व्यक्तित्व की समग्र साधना हेतु चान्द्रायण तप

तप के प्रयोग अद्भुत हैं और इनके प्रभाव असाधारण। इन्हें व्यक्तित्व की समग्र चिकित्सा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। चिकित्सा के अभाव में रोगी शक्तिहीन, दुर्बल, निस्तेज रहता है, लेकिन चिकित्सा के प्रभाव से उसकी शक्तियॉं क्रियाशील हो जाती हैं।

ऐसे अद्भुत व आश्र्चर्यकारी प्रभावों के बावजूद तप के प्रयोगों के बारे में अनेकों भ्रांतियां प्रचलित हैं। कुछ लोग भूखे रहने को तप मानते हैं, तो कुछ के लिए सिर के बल खड़े होना या एक पॉंव के बल पर बहुत समय तक खड़े रहना तप है। ऐसे लोग न तो यह जानते हैं कि तप क्या है? और न ही उन्हें यह मालूम है कि उन्हें क्यों व किसलिए करना है? इस संबंध में कुछ की भ्रांति तो इतनी गहरी होती है कि वे कुछ उल्टी-सीधी क्रियाएं करके लोगों को रिझाने को ही तप मान लेते हैं। जबकि वास्तविक अर्थों में किसी तरह के पाखण्ड और आडम्बर का तप से कोई लेना-देना नहीं है। यह तो विशुद्घ रूप से व्यक्तित्व की समग्र चिकित्सा की वैज्ञानिक पद्घति है।

इस समूची प्रिाया के तीन चरण हैं – संयम, परिशोधन और जागरण। ये तीनों ही चरण ामिक होने के साथ-साथ एक-दूसरे पर आधारित हैं। इनमें से पहले ाम में संयम तप की समूची प्रिाया का आधार है। इसी बिन्दु से तप के प्रयोग का प्रारंभ होता है। इस प्रारंभिक बिन्दु में तपस्वी को अपनी सामान्य जीवन ऊर्जा का संरक्षण करना होता है। वह उन नीति-नियमों व अनुशासनों का श्रद्घा सहित पालन करता है, जो िाया, चिंतन एवं भावना के झरोखे से होने वाली ऊर्जा की बर्बादी को रोकते हैं, इस सच्चाई को हम सभी जानते हैं कि स्वास्थ्य संबंधी सभी तरह की परेशानियॉं चाहे वे शारीरिक हों या मानसिक, किसी न किसी तरह के असंयम के कारण होती हैं। असंयम से जीवन की प्रतिरोधक शक्ति में कमी आती है और बीमारियां घेर लेती हैं।

जबकि संयम प्रतिरोधक शक्ति की लौह दीवार को मजबूत करता है। संयम से जीवन इतना शक्तिशाली होता है कि किसी भी तरह के जीवाणु-विषाणु अथवा फिर नकारात्मक विचार प्रवेश ही नहीं कर पाते हैं। तप के प्रयोग का यह प्रथम चरण प्राणबल को बढ़ाने का अचूक उपाय है। इससे संरक्षित ऊर्जा स्वस्थ जीवन का आधार बनती है। जिनकी तप में आस्था है, वे नित्य-नियमित संयम की शक्तियों का अनुभव करते हैं। मौसम से होने वाले रोग, परिस्थितियों से होने वाली परेशानियॉं उन्हें छूती ही नहीं हैं। इससे साधक में जो बल बढ़ता है, उसी से दूसरे चरण में तप की आन्तरिकता प्रकट होती है। इसी बिन्दु पर तप के यथार्थ प्रयोगों की शुरूआत होती है। मृदु चान्द्रायण, कृच्चा चान्द्रायण के साथ की जाने वाली गायत्री साधनाएँ इसी श्रृंखला का एक हिस्सा है। विशिष्ट मुहूर्तों, ग्रहयोगों, पर्वों पर किये जाने वाले उपवास का भी यही अर्थ है।

परिशोधन किस स्तर पर और कितना करना है, इसी को ध्यान में रखकर इन प्रयोगों का चयन किया जाता है। इसके द्वारा इस जन्म में भूल से या प्रमादवश हुए दुष्कर्मों का नाश होता है। इतना ही नहीं, विगत जन्मों के दुष्कर्म, प्रारब्धजनित दुर्योगों का इस प्रिाया से शमन होता है। तप के प्रयोग में यह चरण महत्त्वपूर्ण है। इस ाम में क्या करना है, किस विधि से करना है, इसका निर्धारण कोई सफल आध्यात्मिक चिकित्सक ही कर सकता है। जिनकी पहुंच उच्च स्तरीय साधना की कक्षा तक है, वे स्वयं भी अपनी अन्तर्दृष्टि के सहारे इसका निर्धारण करने में समर्थ होते हैं। अगर इसे सही ढंग से किया जा सके, तो तपश्र्चर्या में प्रवीण साधक अपने भाग्य एवं भविष्य को बदलने, उसे नये सिरे से गढ़ने में समर्थ होता है।

तीसरे क्रम में जागरण का स्थान है। यह तप के प्रयोग की सर्वोच्च कक्षा है। इस तक पहुँचने वाले साधक नहीं, सिद्घजन होते हैं। परिशोधन की प्रिाया में जब सभी कषाय-कल्मष दूर हो जाते हैं, तो इस अवस्था में साधक की अन्तर्शक्तियां विकसित होती हैं। इनके द्वारा वह स्वयं के साथ औरों को जान सकता है। अपने संकल्प के द्वारा वह औरों की सहायता कर सकता है। इस अवस्था में पहुंचा हुआ व्यक्ति स्वयं तो स्वस्थ होता ही है, औरों को भी स्वास्थ्य का वरदान देने में समर्थ होता है। जागरण की इस अवस्था में तपस्वी का सीधा सम्पर्क ब्रह्माण्ड की विशिष्ट शक्तिधाराओं से हो जाता है। इनसे सम्पर्क, ग्रहण, धारण व नियोजन की कला उसे सहज ज्ञात हो जाती है। इस अवस्था में वह अपने भाग्य का दास नहीं, बल्कि उसका स्वामी होता है। उसमें वह सामर्थ्य होती है कि स्वयं के भाग्य के साथ औरों के भाग्य का निर्माण भी कर सके।

ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने अपना समूचा जीवन तप के इन उच्च स्तरीय प्रयोगों में बिताया। उन्होंने अपने समूचे जीवन-काल में कभी भी तप की प्रिाया को विराम नहीं दिया। अपने अविराम तप से उन्होंने जो प्राण-ऊर्जा इकट्ठी की, उसके द्वारा उन्होंने लाखों लोगों को स्वास्थ्य का वरदान दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने कई कुमार्गगामी-भटके हुए लोगों को तप के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित भी किया।

– डॉ. प्रणव पण्ड्या

You must be logged in to post a comment Login