परमाणु मुद्दे पर पाकिस्तान की निराशा

अन्तर्राष्टीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की एक अगस्त को होने वाली बैठक स्पष्ट रूप से भारत के लिए संभावनाओं के द्वार खोलती समझ में आ रही है। संकेत इस बात के भी मिल रहे हैं कि पाकिस्तान जैसे इस समझौते के विरोधी देश या तो चुप रहेंगे अथवा बहिष्कार करेंगे। इस तरह भारत-अमेरिकी असैन्य परमाणु समझौता संभावना के अनुसार किसी विघ्न-बाधा के पहले फाटक की लड़ाई जीत लेगा। विरोधियों को अब यह भी समझ में आ गया है कि उनका विरोध आगे बढ़ते करार को रोक पाने में कामयाब तो किसी हाल में नहीं हो सकता, उल्टे इस मसले पर उन्हें अमेरिका का कोपभाजन भी बनना पड़ेगा। इस संबंध में सर्वाधिक निराशा पाकिस्तान को हुई समझ में आती है जिसने बाकायदा सदस्य देशों को पत्र लिख कर इस करार को रोकने की पेशकश की थी। उसने इस तर्क के साथ अपना विरोध दर्ज कराया था कि इससे उपमहाद्वीप में हथियारों की होड़ बढ़ जाएगी। आयरलैंड तथा कुछ आीकी देशों ने शुरुआती दौर में उसकी हॉं में हॉं ़जरूर मिलाई थी, लेकिन शक्तिशाली अमेरिका के दबाव में खुलकर सामने आने की हिम्मत किसी ने नहीं जुटाई। अमेरिकी दबाव का ही असर है कि जो पाकिस्तान पहले 35 सदस्यीय समिति में इस मसले पर मतदान कराने के लिए जोर डाल रहा था, अब उसने बयान दिया है कि वह न कोई बाधा खड़ा करेगा और न ही किसी संशोधन की मॉंग करेगा।

इस मसले पर पाकिस्तान को दोहरी मार झेलनी पड़ी है। एक तो उसे इस दिशा में अपने बढ़े ़कदमों को वापस खींचना पड़ा है और दूसरे उसकी इस पेशकश को अमेरिका ने बड़ी बेरहमी के साथ ़खारिज कर दिया है कि ऐसा ही असैन्य परमाणु समझौता अमेरिका पाकिस्तान के साथ भी करे। लेकिन अमेरिका ने पाकिस्तान को लगभग झिड़कते हुए स्पष्ट कह दिया है कि उसे भारत जैसे किसी करार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ ऱजा गिलानी की इस बाबत अपनी मॉंग प्रस्तुत करने के ठीक दूसरे दिन भारत-अमेरिकी समझौते के प्रमुख शिल्पकार निकोलस बर्न्स का यह बयान आ गया कि भारत का भरोसा और उसकी विश्र्वसनीयता एक ऐसा तथ्य है, जो आईएईए की निगरानी में नयी नियंत्रण व्यवस्था के तहत आधुनिक सुविधा शुरू करने का वादा करता है। भारत और पाकिस्तान की इस बाबत तुलना करते हुए बर्न्स ने कहा है कि भारत ने परमाणु प्रौद्योगिकी का प्रसार कभी नहीं किया, लेकिन यही बात पाकिस्तान के संबंध में नहीं कही जा सकती।

दरअसल पाकिस्तान इस बात को भलीभॉंति जानता है कि परमाणु अप्रसार के संबंध में उसका इतिहास हमेशा संदिग्ध रहा है। उसके परमाणु वैज्ञानिक अब्दुल कदीर ़खान ने इस प्रौद्योगिकी को बड़ी फरा़गदिली के साथ कई देशों को हस्तांतरित किया। इस बात को पाकिस्तान भी स्वीकार करता है और इसी के चलते उसने अपने इस वैज्ञानिक को ऩजरबन्द भी कर रखा है। सारी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान आतंकवाद की जन्मस्थली के साथ-साथ शरणस्थली भी है। ऐसी स्थिति में अमेरिका सहित समूचे विश्र्व समुदाय के मन में यह आशंका बनी हुई है कि कहीं परमाणु हथियार अथवा प्रौद्योगिकी आतंकवादियों के हाथ न लग जाए। अतएव पाकिस्तान भी ब़खूबी इस बात से वा़िकफ है कि जो समझौता अमेरिका ने भारत के साथ किया है, वह पाकिस्तान के साथ किसी कीमत पर नहीं कर सकता। इसका संकेत अमेरिकी राष्टपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने समझौते के शुरूआती दौर में ही दे दिया था। मगर पाकिस्तान ने पहले तो यह कोशिश की कि यह समझौता आकार न ले सके। अपने इस प्रयास में असफल होने के बाद उसने इसे आईएईए में रोकने का प्रयास किया। मगर यहॉं भी उसे असफल ही होना पड़ा। अलावा इसके उसकी वह कोशिश भी परवान नहीं चढ़ सकी कि अमेरिका उसके साथ भी ऐसा ही समझौता करे। इसे वैश्र्विक स्तर पर उसकी राजनीतिक पराजय तो माना ही जाएगा, उसे गंभीर रूप से निराश भी होना पड़ा है।

हताशा में करात

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने दो महत्वपूर्ण बातों पर अपनी पार्टी की नीतियों की घोषणा की है। एक तो उन्होंने यह कहा है कि भविष्य में कभी भी उनकी पार्टी कांग्रेस को आवश्यकता पड़ने पर अपना समर्थन नहीं देगी। दूसरी बात उन्होंने यह कही है कि हम आने वाले चुनावों में एक तीसरा मंच पेश करेंगे, लेकिन हम किसी व्यक्ति विशेष को चुनाव में प्रधानमंत्री के रूप में पेश नहीं करेंगे। उनका इशारा इस संदर्भ में साफ तौर पर बसपा सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की ओर ही है। जहॉं तक उनकी पहली घोषणा का सवाल है कि वे अपने समर्थन से कांग्रेस को कभी उपकृत नहीं करेंगे, यह नीतिगत से अधिक व्यक्तिगत है। ़खुद उनकी ही पार्टी के बहुत से वरिष्ठ नेता इस पक्ष में नहीं थे कि कांग्रेस से समर्थन वापस लिया जाय। साथ ही यह भी कि अगर लिया भी जाय, तो कम से कम सांप्रदायिक भाजपा की कतार में खड़े होकर कांग्रेस सरकार के खिलाफ मतदान करने से बचा जाए। लेकिन करात की ़िजद और अहं के कारण पार्टी कैडर को वह सब कुछ करना पड़ा, जो वह नहीं करना चाहते थे। बीच-बीच में वामपंथी दलों के नेताओं के यह बयान भी आते रहे कि अगर सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस को समर्थन देना ही पड़ा तो वे ़जरूर देंगे। अतएव अगले चुनाव की परिस्थितियॉं क्या बनेंगी इसका आकलन प्रकाश करात अभी से कैसे कर सकते हैं। रह गई मायावती को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने की बात, तो संभवतः वामपंथियों ने अभी तक इस दलित नेत्री को सही रूप में पहचाना नहीं है। मायावती किसी तीसरे मोर्चे को तभी स्वीकार करेंगी जब पूरी तौर पर उसकी लगाम उनके हाथ में होगी। वर्ना करात को यह समझ लेना चाहिए कि मायावती की ़जरूरत औरों को भले हो, मायावती को किसी की ़जरूरत नहीं है।

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