वामदलों द्वारा डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद लोकसभा का विशेष सत्र बीती 21 व 22 जुलाई को बुलाया गया था ताकि सरकार विश्र्वास मत के ़जरिए साबित कर सके कि वह बहुमत में है। जोड़-तोड़ करके सरकार ने 275 मत हासिल करके यह तो दिखा दिया कि उसे बहुमत प्राप्त है, लेकिन इसके कारण जो सियासी दिक्कतें उसके सामने आयी हैं उससे संसद का मानसून सत्र का बुलाया जाना ही मुश्किलों में फंस गया है।
गौरतलब है कि विश्र्वास मत हासिल करने सम्बंधी राष्टपति के निर्देश से पहले केन्द्रीय काबीना ने फैसला किया था कि आगामी 11 अगस्त से संसद का मानसून सत्र बुलाया जायेगा। लेकिन इस बीच अमेरिका से नागरिक परमाणु करार को लेकर सियासत ने जो करवटें बदलीं, उसके चलते सरकार ने अब तक अपने इस फैसले के अनुमोदन हेतु राष्टपति के समक्ष आवेदन नहीं किया है। इससे यह अटकलें लगने लगी हैं कि सरकार अब मानसून सत्र बुलाना ही नहीं चाहती। वह 21 व 22 जुलाई को जो विशेष सत्र बुलाया गया था, उसे ही मानसून सत्र मान रही है।
दरअसल, सरकार के सामने जो सियासी दिक्कतें हैं उनको मद्देनजर रखते हुए एक विचार यह बन रहा है कि अब आम चुनावों से पहले संसद का सिर्फ शीतकालीन सत्र ही बुलाया जाए। इस सत्र को इस वर्ष नवंबर-दिसंबर में बुलाया जाए और इसका मुख्य एजेंडा सिर्फ “वोट ऑन एकाउंट’ पारित करना हो ताकि चुनावों से पहले बजट पेश न करना पड़े।
अब सवाल यह है कि सरकार के सामने ऐसी क्या दिक्कतें हैं जिनकी वजह से वह मानसून सत्र को गोल करना चाहती है? सबसे पहली बात तो यह है कि जब चुनाव इतने करीब हैं तो सरकार विपक्ष को यह मौका नहीं देना चाहती कि वह संसद में उसकी घेराबंदी करे और अपने लिए वोट पक्की करे। अब विपक्ष के पास भी सरकार को घेरने के लिए कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिनमें प्रमुख हैं- विश्र्वास मत अर्जित करने के लिए घूसखोरी, दिन-ब-दिन बढ़ती महंगाई, जगह-जगह हो रहे आतंकी हमले, अमेरिका के साथ नागरिक परमाणु करार को अंतिम रूप देना, विश्र्व व्यापार संगठन के नये मसविदे पर संभावित समझौता जिसके तहत कृषि मसलों और नॉन एग्रीकल्चरल मार्केट एक्सेस का जबरदस्त झुकाव अमेरिका और अमेरिकी संघ की ओर है जबकि विकासशील देशों को इससे नुकसान है आदि।
़जाहिर है, सरकार विपक्ष की घेराबंदी में उलझने की बजाए आम चुनावों से पहले ऐसे काम करने पर ़जोर देना चाहती है जिससे जनता का रुख उसकी ओर मुड़ सके। वह परमाणु करार को अंतिम रूप देकर यह बताना चाहती है कि यह देश के लिए कितना जरूरी व लाभकारी है। साथ ही वह इस समय का सदुपयोग अपनी उपलब्धियां गिनवाने में भी करना चाहती है।
दूसरी वजह यह है कि सरकार को डर है कि सांसदों को रिश्र्वत देने के मामले पर कहीं भाजपा के सांसद सामूहिक इस्तीफा न दे दें। यह मुमकिन भी है क्योंकि लोकसभा की मौजूदा अवधि पूर्ण होने में अब ज्यादा दिन बचे नहीं हैं। चार वर्ष पूरा करने के बाद एक सांसद को पेंशन का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इसलिए सामूहिक इस्तीफा देने से सांसद गुरेज भी नहीं करेंगे। लेकिन ऐसी स्थिति से सरकार की फजीहत हो जायेगी। बिना मुख्य विपक्ष के संसद का सत्र ही अर्थहीन हो जायेगा और मीडिया में संसद की कार्रवाई से ज्यादा विपक्ष के इस्तीफे की सुर्खियां होंगी। इन हालात में सरकार के लिए यही मुनासिब होगा कि वह मानसून सत्र न बुलाये और शीतकालीन सत्र भी बहुत कम अवधि के लिए ही बुलाये।
सरकार को एक डर यह भी है कि जिन सांसदों ने अपनी पार्टी की व्हिप को अनदेखा करते हुए मतदान किया या गैर-हाजिर रहे, अगर उनकी सदस्यता लोकसभा अध्यक्ष रद्द कर देते हैं तो सरकार अल्पमत में आ जायेगी और उसे इस्तीफा देना पड़ेगा जोकि उसके भविष्य की राजनीति के लिए फायदेमंद न होगा।
बहरहाल, मानसून सत्र पर “कभी हां कभी ना’ की स्थिति की एक बड़ी वजह यह भी है कि सरकार अब तक यह समझ नहीं पायी है कि जिन पार्टियों से उसने समर्थन लिया था उन्हें अपने साथ कैसे बनाये रखा जाए। मसलन, मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने समर्थन देते वक्त कहा था कि वह सरकार में शामिल नहीं होगी और सिर्फ बाहर से ही समर्थन देती रहेगी। लेकिन अब मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह ने प्रधानमंत्री डॉ. सिंह से मुलाकात करके उन पर यह दबाव बनाया है कि उनके कुछ लोगों को मंत्री पद दिया जाए ताकि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में मायावती का ढंग से मुकाबला कर सके। मुलायम सिंह और अमर सिंह स्वयं तो मंत्री नहीं बनना चाहते लेकिन अपने उन सांसदों को मंत्री बनाने के इच्छुक हैं जिन्हें उन्होंने मायावती के खेमे में जाने से संभवतः इसी लालच के तहत रोका था।
दूसरी ओर झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन भी जल्द से जल्द केन्द्रीय मंत्रिमंडल में कोयला मंत्री बनना चाहते हैं। लेकिन सरकार जल्द मंत्रिमंडल विस्तार करने के मूड में नजर नहीं आ रही है। इसलिए शिबू सोरेन की पार्टी की तरफ से यह दबाव बनाया जा रहा है कि गुरुजी को इस बीच झारखंड का मुख्यमंत्री ही बना दिया जाए। अब डॉ. सिंह की दिक्कत यह है कि अगर वे समाजवादी पार्टी और झामुमो के सदस्यों को अपने मंत्रिमंडल में जगह दें तो कैसे दें। यूपीए के किसी भी घटक दल के मंत्रियों की संख्या वह कम नहीं कर सकते। लिहाजा गाज कांग्रेस के मंत्रियों पर ही गिरेगी। इससे कांग्रेस में असंतोष फैलने की आशंका है। कुल मिलाकर तथ्य यह है कि मंत्रिमंडल विस्तार डॉ. सिंह के गले में हड्डी की तरह फंस गया है जिसे न निगलते बन रहा है न उगलते। इसलिए अजीब-अजीब किस्म के बहाने लिये जा रहे हैं। मसलन, जैसे ही बेंगलुरू और अहमदाबाद में सीरियल बम ब्लास्ट हुए तो सूत्रों के अनुसार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल और रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव को यह काम सौंपा गया कि वे शिबू सोरेन को समझायें कि देश जब दहशत की स्थिति से गुजर रहा हो तो उस समय मंत्रिमंडल का विस्तार करना राजनीतिक अक्लमंदी नहीं होती है।
मानसून सत्र न बुलाने के कारण चाहे जो हों, लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसा करना उचित है? नहीं। लोकतंत्र में संसद ही सबसे महत्वपूर्ण संस्था होती है। सारे मुद्दे संसद में ही रखे जाने चाहिए ताकि जनता के प्रतिनिधि अपनी राय दें और सरकार जनता के हित में सही निर्णय ले सके। संसद से मुंह मोड़ना न सिर्फ लोकतांत्रिक मूल्यों से खिलवाड़ करना है बल्कि यह जनता का अपमान भी है क्योंकि संसद में जनता के प्रतिनिधि उसकी नुमाइंदगी करते हैं। इसलिए अपनी मजबूरियों और दिक्कतों को एक तरफ करते हुए डॉ. सिंह को फौरन ही मानसून सत्र बुलाना चाहिए। मानसून गुजरने के बाद बुलाया गया सत्र किसी भी सूरत में मानसून सत्र नहीं होगा।
– शाहिद ए. चौधरी
You must be logged in to post a comment Login