वर्ष 2005 में सूचना के अधिकार को लागू करने के पीछे दो ही मुख्य उद्देश्य थे। कामकाजी प्रिाया को जानने का हक देकर आम आदमी के जनतंत्रात्मक अधिकार को पूर्णतया पारदर्शी बनाना। दूसरा और ज्यादा अहम् यह कि सरकारी कामकाज और कार्यवाही में टालमटोल कर विलम्बन से उत्पन्न भ्रष्टाचार की गुंजाइश को खत्म करना। सूचना का अधिकार कानून बनाते समय शायद इसीलिए इस बात का विशेष ख्याल रखा गया कि इसके उपयोग में एक आम आदमी को न तो अधिक अर्थभार महसूस हो, न ही इसके लिए अधिक क्लिष्ट औपचारिकताओं में आवेदक को उलझना पड़े। सूचना की प्राप्ति की अधिकतम अवधि एक माह रख कर जहॉं आवेदक को अपने उत्तर के लिए अधर में लटक जाने की आशंका से मुक्त रखा गया, वहीं दूसरी तरफ सिर्फ एक साधारण प्रार्थना-पत्र पर महज दस रुपए का शुल्क निर्धारित करके जानकारी मांगने का अधिकार देकर आवेदनकर्ता को और भी सहज और आश्र्वस्त करने का भरसक प्रयत्न किया गया।
सूचना का अधिकार लागू होने के कुछ दिनों के अंदर ही इसकी उपयोगिता और सार्थकता सामने दिखने लगी। आम लोगों ने इस नए अधिकार का उपयोग करते हुए ऐसे विभागों से और बरसों पुरानी ऐसी दुरूह सूचनाएं हासिल कीं जो आमतौर पर उन्हें पैसा खर्च करने और सालों चक्कर लगाने के बाद भी नहीं मिल सकती थी। किसी को उसकी सालों से रुकी हुई पेंशन मिलने लगी तो किसी की बरसों पुरानी विभागीय कार्यवाही का निपटारा हो गया। सूचना का अधिकार को प्रोत्साहित होने में जिस एक और कारक की महत्वपूर्ण भूमिका थी, वह थी मीडिया की भूमिका। मीडिया द्वारा न सिर्फ सूचना का अधिकार के तहत आवेदन किए गए बल्कि प्रार्थना-पत्रों, उनके जवाब और उनके परिणाम आदि को भी मीडिया ने हाथों-हाथ लिया। इन सबका प्रतिफल यह निकला कि अकर्मठता और भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुके सरकारी दफ्तर और सरकारी कर्मचारियों व अधिकारियों तक पर सूचना के अधिकार की ऐसी तलवार लटकी कि उनके व्यवहार और कार्यप्रणाली में सुधार आने लगा।
देश में स्थापित परंपरा के अनुरूप इस कानून का भी दोतरफा उपयोग किया जाने लगा। एक आंकड़े के अनुसार वर्तमान में सूचना का अधिकार के तहत आवेदन किए जा रहे प्रार्थना-पत्रों में से सिर्फ 15 प्रतिशत ही ऐसे हैं, जो किसी जनहितार्थ पूछे गए हैं। अधिकांश आवेदक अपनी शिकायतों को भी सूचना का अधिकार के आवेदन के साथ घालमेल कर देते हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि एक तरफ जहॉं इस अधिकार के महत्व में कमी आ रही है, वहीं अनावश्यक रूप से ऐसे आवेदनों की अधिकता इस नायाब योजना के सुचारू रूप से चलने में भी बाधा पहुँचा रही है। पिछले दिनों किसी व्यक्ति ने मात्र इस अंदेशे की जॉंच के लिए कि कहीं किसी व्यक्ति ने उसके खिलाफ कोई मुकदमा दायर तो नहीं किया, उसने अदालत में सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी मांग ली। परिणामतः दिल्ली की जिला अदालतों से, जो कि लगभग दो सौ हैं, यह सूचना एकत्र की गई। इतना ही नहीं, किसी ने पिछले दिनों किसी विभाग से सूचना मांगी कि उस विभाग में कार्यरत कर्मचारियों की वैवाहिक स्थिति क्या है तथा बच्चों तक के नाम की सूची भी दी जाए। अब ऐसे आवेदनकर्ता को क्या और कैसे समझाया जाए, यह कठिनाई की बात है। ऐसे प्रार्थना-पत्रों और मांगी गई अजीबो-गरीब सूचनाओं से विभागों में तैनात सूचना अधिकारी भी हैरान-परेशान हैं। चूंकि सूचना उपलब्ध न करा पाने की स्थिति में दोषी अधिकारी के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही का प्रावधान होने के कारण सभी जवाब तो दिए जाते हैं मगर टालमटोल या गोलमोल वाले अंदाज में।
सूचना के अधिकार से संबंधित एक अन्य विडम्बना है आधी-अधूरी, अस्पष्ट या जल्दबाजी में दी गई सूचना। इस अधिकार के तहत यह प्रावधान रखा गया है कि किसी भी परिस्थिति में आवेदन प्राप्त होने के एक माह के अंदर आवेदक को सूचना उपलब्ध कराना आवश्यक है। ऐसा नहीं होने पर दोषी अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही हो सकती है। इसका एक नकारात्मक परिणाम यह है कि अक्सर सूचना जल्दबाजी में, अपूर्ण व अस्पष्ट तरीके से तैयार या एकत्र करके आवेदनकर्ता को दे दी जाती है। हालांकि इसमें त्रिस्तरीय अपील की व्यवस्था रखी गई है, जिसके अनुसार उपलब्ध कराई गई सूचना से असंतुष्ट या असहमत होने पर अपील अधिकारी और उसके बाद मुख्य सूचना आयुक्त के पास अपील की जा सकती है, किंतु यथार्थतः इसकी स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2007 के अंत तक मुख्य चुनाव आयुक्त के पास लंबित अपीलों की संख्या इतनी अधिक हो चुकी थी कि उन्हीं के निपटारे में महीनों लग जाएंगे। इसी आंकड़े में बताया गया कि अपर्याप्त या गलत जानकारी देने के दोषी पाए गए पदाधिकारियों में से बहुतों को तो अर्थदंड दिया ही नहीं गया और जिन्हें दिया भी गया, उनसे उसका भुगतान नहीं कराया जा सका।
इसके अलावा सूचना का अधिकार कानून के समक्ष एक अन्य कठिनाई है, लोगों को इसकी जानकारी एवं इसकी उपयोगिता के बारे में पता नहीं होना। सूचना का अधिकार कानून के लिए प्रयासरत लोगों का मानना है कि ऐसे कानूनों और विशेषकर इस कानून की सार्थकता और सफलता मुख्यतः दो ही बातों पर निर्भर करती है। पहली यह कि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक यह जानकारी पहुँचे कि किसी भी प्रकार की सूचना हासिल करना उनका मूल व नैसर्गिक अधिकार है। दूसरी बात यह है कि इन सूचनाओं के आधार पर उपलब्ध जानकारी का उपयोग करके व्यवस्था व कार्यप्रणाली को दुरुस्त करने का प्रयास किया जाए। हालॉंकि अवधि के हिसाब से यह कानून अभी अपने शैशवकाल में ही है, किंतु इतने अल्प समय में इसकी उपलब्धि को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आने वाले समय में सरकार व समाज के बीच प्रशासनिक पारदर्शिता लाने में यह कानून महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। किंतु इसके साथ ही इस क्षेत्र से जुड़े लोगों, कार्यकर्ताओं एवं संस्थाओं को यह भी ध्यान रखना होगा कि उनके साथ-साथ आम लोग भी इस अधिकार का उपयोग संजीदगी और बुद्घिमानी से कर सकें।
– अजय कुमार झा
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