ओम सुमुखश्र्चैक दन्तश्र्च कपिलो गजकर्णक
जम्बोदरश्र्च विकटो विघ्ननाशो विनायक।।
धूमकेतू गणध्यक्षो भालचन्द्रो गजानन।
द्वादशैतानि नामानियः पठेच्छुगुणादपि।।
उपर्युक्त मंत्र में गणेश जी के द्वादश नामों का उल्लेख किया गया है। इन द्वादश नामों के नियमित पाठ से मनुष्य के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और सभी मनोरथों की सिद्घि होती है। गणेश जी के हर एक नाम का एक विशेष अर्थ होता है, समस्त नामों से उनकी ऐसी विशेषताएं उजागर होती हैं, जो किसी अन्य देवता में नहीं पाई जातीं तथा अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण गणेश जी देवताओं के अध्यक्ष (गजाध्यक्ष) कहलाते हैं। राष्टीय स्वतंत्रता आंदोलन के काल में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने जब संपूर्ण देश में गणपति पर्व आयोजित करने का निश्र्चय किया होगा, तो उनके सामने गणेश जी के विविध नामों के रहस्य अवश्य स्पष्ट हुए होंगे। तभी तो तिलक जी ने भारत-वर्ष जैसे देश की एकता के लिए अन्य समस्त देवताओं को छोड़ दिया तथा केवल गणेश जी का ही चयन किया। कारण यही प्रतीत होता है कि गणेश जी के व्यक्तित्व में ही वे सारी विशेषताएं हैं, जो किसी संगठन के अध्यक्ष में होनी चाहिए।
गणेश जी का स्थूल शरीर जैसा है, उसके अनुसार यदि उनके गुणों की व्याख्या करेंगे तो हमें अनेक विसंगतियों का सामना करना पड़ेगा। जैसे एक ओर तो उन्हें “सुमुख’ कहा जा रहा है और दूसरी ओर “विकट’ भी। ऐसी स्थिति में एक विरोधाभास उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार की स्थिति में उपर्युक्त मंत्रों के अभिध्यार्थ से परे जाकर हमें उन प्रतीकार्थों की गहराई में जाना होगा, जो वस्तुतः गणेश जी के रहस्यमय व्यक्तित्व को समझने में संकेत देते हैं।
किसी की वास्तविक सुंदरता उसके मन में होती है। शारीरिक सौंदर्य तो भ्रम है। शरीर को देखकर किसी की आत्मा के उत्कर्ष का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। चूंकि गणेश जी मांगलिक कार्यों के देवता हैं, ये सदैव लोगों का कल्याण करते हैं। अतः उनका सौंदर्य मन में है, स्थूल शरीर में नहीं। अतः उन्हें “सुमुख’ कहा जाता है, जिनके दर्शन मात्र से समस्त अशुभ का नाश हो जाता है। गणेश के एकदंत होने का भी गहन रहस्य है। उनके खाने के दांत अलग और दिखाने के अलग नहीं हैंै। इस मुहावरे का प्रयोग उन लोगों के लिए किया जाता है, जो कपटी होते हैं, छली होते हैंै। परस्परिक छल-कपट के भाव के कारण ही आज पूरा देश विघटनकारी प्रवृत्तियों से ग्रस्त हो गया है। देव-समाज में गणेश जी का व्यवहार ऐसा नहीं माना जाता। बाहर-भीतर से एक समान होने के कारण तथा सभी के साथ एक समान व्यवहार करने के कारण ही गणेश जी को “एकदंत’ कहा जाता है। यह उनकी न्यायप्रियता का भी प्रतीक है। वे शत्रु और मित्र में भेद नहीं करते और न्याय के पक्ष का ही साथ देते हैं। उनके एकदंत होने का यही रहस्यात्मक संकेत है।
गणेश जी को “कपिल’ कहने का भी बड़ा रहस्यमय अर्थ है। “कपिल’ लाल वर्ण को कहते हैं। हमारे साहित्य-शास्त्र में कपिल वर्ण उत्साह-भाव का माना गया है, जिसका स्थायी-भाव लोकमंगल होता है। पर-दुःखकातरता अर्थात दूसरे के दुःख को देखकर विचलित हो जाना और उसके हितार्थ कार्य करना उत्साह का संचारी भाव है। इस प्रकार साहित्य शास्त्र के अनुसार गणेश जी को “कपिल’ कहने का आशय यही है कि वे देवताओं के कार्यों को सिद्घ करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं, उत्साह से ओत-प्रोत रहते हैं।
देवताओं के दुःख से द्रवीभूत हो जाते हैं और उनके हित साधन के लिए अग्रसर होते हैं। अतः उन्हें “कपिल’ कहा जाता है।
गणेश जी को “गजकर्ण’ कहा जाता है, क्योंकि उनके कान हाथियों के कान की तरह हैं। पुराण कथाओं के अनुसार बाल्यावस्था में विरोध-विग्रह के कारण भगवान शंकर ने उनके देव-सिर को काट दिया था। बाद में अपनी कृपा-दृष्टि के लिए एक गज-शावक का सिर काटकर गणेश जी के धड़ से जोड़ दिया था। हस्ति-शावक का सिर होने के कारण ही गणेश जी को “गजकर्ण’ कहा जाता है। इसका प्रतीकार्थ यह है कि अपने बड़े-बड़े कानों से गणेश जी सभी की बातें सुनते हैं, सभी की समस्याओं का निराकरण करते हैं। किसी राष्ट का जो अध्यक्ष होता है, उसका यह कर्त्तव्य है कि वह “गजकर्ण’ बने। अर्थात अपने कानों से सभी प्रजा-वर्ग की बातें सुनें। किन्तु अध्यक्ष के लिए केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है। प्रजा-वर्ग की बातों या समस्याओं को सुनकर उन्हें पचाने की जरूरत है, इसीलिए गणेश जी को “लम्बोदर’ कहा जाता है। “लम्बोदर’ का यह स्थूल अर्थ ग्रहण किया जाता है कि गणेश जी भोजन अधिक करते हैं। यह भौतिक अर्थ है, इसे खान-पान की अभिवृद्घि का प्रतीक भी माना जा सकता है। गणेश जी के लम्बोदर होने से आशय यही है कि वे “इधर की बात उधर करने वाले’ देवता नहीं हैं। वे तो सबकी बातों को सुनकर अपने उदर में गुप्त रखने वाले देवता हैं।
प्रस्तुत मंत्रों में गणेश जी को “विकट’ कहने का आशय उनके शौर्यशाली होने के अर्थ का संकेत करता है। ऐसा जो व्यक्तित्व होता है, वही समस्त विघ्न-बाधाओं को नष्ट करने की क्षमता रखता है और इसीलिए गणेश जी को विघ्न-नाशक देवता कहते हैं।
गणेश जी पर जिन विशेषताओं का आरोपण किया जाता है, उनसे प्रायः एक संगठित राष्ट का बोध होता है। गणेश जी मूषक पर सवारी करते हैं। मूषक अन्न चोर होते हैं, छुपकर अन्न का भक्षण करते हैं। इस तरह राष्ट की समृद्घि का शोषण करते हैं। गणेश जी ऐसे शोषक चूहों पर आरूढ़ होते है, अर्थात शोषण का हनन करते हैं और अपने उपासकों को धन-धान्य की समृद्घि प्रदान करते हैं। संस्कृत में “केतु’ ध्वज को कहते हैं। गणेश जी का ध्वज “धूम्र’ का है। यह भी प्रतीक है, राष्ट में अन्न-धन की समृद्घि का। जब प्रत्येक घर में पर्याप्त भोजन होता है, तो घर की छतों से धुआं “धूम्र’ उठता हुआ लक्षित होता है, जब भोजन पकाया जाता है। ऐसा उर्ध्वमुखी धूम्र ही गणेश जी का ध्वज “केतु’ है।
इस प्रकार धन-धान्य की समृद्घि घर-घर और जन-जन को प्रदान करने वाले गणेश जी को उनके विशिष्ट गुणों के कारण देवताओं का अधिपति (गणाध्यक्ष) बनने का अवसर प्राप्त हुआ। अपने मस्तक पर उन्होंने चंद्र को धारण किया है। चूंकि गणेश जी अध्यक्ष हैं, सभी की समस्याओं से अवगत रहते हैं, अतः बौद्घिक दृष्टि से चिंताग्रस्त रहते हैं। अतः चिंताओं के ताप-हरण की दृष्टि से चंद्रमा को धारण किया है। यह इस बात का भी प्रतीक है कि कितनी भी भीषण समस्या क्यों न हो, प्राणी को ठंडे दिमाग से सोचना और कार्य करना चाहिए।
देवताओं में श्रेष्ठ ऐसे गणेश जी को “गजानन’ कहा गया है। उनका विशाल मुख उनकी आत्मिक उदारता और विशालता का प्रतीक है। संस्कृत के अगणित श्लोकों में वैसे तो गणेश जी के और भी अनेक नामों का उल्लेख है-जैसे “वातुंड महाकाय सूर्य कोटि सम प्रभः।’ वे वातुंड हैं, महाकाय हैं तथा करोड़ों सूर्यों के समान दीप्तमान हैं। वातुंड उनके कूटनयिक होने का, महाकाय ब्रह्मांड स्वरूप होने का तथा करोड़ों सूर्यों के प्रकाश्-ज्ञान का प्रतीक है। इस प्रकार देवताओं में गणेश जी का सर्वोपरि महत्व सिद्घ होता है। वे अपने स्वरूप से राष्टीय एकता और समृद्घि का दिव्य संदेश देते हैं।
– विजय कुमार शर्मा
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