यह बहस अलग है कि धर्मनिरपेक्ष संविधान को लागू करने के लिए गठित केन्द्र या राज्य सरकारों को किसी भी धर्मस्थल को भूमि देनी चाहिए या नहीं, लेकिन इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि क्या राष्टवाद के नाम पर किसी को भी उन्माद, हिंसा फैलाने और राष्टीय संपत्ति को नष्ट करने की अनुमति है? पिछले कुछ वर्षों से यह बात काफी देखने को मिल रही है कि राष्टवाद का नाम लेकर न सिर्फ सरकारी व गैर सरकारी संपत्ति को नष्ट किया जाता है बल्कि सियासी लाभ के लिए वैमनस्य और उन्माद फैलाया जा रहा है। जाहिर है कि यह सब किसी भी दृष्टि से देशहित में नहीं है।
इस संदर्भ में इतने उदाहरण दिए जा सकते हैं कि किताबें भर जाएं, लेकिन यहां कुछेक ही उदाहरण दिए जा रहे हैं ताकि इस बात पर गौर किया जाए कि राष्टवाद के नाम पर उन्माद फैलाने और संविधान के दायरे में रहकर राष्टप्रेम को मजबूत करना दो अलग-अलग बातें हैं। मसलन, किसी बात का शांतिपूर्ण विरोध करना आपका संवैधानिक अधिकार है, लेकिन विरोध के नाम पर हिंसा करना अपराध है। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आवंटित भूमि की वापसी का विरोध करना या उसके लिए कानूनी लड़ाई लड़ना, हर नागरिक का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन हाथ में राष्टध्वज और जुबान पर राष्टवादी नारे लिए हुए विरोध में रेल की पटरियां उखाड़ना व सरकारी संपत्ति नष्ट करना राष्टवाद नहीं है। इस तरह तो कोई भी हाथ में तिरंगा लेकर कानून व संविधान का मखौल उड़ाने लगेगा। हकीकत में तो यह राष्टध्वज का भी अपमान है। लेकिन इससे भी ज्यादा चिंता का विषय यह है कि एक सैन्य अधिकारी अपनी जिम्मेदारी को सिर्फ इसलिए नहीं निभा पाता क्योंकि दंगाइयों ने हाथ में तिरंगा ले रखा था।
दरअसल, यह कानून व्यवस्था लागू करने वालों की कमजोरी है कि वे राष्टवाद के नाम पर उन्माद फैलाने देते हैं और सख्ती से नियमों को लागू नहीं करते हैं। यही वजह है कि आज जहां एक तरफ जम्मू-कश्मीर सुलग रहा है, वहीं दूसरी ओर उड़ीसा में भी आग लगी हुई है। गौरतलब है कि हाल ही में उड़ीसा के कंधमाल जिले में विश्र्व हिन्दू परिषद के नेता स्वामी लक्ष्मणानंदा व उनके चार शिष्यों की सामूहिक हत्या कर दी गई थी। इस हत्याकांड के लिए सरकार को माओवादियों पर शक है, लेकिन विश्र्व हिन्दू परिषद के नेता इसके लिए ईसाई मिशनरियों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। हत्या का दोषी चाहे जो हो, सरकार की जिम्मेदारी है कि वह उसे पकड़े और सख्त से सख्त स़जा दिलाए। लेकिन साथ ही सरकार की यह भी जिम्मेदारी है कि शक या राष्टवाद के नाम पर लोगों को कानून व्यवस्था अपने हाथ में लेने की अनुमति न दे। अफसोस है कि स्वामी लक्ष्मणानंदा की हत्या के विरोध में विश्र्व हिन्दू परिषद ने उड़ीसा बंद का जो आयोजन किया, वह हिंसा के तांडव में परिवर्तित हो गया और दर्जनों गिरिजाघरों, पूजा स्थलों व इसाई ठिकानों पर हमले व आगजनी की गई। कंधमाल जिले के नौगांव व पसारा क्षेत्रों में संघ परिवार के सदस्यों ने कर्फ्यू का उलंघन करते हुए 7 गिरिजाघरों और 28 मकानों में आग लगा दी और साथ ही एक अनाथालय में 22 वर्षीय एक महिला को जिंदा जला दिया।
स्वामी लक्ष्मणानंदा की हत्या का विरोध होना चाहिए था और सरकार पर दबाव भी डाला जाना चाहिए था कि हत्यारों को जल्द से जल्द गिरफ्तार किया जाए। लेकिन यह कहां का तुक है कि तथाकथित प्रतििाया की दुहाई देते हुए पूजा स्थलों, रिहाइशी मकानों, पब्लिक टंासपोर्ट की बसों और जिंदा लोगों को जलाया जाए। यह उन्माद भड़काने वाला तथाकथित राष्टवाद देश के लिए बहुत घातक है।
दरअसल, प्रतििाया के नाम पर जो यह उन्माद सभी जगह फैलाया जा रहा है, उसके नियंत्रण में निश्र्चित रूप से सरकारी इच्छाशक्ति का अभाव भी जिम्मेदार है। लेकिन इसके लिए अवाम भी जिम्मेदार है कि वह भावनाओं में बहकर अपने ही राष्ट की संपत्ति को नष्ट करने और अपने ही नागरिकों को परेशानियों में डालने में लग जाती है। साथ ही इसके लिए गैर जिम्मेदार वह सियासी नेता भी हैं जो चंद वोटों के लिए खून-खराबे को बढ़ावा देने से भी पीछे नहीं हटते हैं। मसलन, महाराष्ट के नवनिर्माण के नाम पर राज ठाकरे ने गैर महाराष्टियों विशेषकर बिहारियों और उत्तर प्रदेश के लोगों के खिलाफ इतना जहर उगला कि महाराष्ट का निर्माण होने की बजाय वहां सरकारी संपत्तियां नष्ट की जाने लगीं।
दूसरी ओर राज ठाकरे के चाचा बाल ठाकरे ने अपनी उग्र राष्टवादी राजनीति को बचाए रखने के लिए यही ऐलान कर डाला कि हिन्दुओं को आत्मघाती दस्ते बनाने चाहिए। शायद बाल ठाकरे से ही प्रेरित होकर कानपुर में एक दल के दो सदस्य एक निजी हॉस्टल के कमरे में बम बना रहे थे ताकि अहमदाबाद में हुए सीरियल बम ब्लास्ट का बदला लिया जा सके। गौरतलब है कि उनकी यह साजिश उस समय सामने आयी जब हॉस्टल के कमरे में विस्फोट हो गया और उक्त दल के दोनों सदस्य 25 वर्षीय राजीव मिश्रा और 31 वर्षीय भूपेन्दर सिंह चोपड़ा विस्फोट में मारे गए। विस्फोट इतना जबरदस्त था कि दोनों के हाथ-पैर धड़ से अलग हो गए और चंद मिनट में ही उनकी मौत हो गयी। पुलिस ने मौके पर 3 किलो लेड ऑक्साइड, 1 किलो अमोनियम और पोटेशियम नाइटेट, 11 हथगोले, 7 टाइमर, 2 किलो बम के पिन और पैलेट्स, 7 बैटरियां, 12 बल्ब और 50 मीटर तार बरामद किया। मौके पर पाए गए दोनों टाइमर बैटरियों और तारों से जुड़े हुए थे। यह 24 अगस्त के दोपहर की घटना है। इस घटना से स्पष्ट हो जाता है कि राष्टवाद के नाम पर किस किस्म का जहर उगलने की साजिशें की जा रही हैं।
लोकतंत्र में विरोध करना मौलिक अधिकार है। लेकिन विरोध भी शांतिपूर्ण ढंग से होना चाहिए जैसा कि सभ्य देशों में होता है। मसलन, “द लास्ट टेम्पटेशन’ फिल्म जब अमेरिका में रिलीज हुई तो बहुत से ईसाई संगठन इसके विरोध में थे। वे सिनेमाघर के बाहर बैठ गए और फिल्म का विरोध किया, लेकिन सिनेमाघर के अंदर फिल्म शांतिपूर्ण ढंग से चलती रही। जबकि राष्टवाद के नाम पर अपने यहां फिल्मों का विरोध भी हिंसा और आगजनी से होता है। यह एक खतरनाक तरीका है। जितना जल्दी हो इस पर लगाम लगायी जानी चाहिए नहीं तो हिन्दुस्तान अपने ही देशवासियों के षड्यंत्रों का शिकार हो जाएगा।
– शाहिद ए. चौधरी
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