूर्व कवियों द्वारा की गई काल्पनिक रचनाएं नहीं, बल्कि मनुष्य सहित समूची सृष्टि के मूल में नित्य प्रवाहित चेतना के स्पंदन हैं, आर्ष ऋषियों ने जिनका अपनी ब्राह्मी चेतना में दर्शन कर मानवता को सुपुर्द किया।
आधुनिक विज्ञान ने भी सिद्घ कर दिया है कि सारे देवी-देवता मानव शरीर में ही बैठे हुए हैं। वैदिक मंत्रों में, वैदिक तकनीकों में हजारों, लाखों, करोड़ों जाप एवं स्तोत्र का जो विधान है, उनका बड़ा महत्व है। इनमें बड़े व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप से प्रकृति की क्रियाशक्ति जगती है। वेद के सारे मण्डल क्रियात्मक क्षेत्र हैं। धनुर्वेद में वैदिक वाइब्रेशन टेक्नोलॉजी अर्थात् मंत्र चिकित्सा है। मंत्रों की यह विद्या भारत के गांव-गांव में है। भारत की वैदिक ज्ञान परम्परा के तहत चेतना में, सांस में इस शक्ति को, मंत्रों के इन स्पंदनों को झंकृत करने का विधान है। भारत का यह वेद-विज्ञान बड़ा विज्ञान है, इसीलिए भारतभूमि को वेदभूमि, देवभूमि, पूर्णभूमि कहते हैं। अपनी गुरु परम्परा में अपने पूर्वजों से, अपने परिवारों से यह विद्या हमें मिली है, इसको जगाये रखना चाहिए। अपने वेद-साहित्य, वेद-मंत्रों में इन देवी-देवताओं को क्रिया रूप में अपनी चेतना में कैसे जगा लें, यह ज्ञान अपने यहां भरा पड़ा है।
मनुष्य सहित समूची सृष्टि वेद के स्पंदनों से निर्मित है और यह पता लगने के बाद कि मनुष्य के शरीर का कौन-सा हिस्सा वैदिक वाङ्मय के किन स्पंदनों से बना है, व्यक्ति की बीमारी को औषधि की बजाए मंत्रों से ठीक करना पूरी तरह सम्भव हो गया है। भारत के स्वास्थ्य-व्यवस्थापक विशेषज्ञों को चाहिए कि वे साइड-इफेक्ट से युक्त आधुनिक औषधियों की बजाय वैदिक स्वास्थ्य प्रणाली से निरोग समाज का निर्माण करें। वैदिक स्वास्थ्य पद्घति में जहां उच्च चेतना के स्तर से मंत्रोपचार की व्यवस्था है, वहीं यह समग्र स्वास्थ्य की श्रेष्ठ व्यवस्था भी है। औषधियों पर आधारित पार्श्र्व प्रभाव युक्त रोगोपचार पद्घति उससे कमतर है।
वास्तव में सर्जरी या शल्य-कर्म तो “फेल्योर ऑफ मेडिसिन’ अर्थात् उपचार की विफलता है। स्वास्थ्य के लिए सर्जरी या किसी अंग का चीड़-फाड़ कर निकाल देने का अर्थ है कि व्यक्ति का प्रकृति की उन शक्तियों से सम्पर्क टूट गया, जो जीवन का रचनात्मक और ऊर्ध्वगामी दिशा में नियमन करती हैं। औषधियों में दुष्प्रभावों युक्त एलोपैथिक औषधियां तो जीवन के लिए बहुत ही हानिकारक हैं। इस बात की पुष्टि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान स्वयं समय-समय पर करता रहता है।
आयुर्वेद आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की चकाचौंध में अपने मूल वेद से कट कर प्रच्छिन्न हो गया है और उसका प्रभाव वह नहीं रह गया, जिसके लिए वह विख्यात है। वेद का अर्थ पूर्ण ज्ञान है, जो व्यक्ति की अपनी आत्मचेतना में नित्य लहराता रहता है। आत्मा अजर-अमर और अविनाशी है और उसे वैदिक विधानों से जगाकर व्यक्ति को जरा, क्षरण और मृत्यु से दूर रखा जा सकता है। मनुष्य का शरीर वेद-वेदांगों के मंत्रों से मिलकर बना है। इसलिए हर अंग को उसके वेद-वेदांगों के मंत्रों से ठीक किया जा सकता है। इस पद्घति से रोगों की रोकथाम और उपचार वैसे ही होता है, जैसे किसी पौधे में उसके फल, पत्ती, फूल आदि में सुधार के लिए उसका रस की सत्ता के स्तर पर संशोधन किए जाये।
जहां प्रगतिशीलता के नाम पर वैद्यों का एक समुदाय एकीकृत चिकित्सा प्रणाली जैसी खतरनाक पहल कर रहा है, वहीं योगसंसिद्घ वैद्यों के अभाव में आयुर्वेद जड़ी-बूटियों तक सिमट गया है। समग्र स्वास्थ्य लाभ के लिए रोगी के साथ वैद्य का चेतना स्तर भी उच्च होना आवश्यक है। वैद्य की श्रेष्ठता इसमें है कि वह रोगी को नाड़ी का स्पर्श करके ही रोगमुक्त कर दे। उनके अंदर उच्च चेतना के स्तर से ही रोगियों को प्रज्ञापराध से मुक्त कर निरोग बनाने की सामर्थ्य होनी चाहिए। जड़ी-बूटियों की आवश्यकता तो यदाकदा कुछ विशेष प्रकार के जड़-विकारों को दूर करने में ही पड़नी चाहिए।
वैदिक स्वास्थ्य पद्घति में भावातीत ध्यान और भावातीत ध्यान सिद्घ कार्याम के माध्यम से चेतना को ब्राह्मी बनाने का यौगिक विधान है। उसमें पूर्वजन्म के संस्कारों और ग्रहों के कोप के कारण उत्पन्न मानसिक विकार जो शारीरिक व्याधि का जनक होते हैं, विभिन्न देवी-देवताओं की मंत्रों में निहित सत्ता और शक्ति से ही दूर हो जाते हैं। उसके लिए रोगोपचार के औषधीय एवं शाल्यिक उपायों की आवश्यकता नहीं रहती।
देश के स्वास्थ्य व्यवस्थापकों को वैदिक स्वास्थ्य पद्घति और वैदिक मंत्रों से शरीर के व्यतिाम दूर करने की प्रणाली को अपनाने पर जोर देना चाहिए।
– राजीव श्रीवास्तव
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